देवेश
विजय
इतिहास
विभाग
ज़ाकिर
हुसैन कॉलेज।
२१-१२-०७.
मैट्रो
मेरे शहर के गालों पर,
कुछ दमक छिटकी है
मैट्रो से,
इन दिनों ।
चमकते बदन और खामोश
अंदाज़ वाली
यह नये ज़माने की ईजाद,
बनी है दिल्ली की पहचान,
इन दिनों ।
ढूंढ लिये रास्ते जिसने
इस शहर की भीड़ में सरपट,
इंजीनियरी का कैसा कमाल
लाई है मट्रौ,
इन दिनों ।
कभी ज़मीन,
कभी पाताल में
और कभी फलक को छू कर तो
गुज़रती है,
तन्हाई घटाती नहीं शहर की
फिर भी मैट्रो,
इन दिनों ।
वो कामगर,
जो बसों के रहेंगे
मुसापिफर
बस थोड़ी सी बचत की
खातिरऋ
और वो घरौंदे,
जिन्हे उजड़ना ही है
विकास की रमफतार में
आखिरऋ
कैसी लगती होगी उन्हें
?
सोचता हॅू,
मैट्रो इन दिनों ।
मैट्रो से कॉलेज जाते,
या न जाते,
ये युवा
यॅू तो स्वच्छंद,
विनम्र और प्यारे दिखते
हैं ।
पर इनके अस्थिर रिश्तों
सी ही,
क्या नहीं सहमी है,
भीतर से,
मैट्रो इन दिनों ?
'अगला
स्टेशन पफलां-पफलां है,
दरवाज़े बायीं तरपफ
खुलेंगेऋ
कृपया सावधनी से उतरें,'
कहती है हर मिनट मैट्रो,
इन दिनों ।
पर यह भी कि 'बैठने
से पहले सीट के नीचे और आसपास देख लें ।
किसी अनजान आदमी से बातें
न करें ........`
ना जाने कब क्या हो जाये,
इन दिनों ।
हर तरक्की के साये में डर
छिपे हैं यॅू तो कईऋ
कामयाबी की नायाब मिसाल
रहेगी पिफर भी,
दिल्ली की मैट्रो,
बहुत दिनों ।