Book Reviews

दलित राजनीति और संगठन का इतिहास बताती एक जरूरी किताब

तिनका-तिनका आग’: दलित मन की व्यापक संवेदनाएं

ठहराव के खिलाफ़ कविताएं

 

 

 

 

 

 

ठहराव के खिलाफ़ कविताएं

मुकेश मानस

 

मेरी कविताएं वृक्षों की फुनगियों पर

फूल होना चाहती हैं

अनाज बनकर भर जाना चाहती हैं

                                                            कनस्तरों में

डिब्बों में दाल होकर

परन्तु.../परन्तु उन गुस्सैल शब्दों का क्या करूं

जो कविताओं को पहले

हथियारबंद करना चाहते हैं

यथास्थिति के खिलाफ़

                                    पिछले कविता संग्रह इतना जो मिला से

 

वे शब्द, जो यथास्थिति के खिलाफ सिर उठा सकें उससे लड़ सकें, जो जिन्दगी को फूल-सा महका सकें, जो भूखे आदमी के खाली कनस्तरों और डिब्बों में आटा-दाल-चावल होकर भर सकें, उन्हीं शब्दों को तरह-तरह के रंगों, रूपों, भावों और एक जन पक्षधर प्रतिबद्धता से संयोजित कर अपने पिछले कविता संग्रह इतना जो मिला¸ के प्रकाशन के लगभग पद्रह सालों के लम्बे अन्तराल के बाद अपने ताजे कविता संग्रह समय शब्द के औचित्य को जानता है¸ के साथ पाठक के लेखे उपस्थित हुए हैं श्याम विमल।

हम ताजे रंग देखना चाहते हैं

अपने आस-पास

67 साल के हो चुके श्याम विमल का यह तीसरा कविता संग्रह है। इससे पहले उनके दो कविता संग्रह दीमक की भाषा (1970)¸ और इतना जो मिला (1983)¸ पुस्तकाकार होकर काव्यजगत में अपनी ऐतिहासिक उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। यह अलग बात है कि काव्य जगत में आज भी उनकी अपेक्षित चर्चा नहीं होती। शायद इसलिए कि वह हर गुट से बाहर खड़े हैं आज हिन्दी जगत में जो भयानक गुटबंदी और खेमेबाजी नजर आती है उसके चलते श्याम विमल जैसे अनेक संवेदनशील और ईमानदार इंसानों का लगातार तमाम हथकंडे अपनाकर गैर-जरूरी फिल्ट्रेशन किया गया है जिससे हिन्दी कविता का कापफी नुकसान हुआ है मगर अपने जीवन के समूचे राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में ताजे रंग देखने की उनकी इच्छा और उनके उपस्थित हो जाने की उनकी आशा अपने पूरे ताजेपन और मार्मिक संवेदनापूर्ण रंगों के साथ उनकी काव्य यात्र में व्यापक रूप से उपस्थित है।

 

शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन के सानिध्य में काव्य कर्म शुरू करने वाले, साठोत्तरी आंदोलनों से लेकर आज तक सदैव गुटबाजी और खेमेबंदी का विरोध करने वाले श्याम विमल जैसे लगातार काव्य क्षेत्र में गुटबाजी और व्यवहारिक संकीर्णता के विपक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। उनका मानना है कि साहित्यिक गुट होने चाहिए किन्तु संकीर्ण और अवसरवादी गुटबाजी साहित्य में नहीं होनी चाहिए। इसे नयी प्रतिभाओं का क्षरण होता है आज भी यह ईमानदार स्वर उसी प्रतिबद्धता के साथ वहीं है और उसी मुद्रा में। उनकी कविता, उनके स्वर आज भी खड़े हैं मुटठी तानकर अमानवीयता और व्यवस्था की क्रूरता के खिलाफ। वह आज भी जन आक्रोश के व्यापक रूप में उठ खड़े होने की कामना में रत रहती है।

मुझको ऐसी कविता न दो

जिसमें काम करने वाले पर मार पड़े

और वह चूं तक न करे

ईबारत तो सोची रहे नवाबजादों को लेकर

और मरने के लिए काम पर डटा रहे आदमी

                                                मुझको ऐसी कविता न दो।

कवि का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश उसकी कविता के जरिए उसके विचारों की भाव भूमि पर शब्दों की शक्ल में उतरता है। कवि के परिवेशजन्य यथार्थ और काव्यात्मक अभिव्यक्ति में जो अंतद्र्वन्द्व होता है, वही उसकी मनोभूमि को व्याख्यायित और परिभाषित करता है। परिवेशजन्य परिस्थितियां, उनके अनुभव, अनुभवों की प्रासंगिकता कवि के रचनात्मक जगत को प्रभावित करते हैं। रचना और विवेक साथ-साथ या आगे-पीछे चलकर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। श्याम विमल इस अंतद्र्वन्द्व से लगातार उबरने की कोशिश में मुक्ति के अनेक मार्गों की रचना करते हैं, संघर्ष के विविध रूपों की पहचान करते हैं यहीं से चलकर उनकी कविता एक व्यापक फलक पर फैलकर सर्वग्राहय हो जाती है। इस पूरे दौर में कवि भयानक वेदना और छटपटाहट से गुजरता है और उसकी अर्थवान अभिव्यक्ति इस कविता संग्रह की अनेक कविताओं में उपस्थित है।

 

यह कवि अपनी सभी कविताओं में अपने समय और समाज में व्याप्त और लगातार जटिल होती जा रही विसंगतिपूर्ण परिस्थितियों के तनाव से परेशान नजर आता है। वह लगातार महसूस करता है कि आम आदमी लगातार अमानवीय परिस्थितियों की ओर धकेला जा रहा है। उसे लगातार इस तरह तोड़ा जा रहा है कि वह लगातार उपेक्षित और शोषित हो रहा है। दीन-हीन-अभिशप्त के पक्ष का सवाल कवि बार-बार दुहरा कर जैसे समाज में व्याप्त जन विरोधी माहौल को उकेरता है:

विरही मन का

दीन हीन अभिशप्त जन का

कौन लेता पक्ष

यह दीन-हीन अभिशप्त का जीवन है जो श्याम विमल की काव्य भूमि के केद्र में है। इस जीवन को बिन पैठे देखना, रचना कवि और कविता दोनों को तटस्थ भूमिका में खड़ा कर सकती है। मगर श्याम विमल यहां सचेत दिखते हैं। दीन हीन जन के बल पर सत्ता तक पहुंचने वाला शासक वर्ग अब अपना समाजवादी बिल्ला उतार चुका है और अपने खूनी पंजे पैना रहा है। सामंती अवशेषों को जिंदा रखकर, उसे कमजोर करके लगातार भूख और बेरोजगारी के खिलाफ सड़कों पर उतरकर संघर्ष करती जनता का खून करके वह लगातार तरक्की कर रहा है। इधर आम आदमी घुटनभरी, बदहाल जिन्दगी जीने को अभिशप्त है। सागर, फूल, चिड़िया उसको चिढ़ा रहे हैं। अवसरवाद मध्यवर्ग की प्रगतिशील ताकतों की आंखों में समा चुका है, नारों का रंग उतर चुका है। चारों ओर भयानक लूट-खसोट और हिंसा जारी है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद अपने पिछले पंजे और मुखौटे उतार चुके हैं। धार्मिक दंगों में, मंहगाई में, फासीवादी तनाव में, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी में, धब्बेदार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में सब कुछ टूट रहा है आदमी, चेतना, समाज। सत्ता के पक्षधर और सत्ता वर्ग हर चीज को बाजारू बना देने पर आमादा होते हुए शोषण के भयानक से भयानक रूप लेकर जनता के बीच उतर रहा है। वह आम आदमी का शोषण करने के लिए नित नए मुखौटे बदल रहा है। उसकी हकीकत लगातार भयानक होती जा रही है। यह उसी के विस्तार का नतीजा है कि आदमी का दुश्मन होता जा रहा है।

तू जंगल का एक हिस्सा हो जाती है

जब जाति से जानवर हुआ प्राणि

शिकारी की हैसियत लेकर

अपनों का शिकार करने लगती है।

यह नारा नहीं है, यह कविता है। शोषणकारी व्यवस्था के विविध रूपों की पहचान का एक धारदार हथियार। यह जीवन में पैठकर देखने वालों कीदृष्टि में समाया हुआ यथार्थ है। जीवन की पीड़ा से गुजरता, उसको खोलना, कारणों को उजागर करना, वहां से जन जन को रास्ता तलाशने की प्रेरणा की ओर ले जाती हैं यह कविताएं। शहरी जीवन में विज्ञान और तकनीक की अनावश्यक और उपभोक्तावादी बढ़त ने व्यक्ति से व्यक्ति की दूरी को बढ़ाया है। पूंजीवाद अपने साथ व्यक्तिवादी, अलगाववादी सांस्कृतिक मानसिकता लेकर आता है जिसका सबसे ज्यादा शिकार मेहनतकश जनता होती है। शहर खूनी दस्ताने चढ़ाकर गांवों को, जन-जन की ताकत को, उसकी संघर्षशील सामूहिक चेतना को लील रहा है। आदमी श्रमिक, बेरोजगार और वेश्या होकर पिस रहा है। तरस रहा है

           

खुली हवा में सांस लेने को। मूल्यों के पतन की बढ़ती घुटन लगातार बढ़ रही है। विषमता की चौड़ी होती खाई उसके भीतर अंधेरे की किरच बनकर धंस रही है उसके दिलो-दिमाग को चीरती, काटती-छांटती। आज जब अधिकतर कवि महानगरीय बोध से उत्पन्न निराशा में गोते लगाते हैं और इससे उबरने के लिए वे आत्मालाप करने को विवश होते हैं। ऐसे में श्याम विमल की खासियत यह है कि वे महानगरीय बोध के एकालापी अंधेरे बंद कमरे में चक्कर नहीं लगाते हैं और न ही फूलों और चिड़िया को अपनी आशा का केद्र बनाते हैं। उनकी नजर आम आदमी की विवशता और उसके लिए जिम्मेदार सत्ता वर्ग को पहचान लेती है

                        आज भी वे वहीं हैं

                        ...... पुटठों की ताकत

                        सकत हाथों की /ढली है

                        केवल बस्ती/इनकी/जिंदगी तो अधजली है

                        हासिल जो हैं बच्चे/पैबद से टंग गए हैं गुदड़ी में

                        लाल ये क्या बनेंगे /ऊपर जब टुच्चे हैं

बच्चे और औरत इस संस्कृति के सबसे पहले शिकार होते हैं। बच्चे गरीबी की मार सहकर काम करते हुए बचपन को घिसने को अभिशप्त होते हैं। बाल संवेदना से हीन स्कूल उन्हें लगातार बाहर ठेलते हैं। उनके नाम पर चलाई जाने वाली सारी योजनाएं उनके परिवार की भूख के आगे नाकामयाब साबित होती हैं:

                        बच्चा नहीं जानता

                        रोटी के आगे क्या लिखना है

                        वह तो बोलना जानता है

                        मां.....भूख

सामंतवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था लगातार औरत की आकांक्षाओं और आजादी को लगातार कुचलती रही। सामंती अवशेषों को जीवित रख पूंजीवादी शासक वर्ग ने उस पर होने वाली जुल्मों सितम की कहानी को बदस्तूर जारी रहने दिया। पूंजीवादी व्यवस्था ने भी औरत को वायवीय स्वतंत्रता देकर उसे उपभोगीय वस्तु ही बनाकर रखा। वह आज भी लगातार भिन्न रूपों में शोषित है। औरत के जीवन की विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों के श्याम विमल बड़े ही मार्मिक चित्र उकेरते हैं :

                        फिर वह / मां बनी / नानी बनी / दादी बनी

                        यूं ढली गई / और एक दिन / Úेम में चली गई

 

शहरी सभ्यता को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाने वाला आम आदमी लगातार दुखों और अभावों में जीवन जी रहा है। उसका जीवन अंधेरे बंद कमरे जैसा है :

                        कोई खिड़की नहीं / भीतर की रुकी हुई हवा

                        बाहर की हवा से नहीं मिल पाती

                        रौशनदान तक नहीं है / बाहर की रौशनी

                        तुम तक नहीं पहुंच पाती

शहरी सभ्यता का यह निम्न या आम आदमी ही शहरीली अमानवीयता के चाकू की धार को कुंठित कर सकता है मगर वह अपनी भूख और अपने अभावों से जूझ रहा है। शहरी सभ्यता की अलगावादी मार उस की ताकत को कुंठित कर रही है। अलगाववादी मानसिकता इतनी बढ़ गई है कि दिन दहाड़े आम आदमी की हत्या होती है और लोग देखते रह जाते हैं :

                        हम देखते रहे / चाकू किसी के पेट में भोंका.....

                        पेट से खून की धार बह निकली / हम चुपचाप

                        हमारे पांव घटनास्थल से हमें लेकर / चल पड़े

                        और जमाने को कोसते हुए

                        हम तितर-बितर हो गए

मानवीय हत्याओं के प्रति ऐसी निरीहता पूंजीवादी संस्कृति की देन है। पेट की भूख और अभावों में जीता आदमी यथास्थिति में जीने को अभिशप्त रहता है। मगर श्याम विमल यहां नहीं रुकते। वे मानवीयता जड़ता और यथास्थिति की सामाजिक परिस्थितियों की चट~टानों को तोड़ते हैं। वे इस ठहराव से मानवीय मुक्ति के रास्ते निकालते हैं। एक रास्ता वापसी का रास्ता तय करता है और पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा फैलाये जाने वाले धार्मिक पुनर्उत्थान, अध्यात्मिकतावादी रूझान की तरफ कदम बढ़ाता है यहां कवि ठेठ भौतिकवादी वस्तुवादी समझ के साथ उपस्थित होते हैं। यह पूंजीवादी शोषण के खिलाफ हथियारबंद होते शब्दों की चेतना को कुंद करने के षडयंत्र को खोलने और उससे बचने का रास्ता है। अध्यात्मिक चेतना में लौटने पर भी वह अपने परिवेश से कटता नहीं है। परिवेश जिसमें हर ओर भूख व्याप्त है, इच्छाओं का दमन व्याप्त है। सांस्कृतिक जीवन की वापसी की छटपटाहट मौजूद है। बच्चों का भूख से तड़पना, औरतों का फ्रेम में जाना, उनका वेश्याओं में बदल जाना व्याप्त है। कवि के पास मां की वेदना और उसकी मौत से पैदा हुई करूणा है उसकी आंखे यथार्थ की क्रूरता को देख लेती हैं :

                        ये जो आंखें तुम्हें मिलें

                        ईश्वर करे इन्हें वो सब ना देखना पड़े

                        जो इन्होंने देखा था

                        इन्होंने देखा था : देश विभाजन / इन्सानों की कटी लाशों को

                        सड़क दुर्घटनाओं में तड़पता हुआ एक असहाय जिस्म

                        स्टोव की आग में बगूला बनी नारी देह को

                        भूख से बिलखते बच्चे का कंकाल

                        बेरोजगारी से बेजार

                        आत्मदाह करते युवक को भी देखा था।

धार्मिक पुनर्उत्थान और झूठी अध्यात्मिकता के जालों को काटकर यहीं से कवि दूसरा सप+फर तय करता है। सदियों से जुल्म के खिलाफ उंगलियां भींचकर तनती मुट~ठी का सफर, शोषण के खिलाफ बनते-बिगड़ते कीलों वाले चेहरे का सफर। यह शोषण, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ बच्चों, युवकों औरतों और श्रमिकों का चेहरा है जो लगातार बन रहा है। कभी तेलंगाना और कभी नक्सलबाड़ी में बनता बिगड़ता रहा है यह चेहरा। इस चेहरे के पूर्ण होने की अभिलाषा कवि की आखिरी अभिलाषा है जिसके लिए वह धर्म आस्तिकता, अध्यात्यम, सौंदर्य सबको त्याग देने को तत्पर है। यह चेहरा दीन-हीन अभिशप्त जन का चेहरा है, जिसको लगातार छला जा रहा है और जिसके प्रति प्यार उनकी कविताओं में मचल रहा है। कहा जा रहा है कि आजकल का समय सृजन विरोधी है। यथार्थ इतना जटिल हो गया है कि शब्द उनकी अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

 

समाज के सभी सृजनधर्मी गलियारों में निराशा, अवसाद और यथास्थितिवाद जड़ जमा रहा है। यहां इतना ही कहना काफी है कि निराशा, अवसाद और यथास्थितिवाद का वास्तविक विरोध रचना और रचनाकार की दीन-हीन अभिशप्त जन जीवन में समायी व्यापक दृष्टि ही हो सकती है। समर्थ और अनुभवी रचनाकार जनता की ताकत को पहचानते हैं और उसकी सृजनधर्मी कौशल की निरंतरता को। आज के भयावह दौर की स्थिति को व्यक्त करने में शब्द भले ही कमजोर पड़ जाएं परन्तु वे अपनी सृजनात्मकता और औचित्य में कमजोर नहीं पड़ते। ऐसी ही व्यापक और आशाओं भरी दृष्टि श्याम विमल की कविताओं में दिखाई पड़ती है। जनता की सृजनधर्मी चेतना की निरंतरता में विश्वास करने के कारण ही यह कवि विवेक और दृष्टि समाज में व्याप्त शोषण विरोधी परिस्थितियों के खिलाफ बनते व्यापक जन के संघर्ष रूप को देख पाते है। अपनी जन दृष्टि के कारण ही वे लगातार संघर्ष करती जनता के चेहरे को बनता देख पाते हैं। उन्हें आशा है कि इस बार अगर इस चेहरे की पूरी तस्वीर बनी तो वह पिछली सब तस्वीरों से जानदार होगी :

                        एक चेहरा बन रहा है

                        चेहरा जो बन रहा है इसके / खुरदुरे माथे पर

                        भविष्य का दांव फिसलेगा नहीं

                        यह माथा किसी गलत प्रार्थना के लिए / झुकेगा नहीं

                        इसकी लकीरें सही विचारों को अंकित करेंगी

                        यह जो चेहरा बनेगा / जानदार होगा यह

                        आइने में नहीं / आमने-सामने देखेगा

कवि का यथास्थिति के खिलाफ, ठहराव के खिलाफ एक मात्र हथियार है, प्रेरणास्रोत है यह बनता चेहरा जो जनता की लगातार संगठित होती संघर्षशील चेतना का प्रतीक है। इसी से कविमन में आशा जनम लेती है। आशा है समाज एक ना एक दिन बदलेगा, वह अपने विद्रूपता पूर्ण मुखौटे को उतार फैंकेगा। जिस दिन ऐसा होगा, कवि भले ही न रहे मगर उसकी कविता होगी, उसके शब्द होंगे उसका रचना संसार होगा। इस संग्रह की आखिरी कवि इसी आशा की भाव भूमि है

फूल जरूर खिलेंगे/ मैं नहीं सूंघ पाऊंगा तो क्या

आप तो होंगे

रोटी जरूर पकेगी/ मैं नहीं खा पाऊंगा तो क्या

आप तो होंगे

देखना खुशियां जरूर लौटेंगी/ मैं नहीं होऊंगा तो क्या

आप तो होंगे

यहां आकर समय शब्द के औचित्य को जान लेगा। शब्द जो यथास्थिति के खिलाफ खड़े थे, खड़े हैं और खड़े रहेंगे। ठीक ऐसे ही जनता का बनता चेहरा पूंजीवादी भेडिये के पंजे तोड़ता था, तोड़ता है, तोड़ता रहेगा जब तक खुशियां लौट न आएं। विरोध है, निषेध है, निर्माण है इस चेहरे में। कवि भी अपने को इसी चेहरे का एक हिस्सा मानता है। यह मात्र शब्दाडंबर नहीं, शब्दाडंबर से मुक्ति और मुक्ति के लिए संघर्ष की कामना है। जो इस संग्रह में शुरू से लेकर आखिर तक उपस्थित है।

 

इस काव्य संग्रह की कविताओं की उमz सन साठ से अठानवे के लंबे दौर में समायी है। इस बीच शोषण का रूप और भी क्रूर हुआ है मगर उसके खिलाफ तनी हुई मुट~ठी भी मजबूत हुई है। इन कविताओं में कवि के संवेदनात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान का लगातार विकसित होता रचनात्मक जगत उसकी भावभूमि और भाषा भी है। कविताओं की भाव भूमि के अनेकों भिन्न स्वरूप हैं। औरतें और बच्चों पर लिखी उनकी कविताएं खासी प्रभावशाली है। यहां अनेक गीतनुमा और पदबंधी शैली में रचित कविताएं है। श्याम विमल में नए-नए शब्द गढ़ने, उनकी गहराई तक जाकर मार्मिकता तलाशने की जबरदस्त प्रतिभा है। हिंदी कविता की आधुनिक धारा को उनका यह अवदान महत्वपूर्ण है। उनमें पूंजीवादी के मायाजाली सौंदर्य बोध को तोड़ने और प्रतीकों, बिम्बों, भाव भूमियों की नवीन भूमि तलाशने की छटपटाहट है। कई जगहों पर बिम्बों और प्रतीकों के सफल और सुंदर प्रयोग हैं। कुछ कविताओं में रोमानीयन है किन्तु यह गहरा और जटिल है। कुछ कविताओं में कुछ आध्यात्मिक फुट भी है जो स्वाभाविक है किन्तु इनमें उलझाव और वायवीयता नहीं है। श्याम विमल की कविताओं में उत्तेजक और तीव्र विद्रोह की मुद्राएं नहीं हैं और न ही वहां ठहराव है। वहां जितनी निराशा है उससे कहीं ज्यादा सुंदर भविष्य की आशा है।

1999

 

तिनका-तिनका आग’: दलित मन की व्यापक संवेदनाएं

मुकेश मानस

 

हारते हैं वे

जो हारते हैं हिम्मत

 

एक लम्बी दुष्चक्रीय और यंत्राणापूर्ण ज़द्दोजहद को झेलने और उससे लगातार उबरने की जिजीविषा ही शायद वो चीज है जिसने सदियों से अभिशप्त दलितों को इस मुकाम तक पहुंचाया कि वे अपनी उपेक्षा, यंत्रणा और बहुआयामी शोषण के बुनियादी रहस्यों को समझ पाए। उनमें अपने शोषण के खिलाफ संगठित विरोध का साहस पैदा हुआ। पिछली सदी के आखिरी दो-तीन दशकों में उठी दलित चेतना ने दलित समाज में वो कूबत पैदा की कि समूची भारतीय संस्था के द्वारा किए जाने वाले अपने शोषण के विरोध में साहस की भावना उनका बुनियादी हथियार बन गई। विरोध के साहस की इस भावना को दलित समाज ने कई रूपों में अभिव्यक्त किया है। दलित साहित्य का ज्वार इन रूपों में एक महत्वपूर्ण रूप है। मगर विरोध की अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य नहीं है। परंपरागत जीवन मूल्यों और व्यवहार के समांतर व्यापक जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य का मूलाधार है। जयप्रकाश कर्दम का समूचा जीवनानुभव और सृजनात्मक लेखन इस मायने में काफी महत्वपूर्ण है।

 

हिन्दी पटटी में दलित साहित्य को सामने लाने, उसको स्थापित करने और परंपरागत हिन्दी साहित्य के समांतर दलित साहित्य के बुनियादी सरोकारों को उजागर करने में जिन दलित साहित्यकारों का महत्वपूर्ण योगदान है उन दलित साहित्यकारों में डा. जयप्रकाश कर्दम एक जाना-पहचाना नाम है। वह दलित साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं और अपने व्यक्तित्व, सृजनकर्म के बूते अपने समकालीनों में काफी चर्चित और समादृत हैं। डा. जय प्रकाश कर्दम एक बहुआयामी प्रतिभावाले साहित्यकार और चिंतक हैं। कविता, कहानी और उपन्यास लिखने के अलावा दलित समाज की वस्तुगत सच्चाइयों को सामने लानेवाली अनेक निबंध व शोध पुस्तकों की रचना व संपादन भी उन्होंने किया है। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान है- उनके संपादन में प्रतिवर्ष निकलने वाली दलित साहित्य वार्षिकी। उनके अथक प्रयासों के चलते दलित साहित्य वार्षिकी, दलित साहित्य में दलित सोच और सृजन का एक बुनियादी आधार बन गई है।

 

तिनका-तिनका आगडा. जय प्रकाश कर्दम का दूसरा कविता संग्रह है। काफी लंबे अंतराल के बाद उनका यह दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। अपने पहले कविता संग्रह गूंगा नहीं था मैंके साथ उन्होंने दलित कविता के क्षेत्रि में पदार्पण किया था। तिनका-तिनका आगकी कविताओं को पढ़ने के बाद पता चलता है कि इस दौरान इस कवि के काव्यगत रचनात्मक विवेक और सृजन कौशल क्षमता ने एक लंबा सफर तय किया है। पहले कविता संग्रह के बाद से न केवल उसकी सृजनात्मक क्षमता में परिपक्वता आई है बल्कि उसकी सोच का फलक भी और व्यापक व विस्तृत हुआ है। पहले कविता संग्रह में जहां कवि में हम शुरुआती द्वन्द्वों और आक्रोश को स्पष्ट स्वर न दे पाने की उसकी विवशता को महसूस करते हैं वहीं दूसरे कविता संग्रह में हम देखते हैं कि कवि का स्वर पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट, गंभीर और सृजनात्मक हुआ है। यह एक स्वाभाविक-सी बात है कि कवि जिस समाज से, समाज की जिन वस्तुगत सच्चाइयों से रूबरू होकर सामने आ रहा है उसकी कविता में उन्हीं वस्तुगत सच्चाइयों की अभिव्यक्ति देखने को मिलेगी। विकास की अनेकानेक ऊंचाइयों को छूने वाले समाज में दलित व्यक्ति और उसका समाज अभी विभिन्न मामलों में अपनी तल्ख सच्चाइयों के साथ निचले पायदान पर खड़ा है जहां उसका लहू सबसे सस्ता है।

ठाकुर के खेत से

सेठ की तिजोरी तक

मेरा ही लहू बहता है

वही सबसे सस्ता है।

भारतीय सामाजिक-आर्थिक संस्था में दलित व्यक्ति आज भी विभिन्न रूपों में सबसे ज्यादा शोषित, प्रताड़ित और अपमानित हैं। आधुनिकता के छलावेपूर्ण आइने में वह अभी भी सबसे ज्यादा उपेक्षित और प्रताड़ित महसूस करता है।

सूरज की गर्मी से

नहीं झुलसता मेरा शरीर

उसे झुलसाता हैं

यंत्रणाओं का सूरज

विकास, समानता और स्वतंत्राता का दंभ भरते भारत के बीच वह अभी भी उपेक्षित भारत है और यह उपेक्षा उसके चारों ओर अनेकानेक रूपों में साकार है। उसको और उसके शब्दों को गरीबी, जहालत अवमानना, पिछड़ापन जैसे गिद्धों ने घेर रखा है। ये गि¼’ भारतीय संस्था के विभिन्न शोषणकारी रूपों का सबसे स्पष्ट रूपक हैं जो कर्दम की कविता में अनेकानेक अनुभूतियों, अनुभवों में प्रतिफलित और अभिव्यक्त होता है।

सावधान मेरे शब्दो

तुम्हारे चारों ओर गिद्धों का घेरा है

जो तुम्हें नोंचने को आतुर हैं।

समाज में प्रगतिवादी और आधुनिक मूल्यों के पैरोकार समूहों का हाल ये है कि मानवाधिकारों की जी-जान से लड़ाई लड़ने वाले इन योद्धाओं को उसके और उसके समाज के मानवीय अधिकारों के शोषण की पुकार सुनाई नहीं देती।

करोड़ों दलित वंचित हैं

सदियों से

बहुत सारे मानवाधिकारों से

दलित समाज में व्याप्त भूख, अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के अलावा जाति का दंश उसकी समूची प्रगति और विकास में बाधक है। तमाम संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भारतीय संस्था के सांस्कृतिक मूल्य और जीवन संस्कार दलित व्यक्ति के जाति आधारित शोषण को बरकरार रखे हुए हैं। विडम्बना ये है कि भारतीय चिंतन की गाड़ी जाति आधारित शोषण के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक रूप को समझने और उसे दुरूस्त करने के लिए किसी भी स्टेशन पर रुकने को तैयार नहीं है।

सदियों से वे हमसे

गाली की भाषा में बोलते आ रहे हैं

यह उनकी संस्कृति है।

हालत ये हो गई है कि दलित व्यक्ति भूख से ज्यादा जातिगत अपमान, उपेक्षा और सांस्कृतिक शोषण से अधिक आहत है। वह अभी भी यही महसूस करता है कि भूख के गणित से ज्यादा जाति का व्याकरण ज्यादा दुरूह और गंभीर है।

कितना विकट होता है

भूख के गणित से

जाति का व्याकरण

जाति के व्याकरण को समझने और उसे सुलझाने की राह में कवि को एक ही दृष्टि दिखाई पड़ती हैं और वह है मानवीय सद~भाव, प्रेम और समानता के व्यवहार की दृष्टि। वह समूचे समाज को प्रेम का रास्ता दिखाना और बताना चाहता है। यही उसकी अपनी और समूचे समाज की मुक्ति का रास्ता हैं। मगर इस प्रेम के रास्ते में एकमात्र बाधा-जाति का व्याकरण ही है।

प्रेम की कविता का

बेतुका बंद

मनुष्यता की कमीज पर

जाति का पैबन्द

प्रेम कविता लिखने के रास्ते में परम्परागत कलम और उससे जुड़ी सोच भी रोड़ा बनकर खड़ी हैं। कलम के परम्परागत रूप पर आख्यान लिखते समय कवि कलम के जरिए होनेवाले और हो रहे दलित शोषण के इतिहास और वर्तमान पर निगाह डालता है। यहीं से उसके संघर्ष और सृजनात्मक संघर्ष का रूप सामने आता है। और यह रूप उनकी लगभग सभी कविताओं में व्यापक परिवर्तन की इच्छा और संघर्ष को रूपायित करता है। कवि चाहता है कि

टूटे जड़ता, सन्नाटा और

हलचल हो उनमें भी

जो रहते आए हैं चुप

परिवर्तन की इच्छा को साकार करने के लिए कवि न सिर्फ अपने भीतर बल्कि अपने समाज की जड़ता में हलचल की कामना करता है। वह अपने ओर अपने समाज के भीतर के साहस के अभिव्यक्त होने का आहवान करता है।

मैं दरिया हूं।

राह बनाना आता है मुझे।

इस जड़ता को तोड़ने के लिए वह कोई भी खतरा उठाने को तैयार है। उसकी इसी निर्भीकता का पर्याय है-ब्राहमणवादी मानसिकता और संस्कृति के गढ़ बनारस में जाने की उसकी इच्छा को अभिव्यक्ति देती मैं बनारस जाऊंगाकविता। बकौल मोहनदास नैमिशराय मैं बनारस जाऊंगाकविता में लगता है जैसे दलितों की पीड़ा उभर आई है। जहां आर्यों ने शंबूक और एकलव्य को छला वहीं बाबू जगजीवन राम भी हिंदुओं की जातिवादी राजनीति से बच नहीं पाए।

 

साम्प्रदायिकता की तेजी से बढ़ती विचारधारा और साम्प्रदायिक हिंसा भारतीय संस्था के लिए ही खतरा नहीं है बल्कि दलित समाज इस समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित है। साम्प्रदायिकता भारतीय समाज की ही नहीं समूचे दलित समाज के विकास का भी रोड़ा है। इस मायने में साम्प्रदायिकता का सवाल दलित चिंतन और सृजन का प्रमुख सवाल बन गया है। दलितों ने जातीय दंश से मुक्ति की राह में दूसरे धर्मों में जाने को बड़े पैमाने पर क्रियान्वित किया है। उसे जब जिस धर्म में अपनी मुक्ति का रास्ता दिखा, वह उसमें गया।बौद्ध धर्म, इसाई धर्म और इस्लाम इनमें मुख्य हैं। मगर विडम्बना ये है कि वहां भी वह दलित ही बना रहा। बौद्ध धर्म पर हिंदूवादी शक्तियों की हिंसा इतिहास में उजागर हो चुकी है। ईसाई और इस्लाम के मानने वालों पर पिछले कुछ दशकों में साम्प्रदायिक हिंसा खुलकर सामने आई है। खास तौर पर झज्जर में मारे गए पांच दलितों के मामले से यह बात और खुलकर सामने आई है जिसमें पांच दलितों को मुसलमान कहकर मार दिया गया। यह डा. कर्दम की व्यापक सोच का ही नतीजा है कि वह साम्प्रदायिकता की समस्या को जाति की समस्या से जोड़कर देखते हैं।

गोधरा से झज्जर तक

देश सांप्रदायिकता की आग में

जल रहा है

जातिवाद की भटटी में

भुन रहा है।

साम्प्रदायिकता की समस्या के साथ ही कवि आधी दुनिया के शोषण और उसकी पीड़ा को व्यापक संदभों में समझता और अभिव्यक्त करता है। वह दलितों में भी दलित भारतीय स्त्री की पीड़ा को स्वर देता है जो भारतीय समाज में आज भी विभिन्न रूपों में शोषित और प्रताड़ित होती है। आधी दुनिया की आवाजइसी अभिव्यक्ति की एक सशक्त रचना है।

 

डा. जय प्रकाश कर्दम के इस नए कविता संग्रह तिनका-तिनका आगकी कविताएं सदियों से चले आ रहे अन्याय के प्रति दलितों के मन में सुलगती आग और परिवर्तन की गूंज की सशक्त अभिव्यक्तियां हैं। ये कविताएं दलित समाज की पीड़ाओं और उससे जुड़ी समाज की व्यापक समस्याओं की मुखर अनुभूतियां हैं। ये कविताएं, बकौल रमणिका गुप्ता, स्पष्ट और सरल भाषा में बतियाती हैं, संवाद करती हैं और जरूरत पड़ने पर तर्क करने के लिए उठ खड़ी होती हैं। ये छदम वक्तव्यों और कुतर्कों को काटती हैं और मांग करती हैं अपनी अभिव्यक्ति के लिए उसी भाषा की जो जन से जुड़ी है।

मेरे दोस्त

मेरे लिए उस भाषा में

मंगल कामना मत करो

जो भाषा

कभी मेरी नहीं रही

जिसके लिए रहा मैं सदैव

अंत्यज, अस्पृश्य

 

कुल मिलाकर ये कविताएं दलित आंदोलन को एक दिशा देती हैं और भविष्य में उठने वाले बवंडर का अहसास कराती हैं। ये कविताएं उसके गहन जीवनानुभवों और व्यापक दृष्टिकोण की पर्याय हैं। ये अलग बात है कि कवि में कुछेक बातों को लेकर जो द्वन्द्व अभी बना हुआ है उसकी भी पहचान कराती हैं। मसलन कवि एक तरपफ अपनी मुक्ति के लिए अप्प दीपो भवका संदेश देता है, परिवर्तन के लिए संघर्ष का आह~वान करता है और ईश्वर तक के रूप को नकारते हुए अम्बेडकर को भगवान बनाने वालों की आलोचना करता है वहीं गौतम का आहवान भी एक बार फिर आओकविता में मानवेतर शक्ति के आहवान के रूप में करता है।

 

अंत में हम कवि जय प्रकाश कर्दम को उनके दूसरे कविता संग्रह के लिए बधाई देते हैं क्योंकि इस संग्रह में दलित चेतना और सृजन के ज्यादा परिपक्व रूप को अभिव्यक्ति मिली है। इस संग्रह की अधिकांश कविताओं की दिशा मनोरंजन करने की नहीं है बल्कि संवेदना जगाने और मानसिकता बदलने की है।

2004

कापीराइट सुरक्षित

 

 

दलित राजनीति और संगठन का इतिहास बताती एक जरूरी किताब

मुकेश मानस

  इस किताब का शीर्षक है-दलित राजनीति और संगठन। सत्तर पेजों वाली इस छोटी सी किताब को भगवान दास जी ने सन 2002 में साधारण लोगों ख़ासकर आज की पीढ़ी के दलित नौजवानों के लिये अपने बेटे राहुल दास के आग्रह पर लिखा था। ये किताब देखने में छोटी जरूर है मगर अपने आप में एक मुकम्मिल किताब है। आज की दलित राजनीति की दशा और दिशा को समझने के लिये यह एक बेहद जरूरी किताब है।

 

-         डा अम्बेडकर ने दलितों में जिस सांगठनिक और राजनीतिक चेतना का बीज डाला था वह आज काफ़ी विकसित हो गया है। आज सैकड़ों  दलित संगठन और राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं। उनमें विचारधारा, रणनीति और लक्ष्य संबंधी बहुत सी भिन्नतायें हैं। दलित समाज के विकास को लेकर सभी के अपने-अपने दावे हैं। आज की दलित राजनीति की वस्तु स्थिति क्या है? यह जानने के लिये जरूरी है कि इन राजनीतिक पार्टियों की वैचारिकी और व्यवहार की मजबूतियों और सीमाओं का एक मूल्यांकन किया जाये ताकि भविष्य की दलित राजनीति की दिशा का पता लगाया जा सके। कुछ हद तक यह किताब इसी उद्देश्य को पूरा करती है।

 

-         इस किताब में तेरह अध्याय हैं। इस किताब को तीन भागों में बांट कर देखा जा सकता है। पहले भाग में बाबा साहेब द्वारा बनाये गये संगठ्नों और राजनीतिक पार्टियों संक्षिप्त परिचय दिया गया है। दूसरे भाग में आज की कई दलित राजनीतिक पार्टियों का मूल्यांकन किया गया है। तीसरे भाग में उन समस्याओं का जिक्र किया गया है जिनसे आज दलित समाज जूझ रहा है और जिनको दलित विकास के अजेंडे में प्राथमिकता दिये जाने की जरूरत है।

 

-         किताब के पहले भाग में (अध्याय एक से तीन तक)  लेखक ने बाबा साहेब के राजनीतिक आन्दोलन की दिशा का विश्लेषण करने क प्रयास किया है। यह सही है कि बाबा साहेब ने पहले पहल दलित समाज  में राजनितिक चेतना और सघर्ष को संगठित रूप में क्रियान्वित किया जिसके पीछे जोतिबा फुले के सामाजिक आंदोलन से पैदा हुई उष्मा थी। इस बात को ख़ुद बाबा साहेब ने भी स्वीकार किया है। मगर लेखक ने कहीं जोतिबा फ़ुले का ज़िक्र तक नहीं किया हैं। जोतीबा फ़ुले को भुलाना अम्बेड्करवाद की पूरी परंपरा को नकारने जैसा है। लेखक ने जोतीबा फ़ुले को छोड़कर राजाह और श्रीनिवास जैसै दक्षिण के नेताओं का ज़िक्र किया है जो बाबा साहेब के समांतर या उनसे पहले दलितों के सवाल को उठा रहे थे। वे दलित समाज के लिये अलग अधिकार देने और नौकरियों में दलितों को हिस्सा देने की मांग उठा रहे थे। उनका कहना था कि जब तक अछूतों पर किये गये सामाजिक अन्याय को रोका नहीं जा सकता तब तक भारत को स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिये। बाद में भारत की आज़ादी को दलित समाज की अधूरी आज़ादी के रूप में बाबा साहेब ने भी उठाया।

 

-          दलित समाज को आज़ाद भारत में पूरी आज़ादी मिले इसके लिये बाबा साहेब ने बहुत पहले से अपने राजनीतिक प्रयास आरंभ कर दिये थे। 1936 में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनाई। यह पार्टी भारत के इतिहास में दलित समाज और कामगार वर्ग की पहली और सामूहिक राजनीतिक अभिव्यक्ति थी। इस पार्टी के नाम में लगा लेबर शब्द और इस पार्टी का अजेंडा बताता है कि यह केवल दलितों की पार्टी नहीं थी। इसके अजेंडे पर दलित समाज ही नही, श्रमिक वर्ग भी था। उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी की भी स्थापना हो चुकी थी मगर उसके अजेंडे पर दलित समाज और उसकी समस्यायें नहीं थीं।

 

-         बाबा साहेब की शुरू से ही यह समझ थी कि तत्कालीन भारतीय समाज में दलित समाज ही वास्तविक कामगार तबका है और उसकी प्रमुख समस्या जाति आधारित सामाजिक और आर्थिक शोषण की समस्या है। वह मानते थे कि जब तक जाति का खात्मा नहीं हो जाता तब तक समाजवादी क्रांति के उभरने की कोई संभावना नहीं है। इसलिये वह जातिविहीन समाज की स्थापना को अपने राजनीतिक आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य और समाजवाद की स्थापना की दिशा में पहला कदम मानते थे। भारत में कामगार वर्ग के उभार के बारे में उनकी यह सोच थी कि भारत में अभी ठीक से औद्योगिक विकास शुरू नहीं हुआ है। कामगार वर्ग धीरे-धीरे अस्तित्व में आयेगा और अपनी जगह लेगा। इसलिये  भारतीय समाज में शोषण विरोधी राजनीतिक आंदोलन का नेतृत्त्व दलितों को ही करना है। उनका मानना था कि दलित समाज और श्रमिक वर्ग ही भारतीय समाज के दो ऐसे प्रगतिशील वर्ग हैं जो समाज परिवर्तन के काम को क्रियान्वित करेंगे। इसलिये दोंनो को साथ लेकर चलना जरूरी है। मगर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का क्षेत्र बम्बई तक ही सीमित था। कुछ समय बाद बाबा साहेब ने एक अखिल भारतीय स्तर की पार्टी बनाने के लिहाज़ से अखिल भारतीय शैड्यूल्ड कास्ट फ़ैडरेशन की स्थापना की। अखिल भारतीय शैड्यूल्ड कास्ट फ़ैडरेशन में सभी अनुसूचित जातियों के नेता शामिल हुए। कई राज्यों में फ़ेडरेशन बहुत मजबूत थी।

 

-         बाबा साहेब ने अपने जीवनकाल में बहुत से संगठ्न और राजनीतिक पार्टियां बनाईं। रिपब्लिकन पार्टी आफ़ इंडिया की स्थापना में दलितों के समुचित विकास के संबंध में उनके समस्त चिंतन और दूरदर्शिता का निचोड़ देखा जा सकता हैं। इस पार्टी को उन्होंने 1956 में गठित किया। इस पार्टी का अजेंडा राजकीय समाजवाद का अजेंडा है। बाबा साहेब का राजकीय समाजवाद समस्त कृषि भूमि, उद्योगों, बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने, सभी नागरिकों कों शिक्षा और रोज़गार की गारंटी देने, महिलाओं, अल्पसंख्यकों और वंचित तबकों के समुचित और एकसमान विकास का कार्यक्रम है। बाबा साहेब के लिये राजकीय समाजवाद का मतलब था-समस्त नागरिकों के लिये समता, समानता और बंधुत्व को कायम करना। इस पार्टी का लक्ष्य  संविधान की विधि के ज़रिये राजकीय समाजवाद की स्थापना करना था। उनके मुताबिक राजकीय समाजवाद ही उस समय के भारत की जरूरत थी। राजकीय समाजवाद ही भारत के लिये सबसे बड़ी क्रांति और विकास की सबसे उचित व्यवस्था थी जिसे प्राप्त करने के लिये किसी और क्रांति की जरूरत नहीं थी। इस पार्टी का भी मुख्य लक्ष्य दलित समाज और श्रमिक वर्ग थे मगर नेतृत्व दलितों के ही हाथ में था। बाबा साहेब की मृत्यु के बाद यह पार्टी कई हिस्सों में बँट गई। शुरु में इनमें से कुछ ने बाबा साहेब के प्रोग्राम को अपने अजेंडे पर रखा मगर बाद में ये सभी पार्टियां सत्ता की राजनीति में सीमित हो कर रह गयीं।रिपब्लिकन पार्टी के अनुयायियों और बाबा साहेब के मिशन से जुड़े लोगों ने कई बार एक संयुक्त रिपब्लिकन पार्टी बनाने का प्रयास किया मगर यह सभव नहीं हो पाया। इस पार्टी के कई धड़े आज भी भारत के राजनीतिक पटल पर छुट-पुट तरीके से शिरकत कर रहे हैं।   

 

-         किताब के दूसरे भाग में (अध्याय चार से सात तक) लेखक ने बाद के दलित संगठनों और पार्टियों का परिचय और मूल्यांकन पेश किया है। मगर वह इस संधर्भ में 1970 में सामने आई दलित संघर्ष की सबसे तीखी अभिव्यक्ति दलित पैंथर को भूल गये। दलित पैंथर के लड़ाकू और चुनौतीपूर्ण संघर्ष ने दलित समाज में एक ऐसा आलोड़न पैदा जिसने देश में स्थापित व्यवस्था की बुनियाद को हिला कर रख दिया। दलित पैंथर ने दलित आंदोलन को संघर्ष का एक नया मुहावरा दिया। देश में अम्बेड्करवाद और मार्क्सवाद जैसी दोंनो क्रांतिकारी विचारधाराओं को पहली बार आत्मसात करने का श्रेय पैंथरों को जाता है। जातिवाद से जुड़ी समस्यायों के निदान के लिये उन्होंने अम्बेडकरवाद का सहारा लिया और अन्य समस्यायों के निदान के संधर्भ में मार्क्सवाद को अपनाया। इस आंदोलन ने पहली बार समाज परिवर्तकारी शक्तियों के आगे इस वैचारिक एकीकरण की अनिवार्य जरूरत को रेखांकित किया। मगर यह वैचारिक एकीकरण ऐसे लोगों को स्वीकार्य नहीं हुआ जो अम्बेड्कर और मार्क्स के नाम पर चल रहीं  अपनी दुकानें खोने को तैयार नहीं थे। दूसरे कुछ अपनी अन्तर्निहित वैचारिक और व्यवहारिक उलझनों के चलते दलित पैंथर भारतीय इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ कर धीरे-धीरे द्र्श्य-पटल से गायब हो गया।   

 

-         आज जितनी भी दलित राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं। उनमें बहुजन समाज पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है। इसके संस्थापक कांशीराम ने दलित समाज को एक नई पहचान देते हुए उसे बहुजन समाज कहा। इस नए शब्द में तमाम अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों, पिछ्ड़ा वर्ग, अन्य पिछ्ड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यकों को एक एकीकृत समाज यानी बहुजन समाज के रूप में रखने का प्रयास किया गया। मगर व्यवहार में यह पार्टी केवल अनुसूचित जातियों का ही प्रतिनिधित्व करती रही है। कांशीराम को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी और दलित पैंथर के बाद म्रृतप्राय दलित राजनीति में प्रेरक शक्ति का संचार किया। उन्होंने राजनीतिक चेतना को सीमित अर्थों में सही मगर दलित समाज के जन-जन तक पहुँचाया और उसे राजनीतिक संघर्ष में शामिल करने की कोशिश की। मगर अपनी वैचारिक सीमाओं के चलते वह इस जन भागीदारी को दलित जनता की ताकत नहीं बना सके। उन्होंने दलित सशक्तिकरण की बात की मगर इस सशक्तिकरण को क्रियान्वित करने की कोई रणनीति सिवाय सत्ता प्राप्त करने के उनके पास नहीं थी। उन्होंने दलितों की असली बीमारी के प्रश्न को कभी नहीं उठाया। सत्ता पाने की रणनीति को पूरा करने के चक्कर में वह तमाम अम्बेडकरवादी सैद्धांतिकी को ताक पर धरते चले आये। इस काम में मायावती उनसे भी आगे निकल गईं हैं।

 

-         यह बहुजन समाज पार्टी मुख्य रूप से सत्ता प्राप्ति में ही दलित और शोषित समाज की मुक्ति देखती है। बाबा साहेब ने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोंनो को दलित समाज के दुश्मन के तौर पर रेखांकित किया था। मगर यह पार्टी दलित समाज के स्वाभाविक मित्र कम्युनिस्टों से दूरी बनाकर रखती आई है और सत्ता पाने की होड़ में यह किसी भी ऐसे दल से हाथ मिलाने को तैयार है जो उसे सत्ता में हिस्सेदारी का वायदा करता हो चाहे वह दल दलित विरोधी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाला दल ही क्यों ना हो। चूंकि इस पार्टी का लक्ष्य केवल सत्ता पाना है इसलिये इसने अपनी नई रणनीति सामाजिक अभियांत्रिकी के तहत बहुजन समाज की अपनी पुरानी अवधारणा में विस्तार करते हुए उसमें उच्च जातियों के लोगों को भी शामिल करके उन्हें अपना उम्मीदवार बनाना शुरू कर दिया है। अब यह सिर्फ़ कहने के लिये दलित समाज की पार्टी है। लेखक का मानना है कि भारतीय सत्ता में अपनी पूरी दख़ल के बावजूद बहुजन समाज पार्टी दलितों के वास्तविक मुद्दों को उठा पाने में नाकामयाब साबित हो रही है। यह लगातार उस कार्यक्रम से पीछे हटती आई है जो बाबा साहेब ने समस्त दलित समाज और इस देश के समुचित विकास के लिये प्रस्तुत किया था।

 

-         बसपा के बाद रामविलास पासवान के नेतृत्व में बिहार में उभरी लोक जनशक्ति पार्टी दलितों और अल्पसंख्यकों के नाम सत्ता की दौड़ में शामिल होने वाली नई पार्टी है। इस पार्टी की आधारभूमि बिहार ही है मगर यह एक अखिल भारतीय पार्टी बनने के लिये प्रयासरत है। लोजपा के साथ-साथ और भी कई दलित पार्टियां जैसे बाल कृष्ण सेवक की युनाइटेड सिटीजन, संगीता राव की पार्टी और उदित राज की जस्टिस पार्टी आदि के अलावा दक्षिण की कई पार्टियां भी मैदान में हैं। लेखक ने इसी भाग में संक्षेप में ही सही मगर आज की वामपंथी पार्टियों का भी विश्लेषण किया है और यह राय रखी है कि कहीं ना कहीं ये पार्टियां भी दलित अजेंडे को पूरी तरह अपनाने से आज भी कतरा रही हैं।

 

-         किताब के तीसरे भाग में (अध्याय आठ से ग्यारह तक)  लेखक ने उन समस्याओं को उठाया है जिनसे दलित समाज आज भी जूझ रहा है। ये समस्यायें हैं-जातिवाद, सफ़ाई कर्मचारियों की समस्या, सेना में दलितों की घटती भागीदारी और अल्पसंख्यकों की समस्या। मैं इस सूची में बेरोज़गारी, अशिक्षा, दलित महिलाओं की आर्थिक बराबरी और सम्मान की समस्या को भी जोड़ना चाहता हूं। कहने की ज़रूरत नहीं कि आज की तमाम दलित पार्टियों के केन्द्र में ये समस्यायें नहीं हैं। अगर हैं भी तो ये पार्टियां इनको बहुत ही ग़ैर मामूली ढंग से  उठा रहीं हैं। जातिवाद का खात्मा अब किसी भी दलित पार्टी की प्राथमिकता में नहीं है। सफ़ाई कर्मचारियों की एक बहुत बड़ी आबादी को सफ़ाई के पेशे से मुक्त कराने का कोई प्रोग्राम इनके पास नहीं है। भारतीय सेना में दलितों की भागीदारी लगातार कम हो रही है। इस दिशा में ये पार्टियां कोई पहलकदमी नहीं कर पा रही हैं। अल्पसंख्यकों की समस्या ख़ासकर दलित अल्पसंख्यकों की समस्या की तरफ़ ये पार्टियां पूरी तरह से ध्यान नहीं दे रही हैं। दलितों में बेरोज़गारी और अशिक्षा को कम करने और दलित महिलाओं की आर्थिक बराबरी और सम्मान सुनिश्चित करने के लिये ये कोई रचनात्मक कदम नहीं उठा पा रही हैं। अंत में लेखक आह्वान करता है कि एक संयुक्त रिपब्लिकन पार्टी आफ़ ईंडिया का निर्माण ही दलितों के समुचित विकास के लक्ष्य को पूरा कर सकती है। इस पार्टी के सब गुटों को संगठित करना मुश्किल जरूर है पर असंभव नही।

 

-         साधारण दलित जनता और दलित नौजवानों के लिये सरल ढ़ंग से लिखी गई इस छोटी सी किताब में विस्तार की ज्यादा गुंजाईश नही थी फ़िर भी बहुत सी जरूरी बातें छूट गई हैं। मसलन इस पूरी किताब में लेखक ने अम्बेडकरवाद को उसके समग्र रूप में कहीं व्याख्यायित नहीं किया है जबकि इस किताब की आधारभूमि वही है। अम्बेडकरवाद की सैद्धांतिकी की व्याख्या के अभाव में रिपब्लिकन पार्टी के बाद की सभी दलित पार्टियों का मूल्यांकन अधूरा सा और चलताऊ लगता है। दूसरे इसमें यह जरूर बताया जाना चाहिये था कि आज दलित समाज कहाँ खड़ा है? उसकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वस्तु-स्थिति क्या है? और वर्तमान हालात में उसका अजेंडा क्या है? चूंकि यह किताब आज की पीढ़ी के दलित नौजवान को मुखातिब है इसलिये इस किताब में इस बारे में यह बात जरूर की जानी चाहिये थी कि आज की पीढ़ी के दलित नौजवान की समस्यायें क्या है और उसके लिये इनसे मुक्ति का क्या रास्ता है? और पूरे दलित समाज की मुक्ति में उसकी भूमिका क्या है?  

 

किताब का नाम : दलित राजनीति और संगठन,  

लेखक : भगवान दास  

प्रकाशक : दलित वर्ल्ड लाईब्रेरी

कीमत : पचास रुपये

     

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