फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन
परमाणु बम परीक्षण से नहीं, विकास से मिलेगा सम्मान
समाजवाद मांगेंगे, पूंजीवाद नहीं
सांस्कृतिक कर्म को व्यापक धरातल पर परिभाषित करने की ओर
प्रेम मनुष्य को ज्यादा मानवीय और प्रगतिशील बनाता है
फासीवाद, सांप्रदायिकता और दलितजन
मुकेश मानस
हिन्दुस्तान के दलित समुदायों के लिए सांप्रदायिकता और फासीवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। कहना चाहिए कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हिन्दुस्तान का इतिहास इस बात का साक्षात~ प्रमाण है। मौजूदा हालात में तो इन दोनों को अलग करके देखा ही नहीं जा सकता है।
फिर भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो जानते-बूझते हुए इन दोनों को अलग-अलग खानों में रखकर देखते हैं। कुछ लोग अपनी सीमाओं के कारण ऐसा कर जाते हैं। विस्तृत अध्ययन, व्यावहारिक अनुभव की कमी, दलितों के संबंध में भारतीय इतिहास की आधी-अधूरी जानकारी और संकुचित नज़रिए के कारण ये लोग ऐसा करते हैं। कई बार इन चीजों पर चलताऊ ढंग से कुछ कहने या लिखने के कारण भी ऐसा हो जाता है। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि ऐसे लोगों में दलित राजनीतिज्ञ और विचारक भी बड़ी संख्या में शामिल हैं।
ऐसे लोगों और संगठनों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो समझ-बूझकर और बखूबी सोच-विचार कर ऐसा करते हैं। वे लोग इसके दूरगामी नतीजों के बारे में पूरी तरह से सचेत होते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? ये लोग अपने छोटे-बड़े स्वाथो± की ख+ातिर ऐसा करते हैं, उनके स्वार्थ उनकी जाति, धर्म और वर्गीय हितों से जुड़े हुए होते हैं। ये छोटे-बड़े स्वार्थ क्या हैं? वे लोग कौन हैं जो अपने स्वाथो± की खातिर ऐसा करते हैं? एक सचेत दलित विचारक के लिए इन चीजों की पहचान करना बेहद जरूरी है।
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हिन्दुस्तान के पूरे इतिहास पर अगर दलित परिप्रेक्ष्य में पुनर्विचार किया जाए तो पता चलता है कि सांप्रदायिकता और फासीवाद का तथाकथित हिंदूधर्म या आजकल के तथाकथित हिंदुत्व से बड़ा पुराना और गहरा नाता है। यहां यह बात भी साफ़ हो जानी चाहिए कि तथाकथित हिंदू धर्म और तथाकथित हिंदुत्व कोई दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। आज के संदर्भ में दोनों एक ही हैं। हिन्दू धर्म का विकसित रूप आजकल का तथाकथित हिन्दुत्व है जो पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक और हिंसक है। उसे लगातार राजसत्ता और उससे जुड़े धार्मिक संस्थानों का संरक्षण और समर्थन मिलता रहा है। आज भी यह बात उतनी ही सच है। इसलिए हिन्दुस्तान में सांप्रदायिकता और फासीवाद की समस्या को दलित समुदायों और राजसत्ता के पूरे इतिहास के संदर्भ में रखकर ही देखा जाना चाहिए।
हिन्दूधर्म को आदि धर्म बताया गया है। वैदिक धर्म को भी आदि धर्म बताया गया है। मगर वैदिक धर्म कोई धर्म नहीं है, वह एक प्रकार की प्राचीन सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था है। बौद्धधर्म, जैन धर्म, इस्लाम, सिख धर्म, इसाई धर्म और आर्य समाज का इतिहास हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म के बाद शुरू होता है। हिन्दू धर्म के वर्चस्ववादी स्वरूप, उसकी जकड़बंदियों और उसमें लगातार पनपने वाली विकृतियों के चलते ही हिन्दुस्तान में दूसरे धर्मों का उदभव हुआ है और उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। यही कारण हैं जिनके चलते बहुसंख्यक दलित लोग हिन्दू धर्म से बाहर आते रहे हैं और दूसरे धर्मों में जाते रहे हैं।
हिन्दूधर्म शुरुआत से ही फासीवादी और सांप्रदायिक प्रकृति का रहा है। पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों से लेकर हिन्दू धर्म के समर्थन में आजकल भी लिखी जाने वाली सैकड़ों पुस्तकों में इस बात के सबूत भरे पड़े हैं। आधुनिक फासीवाद और सांप्रदायिक संगठनों के आधार ग्रंथ भी यही पुस्तकें हैं। पुराने ग्रंथों में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें कोई ईश्वरीय रूप, तथाकथित अवतार या वर्चस्व और सत्ता के प्रतीक इस तथाकथित हिन्दू धर्म की रक्षा के उददेश्य से ‘दूसरों’ की हत्याएं करते फिरते हैं। ये ‘दूसरे’ लोग कौन हैं? क्यों तथाकथित ईश्वरीय रूप इनकी हत्याएं करते दिखाई पड़ते हैं। दरअसल ये लोग आदि दलित हैं। ये लोग आरंभ से ही हिन्दू धर्म के प्रतिकूल आचरण करते रहे हैं? ये लोग शुरू से ही हिन्दू धर्म के लिए एक चुनौती की तरह रहे हैं। इन लोगों को इन धार्मिक पुस्तकों में राक्षस, चंडाल, दैत्य, असुर जैसे नामों से अपमानित किया गया है। उनको बुरी शक्तियों के स्वामी के रूप में चित्रिात किया गया है। यही लोग हैं जिन पर हिन्दू धर्म के तथाकथित संरक्षक और उद्धारक जानलेवा हमला करते रहे हैं। हिन्दू धर्म में इन लोगों पर किए जाने वाले हमलों या उनकी हत्याओं को धर्मरक्षा के नाम पर तर्कसंगत ठहराया जाता रहा है। धर्म की रक्षा के नाम पर तानाशाही और पफासीवादी आचरण का एक पूरा का पूरा इतिहास इन धर्मग्रंथों में देखने को मिलता है।
आगे चलकर हम देखते हैं कि इन धर्मग्रंथों में धर्मसंबंधी आचरण और अनुशासन की एक पूरी की पूरी व्यवस्था बनती दिखाई पड़ती है। राजसत्ता के पूरी तरह से अस्तित्व में आने के बाद राज्य के संचालकों पर इस व्यवस्था के कर्ता-धर्ता इन आचरण सिद्धांतों और अनुशासन संबंधी नियमों का पालन करवाने के लिए दवाब डालते थे। इनका पालन करने वालों को ‘धर्मप्रिय’ और इनके प्रतिकूल आचरण करने वालों को ‘विधर्मी’ कहा गया है। इनके विरुद्ध आचरण करने वाला चाहे राजा हो या आम आदमी, सबके साथ एक समान सलूक किया जाता है। राजा के राज्य को नेस्तनाबूद कर दिया जाता है। शंबूक, बाली, रावण, बलि आदि इस बात के ठोस उदाहरण हैं। इनके खिलाफ तथाकथित धर्मरक्षकों की ओर से दिए गए तर्क जग ज़ाहिर हैं।
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तथाकथित हिन्दूधर्म के तथाकथित धर्मग्रथों में जो व्यवस्था बनती दिखाई पड़ती है वह आगे चलकर ‘वर्णव्यवस्था’ का रूप अख्तियार कर लेती है। वर्णव्यवस्था को सत्ता संस्थानों से भी लगातार समर्थन मिलता रहा है। वर्णव्यवस्था में बहुसंख्यक दलित आबादी सबसे निचले पायदान पर आती है। वर्णव्यवस्था ने इस बहुसंख्यक आबादी को लगातार सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय अधिकारों से महरूम किया है। आज भी यह काम उसी तरह से शोषण के विभिन्न रूपों में जारी है। बहुसंख्यक दलित आबादी प्राचीनकाल से ही इस अमानवीय वर्णव्यवस्था के खिलापफ विæोह करती आई है। लेकिन इन विद्रोहों को लगातार तमाम अवैध और अनैतिक तरीके अपनाकर समय-समय पर दबाया-कुचला जाता रहा है। कभी यह काम हिंसक ढंग से किया गया तो कभी-कभी यह काम उदारवादी ढंग अपनाकर किया गया है। आधुनिक काल में गांधी ने यह काम उदारवादी ढंग से अंबेडकर पर सामाजिक दवाब डालकर पूरा किया। अंबेडकर ने दलितजन के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की मांग रखी थी। इससे हिन्दू धर्म का समूचा अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता था। आमरण अनशन करके गांधी ने अंबेडकर पर दवाब डाला कि वे अपनी मांग छोड़ दें। दरअसल, गांधी ने हिन्दू धर्म को बचाए रखने के लिए ही आमरण अनशन की धमकी दी थी। दलित अंबेडकर और उदार हिन्दू गांधी के बीच समझौता हुआ जिससे ‘पूना पेक्ट’ सामने आया। इससे आधुनिक युग के उभरते हुए सबसे बड़े दलित आंदोलन को कापफी नुकसान पहुंचा और उसकी गति लगभग थम-सी गई। इस समझौते ने बाद में ज्यादा हिंसक और आक्रामक हिन्दुत्व को जन्म दिया। इस पूरी यात्रा में हिन्दू धर्म के फासीवादी चरित्रा का लगातार विकास हुआ है।
हिन्दू धर्म के संचालकों और संरक्षकों ने हमेशा से दूसरे धर्मों को अपने ‘दुश्मन धर्मों’ के रूप में देखा है। उन्होंने उन्हें प्रतिद्वंद्वी या चुनौती के रूप में नहीं देखा है। इसलिए उन्होंने हमेशा दूसरे धर्मों के अनुयायियों के साथ ‘दुश्मनों’ जैसा बर्ताव किया है। बौद्धधर्म और उसके अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म के तथाकथित संरक्षकों का बर्ताव इस बात का सशक्त उदाहरण है। हिन्दू धर्म के लिए बौद्ध धर्म एक जबरदस्त चुनौती बनकर आया था। हिन्दुस्तान के पूरे इतिहास में यह धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसके खिलाफ हिन्दू धर्म के फासीवादी और सांप्रदायिक दोनों रूप एक साथ देखने को मिलते हैं। बौद्धधर्म ने दलितों को एक मानवीय और समतापूर्ण माहौल दिया। उन्होंने बड़ी तादाद में इसे अपनाना शुरू किया। इससे हिन्दू धर्म के संरक्षकों ने बौद्धधर्म के विचारों और व्यवहार पर एक साथ हमला किया और उसे लगभग नेस्तनाबूद कर दिया। तत्कालीन हिन्दू राजाओं और वर्चस्वकारी शक्तियों द्वारा बौद्धधर्म के विरुद्ध उनके फासीवादी और सांप्रदायिक चरित्र का एक रूप है तो बौद्ध धर्म के मानवतावादी विचारों और आचरण व्यवस्था का विकृत बनाकर उसे हिन्दू धर्म का अंग मानना और किसी ईश्वरीय अवतार को न मानने वाले गौतम बुद्ध को ‘ईश्वरीय अवतार’ बना डालना उसका दूसरा रूप है। मानवीय सम्मान प्रदान करने वाले बौद्ध धर्म को सत्ता के बल पर इतना विकृत कर दिया गया कि वह अब किसी के काम का नहीं रहा।
इस्लाम के साथ हिन्दू धर्म का बड़ा पुराना झगड़ा है। इस्लाम के मानवीय पहलुओं की सराहना करने और उन्हें खुले दिल से अपनाने की बजाए उसे अपना दुश्मन माना गया। शुरू से ही उसके खिलाफ ऐसा व्यवहार अपनाया गया। आज हिन्दुस्तान में इस्लाम के जितने अनुयायी हैं उनमें अधिकतर हिन्दुस्तान के अपने लोग हैं। कहना चाहिए कि ऐसे लोगों में दलितों की संख्या ही अधिक है। इस्लाम के अलावा जिन और धर्मों को दलितों ने अधिक तादाद में अपनाया, उनमें सिख धर्म और इसाई धर्म भी शामिल हैं। इन धर्मों के साथ भी हिन्दू धर्म के संरक्षकों और सत्ता संचालकों ने शुरुआत से ही दुश्मनों जैसा बर्ताव किया है। चाहे मंदिर का मसला हो, चाहे आरक्षण विरोध का, चाहे 1984 के सिख हत्याकांड का या चाहे गुजरात दंगों का सवाल हो, इन सबसे पता चलता है कि इनमें सत्ता की बराबर की हिस्सेदारी रही है। सत्ता चाहे कांग्रेस के हाथ में रही हो या भाजपा के हाथों में। दूसरे धर्मों के खिलाफ हुए दंगों और कत्लेआम में सत्ता का पूरा समर्थन दंगाइयों को मिला है। यह बात एकदम शीशे की तरह साप+फ है।
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हिन्दू धर्म के फासीवादी और सांप्रदायिक आचरण का संबंध दलितों के साथ दोतरफा हैµ जाति के स्तर पर और धर्म के स्तर पर। हिन्दू धर्म की जातिगत श्रेणीबद्धता के कारण दलितों का हर स्तर पर शोषण हुआ है। इस जातिगत अवमानना और शोषण के चलते ही दलित दूसरे धर्मों में गए हैं। इसमें उनकी मुक्ति की छटपटाहट और चाहत झलकती है। आज तथाकथित हिन्दुत्ववादी जब दूसरे धर्मों पर हमला करते हैं तो यह हमला परोक्ष रूप में दलितों पर ही होता है। हिन्दू धर्म के फासीवादी और अमानवीय ढांचे में दलितजन रह नहीं सकते। अगर वे इससे बाहर जाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें सताया जाता है। हिंसात्मक तरीके अपनाकर उनका दमन किया जाता है। अभी तक तथाकथित हिन्दुत्ववादी परोक्ष रूप में ही दलितों पर हमला करते रहे हैं। अब वे सीधे-सीधे दलितों पर हमला करने की स्थिति में आ रहे हैं। आरक्षण विरोधी अभियान छेड़कर और धर्मांतरण पर रोक लगाकर वे इसकी शुरुआत कर चुके हैं। इसलिए इस बारे में अब कोई खामख्याली नहीं है कि तथाकथित हिन्दू धर्म और हिन्दुत्ववाद अपने समग्र रूप में दलितों का विरोधी है।
हिन्दू धर्म और राजसत्ता के फासीवादी रूप की मार दलितों को ही ज्यादा झेलनी पड़ रही है या उन्हें ही ज्यादा झेलनी है। इसलिए इससे मुक्ति की राह भी उन्हीं को निकालनी है। सांप्रदायिकता और फासीवाद से मुक्ति की राह में धर्म परिवर्तन अब दलित आंदोलन को पीछे ले जाने वाला कदम है। आजकल सारे धर्म इतने विकृत हो चुके हैं कि उनसे दलितों का कोई भला नहीं होने वाला है। इसका यह मतलब नहीं है कि दलित लोग कोई नया धर्म बना लें। दलितों को अब इससे आगे का कदम सोचना पड़ेगा। यह कदम क्या होगा जो उन्हें उनकी संपूर्ण मुक्ति की ओर ले जा सके। इस सवाल का जवाब अभी भविष्य की गोद में ही है। मगर यह तय बात है कि सांप्रदायिकता और फासीवाद का मुंहतोड़ और मुकम्मिल जवाब दलितों के पास ही है। इस काम में उन्हें ही लगना है। इस काम को वे समाज में मौजूद प्रगतिशील और जनवादी ताकतों के साथ मिलकर ही पूरा कर पाएंगे। मगर फासीवाद और सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका उन्हें ही निभानी होगी।
फ़िलहाल, मार्च2003 में प्रकाशित
मुकेश मानस
तकरीबन चार महीने पहले की बात है। उस दिन मेरी पांच साल की बेटी स्कूल नहीं गई थी। छुटटी मारकर बैठ गई थी घर में। देर से उठी थी। सो देर से उठना उसका बहाना बन गया। मैंने भी स्कूल जाने के लिए उस पर ज्यादा जोर डालना उचित न समझा। मैं सुबह-सुबह पार्क घूमकर आया था। थोड़ी कसरत-वसरत करके मैं अपनी आदत के मुताबिक अखबार के इंतजार में बैठा था। तभी मेरी बेटी मेरे पास आई और बोली-“पापा जी। मै अपनी कैसेट चला लूं?” मैंने जैसे ही हां कहा उसने हाथों में पकड़ी बाल गीतों की अपनी मनपसंद कैसेट को टेपरिकार्डर में डाला और खट से उसे चला दिया। इसी बीच हाकर ने अखबार फैंका। मैं तो उसी का इंतजार कर रहा था। मैं गुड़मुड़ी करके बांधे गए अखबार की रबड़ निकालकर उसे सीधा कर ही रहा था कि तभी एक बालगीत रिकार्डर पर शुरू हुआ। उस बालगीत ने मुझे बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया।
रेल हमारी सुंदर-सुंदर
उसका इंजन बना रामधन
लड़के बन गए डिब्बे सात
देखो रेल चली गुजरात¸
इस बालगीत को सुनते-सुनते मैं अखबार सीधा कर चुका था। मेरी आंखें अखबार की मुख्य हेडलाईन पढ़ रही थी। एकाएक मुझे बालगीत सुनाई पड़ना बंद हो गया। मुझे लगा कि रेलगाड़ी सचमुच गुजरात पहुंच गई है। वो गुजरात के गोधरा स्टेशन पर जाकर रुक रही है। देखते ही देखते उसके एक डिब्बे से आग की लपटें उठने लगीं। डिब्बे से मानवीय चीख-पुकार सुनाई पड़ने लगी। अखबार के पृष्ठ पर हेडलाईन छपी थी। गुजरात में भड़की दंगों की आग। मुख्य हेडलाईन के नीचे छोटी हेडलाईनों में छपा था कि दंगों में कितने लोग मारे गए? मारे जाने वाले लोग कौन थे? हेडलाईन के नीचे एक जले हुए बच्चे की फोटो छपी थी। उस फोटो को देखकर मेरा दिल दहल उठा। सहसा मुझे लगा कि वह केवल एक बच्चे की फोटो नहीं थी बल्कि इस देश के करोड़ों करोड़ जले हुए बच्चों की फोटो थी। उनकी इच्छाओं, अभिलाषाओं, कामनाओं और सपनों की जली हुई फोटो है।
जले हुए बच्चे की फोटो। पूरी तरह से जल गए बच्चे की फोटो। फोटो में पूरा बच्चा नहीं था। बस उसका सिर था। उसकी आंखें थीं। उसकी नाक थी और होंठ थे। उसके सिर के चारों तरफ सफेद पटटी बंधी थी। उसका सिर बेहद जख्मी हुआ होगा शायद। उसकी आंखें की पुतलियां बाईं तरफ आंखों के कोनों में जाकर ठहर गई थीं। बेहद पीड़ा और भय को महसूस करते हुए बच्चा शायद किसी को देख रहा था? किसको देख रहा था? शायद अपने मां-बाप को। मगर उसकी आंखों में जो निर्जीवता, मुर्दनी और उदासी झलक रही थी वह उसकी लाचारगी का साफ बयान कर रही थी। अपने मां-बाप को न देख पाने की लाचारी। कौन जाने उसके मां-बाप बचे भी थे या नहीं? बच्चे की नाक के नीचे खून की झांइयां दिख रही थी जो शायद काफी साफ करने के बावजूद साफ नहीं की जा सकी थी। उसकी गोल-मटोल छोटी सी ठोड़ी तो पटटी में छुप सी रही थी। ठोड़ी के नीचे का हिस्सा भी काफी जख्मी हुआ होगा।
फटी-फटी आंखें से बाईं तरफ निहारता बच्चा शायद कुछ सोच रहा होगा। मगर क्या सोच रहा था वह बच्चा? यह कौन बता सकता है? दुनिया की कोई भी भाषा उस पीड़ा का बयान नहीं कर सकती थी जिसे वह बच्चा झेल रहा था। मैं उस पीड़ा की थाह ढूंढ़ने में बार-बार असफल साबित हो रहा था। यह उस बच्चे के मरने से एक घंटे पहले का फोटो था। फोटो खींचने के एक घंटे बाद वह बच्चा मर गया। इस देश की खोखली शांतिप्रियता, भाईचारे और धर्मनिरपेक्षता पर व्यंग्य करता हुआ वह बच्चा मर गया। गुजरात में पैफले दंगों का जघन्य, अमानवयी परिणाम थी उस नन्हे, मासूम बच्चे की मौत। लेकिन क्या उस मासूम बच्चे की असामाजिक और अमानवीय मौत के बाद भी दंगाईयों ने अपने वहशियाना कार्रवाहियों को रोका नहीं, गुजरात में सांप्रदायिक दंगों का तांडव आज तक चल रहा है। कोई मासूमियत, कोई निर्दोषता, कोई मानवीय संवेदना इस खून की होली को रोक नहीं पाई है।
गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस का एक डिब्बा जला दिया गया था। खबर के मुताबिक उसमें काफी कारसेवक यात्रा कर रहे थे। यह एक बेहद गंभीर घटना थी। लेकिन इसके बाद ज्यादा अमानवीय और नृशंस घटनाओं का तांता लग गया। गोधरा में जलाए गए डिब्बे में मारे गए लोगों की इस घटना ने एक बड़े जघन्य और सांप्रदायिक हत्याकांड का रूप ले लिया। कहा गया कि डिब्बे में जलाए गए लोग हिन्दू कारसेवक थे जो अयोध्या जा रहे थे। इस त्रासदी के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराया गया जो मुस्लिम संप्रदाय के थे। बस फिर क्या था? सारे नियम-कानून, कोर्ट-कचहरी, पुलिस-प्रशासन सबको ताक पर धर दिया गया। उत्तेजित हिन्दू फासीवादी भीड़ पूरे मुस्लिम संप्रदाय को दोषी मानकर मुसलमानों को चुन-चुनकर मौत के घाट उतारकर हिन्दू कारसेवकों की मौत का बदला लेने लगी। नृशंसता, अमानवीयता और क्रूरता का नंगानाच शुरू हो गयीं। औरतों का बलात्कार किया गया और बाद में उनको मौत की नींद सुला दिया गया। स्त्रियों के प्रति इतनी नृशंसता, इतनी क्रूरता शायद ही किसी अन्य देश में देखने को मिले। आखिर किस बल पर हिन्दूवादी कहते हैं कि हिन्दू धर्म में औरतों को देवियों का दर्ज़ा प्राप्त है या उन्हें समानता का हक हासिल है और एक इंसान होने का सम्मान। हिन्दूवादियों के इस नारे की कलई गुजरात में खुल चुकी है और पूरे देश के सामने उनका स्त्री विरोधी व्यवहार अब सफ हो चुका है।
गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस और प्रशासन का शर्मनाक रवैया भी सामने आया। अब इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि गुजरात की पुलिस और प्रशासन पूरी तरह से मुस्लिम विरोधी है। साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में मारे गए सेवक हिन्दू थे। गुजरात काफी संवेदनशील इलाका है। पूरा प्रशासन यह जानता था कि दंगे भड़क सकते हैं। फिर भी इस घटना के बाद न तो हाई अलर्ट किया गया और न कर्फ़्यू लागू किया गया। समय रहते उचित इंतजाम नहीं किए गए। बल्कि इसके बाद जब हिन्दू भीड़ मुसलमानों पर वहशी हमले करने लगी तब भी प्रशासन ने सख्त कदम नहीं उठाए। बाद की घटनाओं ने दंगाइयों के साथ पुलिस प्रशासन की मिलीभगत को जग जाहिर कर दिया। आम जन दबावों के बावजूद मुख्यमंत्री मोदी ने इस्तीफा नहीं दिया। राज्य के मुख्यमंत्री होने के कारण उनकी इस घटना के प्रति जो नैतिक जिम्मेदारी बनती है उसके आधार पर भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। वे बार-बार उचित कार्रवाई करने की बात दुहराते रहे और दंगे होते रहे। देश के किसी मुख्यमंत्री की इतनी बेहयाई पहली बार देखने को मिली है।
इस दंगे में कुछ मुस्लिम नेताओं की बेहयाई भी देखने को मिली। सरकार में शामिल मुस्लिम समुदाय के एक केन्द्रीय मंत्री दंगों में मारे गए मुसलमानों के लिए सरकार से एक लाख रुपए की बजाए दो लाख रुपए के मुआवज़े की सिफारिश तो करते रहे मगर एक बार भी उन्होंने इस हत्याकांड के लिए मोदी और उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया। एक मुसलमान होने के नाते उनकी अपनी इतनी नैतिक जिम्मेदारी तो बनती ही थी कि ऐसा मुस्लिम विरोधी पार्टी की सरकार में न रहें। पर उनकी इतनी हिम्मत भी नहीं पड़ी कि गुजरात जाकर कम से कम राहत शिवरों का जायजा ही ले लेते।
अल्पसंख्यक समर्थक पार्टियों और वामदलों ने गुजरात के दंगों में मुस्लिम संप्रदाय के कत्ले आम के खिलाफ मोर्चे निकाले और प्रदर्शन किए। मगर साबरमती एक्सप्रेस में हिन्दू कारसेवकों की मौत के खिलाफ कोई संवेदना प्रकट नहीं की। गोधरा कांड के फौरन बाद कोई मोर्चा जनशक्तियों ने मिलकर नहीं निकाला और न ही गोधरा हत्याकांड के दोषियों को सजा देने के नारे लगाए। क्यों? क्या जनपक्षधर शक्तियां केवल मुसलमानों के उफपर हुई हिंसा की ही विरोधी हैं। मानवों के पर हुई हिंसा के विरोध में नहीं चाहे वे मानव कारसेवक ही क्यों न हो? कारसेवकों पर की गई हिंसा क्या हिंसा नहीं थी। जनपक्षधर शक्तियां समूची मानवता की रखवाली है केवल अल्पसंख्यकों की नहीं।
गोधरा में फैली सांप्रदायिक हिंसा ने पिछले तमाम सांप्रदायिक दंगों के रिकार्ड तोड़ डाले है हर लिहाज से बहशीपन में, अमानवीयता में, क्रूरता में। इसने दिखा दिया कि धर्मांध भीड़ कितनी और किस हद तक अमानवीय हो सकती है। गोधरा कांड में एक बात और सामने आई। अब तक माना जाता था कि देश के भटके हुए बेरोजगार, भुक्खड़, हिंसापसंद और गलीच मानसिकता के लोग ही इस तरह के दंगों में शिरकत करते आए है। मगर इस दंगाई नृशंसता में मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे, व्यवसायी और नौकरी पेशा लोगों ने भी खुलकर भाग लिया। पूरा का पूरा मध्यमवर्ग कभी भी सांप्रदायिक हिंसा का पैरोकर नहीं रहा है बल्कि इसी वर्ग के सांप्रदायिक सद~भावना के सिपाही सामने आते रहे हैं। मगर गुजरात के मध्यमवर्ग ने सारी मानवीयता और सांप्रदायिक सद~भावना की धज्जियां उड़ा दी है। जिस राज्य का मध्यमवर्ग ही दंगों का पैरोकर बन बैठा हो उस राज्य की सांप्रदायिक सद~भावना का और क्या हश्र होगा। गुजरात का मध्यमवर्ग सांप्रदायिक सद~भावना और धर्मनिरपेक्षता के माथे पर एक बदनुमा दाग ही साबित हुआ है।
आज गोधरा कांड को कई महीने हो चुके हैं। मगर दंगों की आग है कि बुझती ही नहीं है। अब न प्रोटेस्ट मार्च निकल रहे हैं न सांप्रदायिक सद~भावना की रैलियां। हमारे देश की जनता भी लगता है जैसे कि इन दंगों को हजम करने की आदत डाल चुकी है। जहां हिंसा हजम हो जाती हो वहां हिंसा का विरोध भी कम होने लगता है। दूसरी तरपफ देश के नेताओं का ध्यान गोधरा से हटकर पाकिस्तान को धमकियां देने पर जा रहा है। उसे मजा चखाने के नारे हवा में गूंज रहे हैं। ऐसा लगता है कि गोधरा की पुनरावृत्ति एक व्यापक रूप में होने वाली है।
मगर गोधरा जल रहा है। गुजरात जल रहा है। सांप्रदायिक हिंसा की आग पूरे देश को जला रही है। सारी धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सदभावना इन दंगों में झुलस रही है।
मेरी बेटी रिकार्डर से निकलती धुन पर थिरक रही है और बाल कविता के बोलों को दुहरा रही है। मेरी अपनी बेटी से अपील है कि वो कहे कि बच्चों की ये रेल भले ही सारी दुनिया को जाएं मगर गुजरात कभी न जाए। गुजरात अब एक ऐसी कत्लगाह बन चुका है जहां बच्चों को हंसी-खुशी, उनकी किलकारियां, सपनों और भविष्य को कत्ल कर दिया जाता है।
अभिमूकनायक, अक्टूबर 2002 में प्रकाशित
मुकेश मानस
डा धर्मवीर ने अपनी हाल में छपी किताब ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ में प्रेमचंद पर जारकर्म ( रखैल रखने और एक दलित स्त्री को रखैल रखने) का आरोप क्या लगाया और पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम में उन पर चप्पल क्या फैंकी गई कि समूचे सहित्य जगत में तूफान सा आ गया। धर्मवीर पर चप्पल फैंकी गई इसलिए नहीं कि उन्होंने प्रेमचंद पर जारकर्म का आरोप लगाया बल्कि इसलिए कि उन्होंने प्रेमचंद के बहाने दलित महिलाओं के सम्मान के साथ खिलवाड़ किया था।
इस प्रकरण से कहीं न कहीं ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त हिन्दी के गैर-दलित साहित्यकारों, आलोचकों और संपादकों को कुछ गरमा-गरम लिखने का बहाना मिल गया। बड़े दिनों से बैठे-बैठे मक्खियां मार रहे थे। वही पुराने-धुराने और रटे-रटाये विषयों पर लिखे जा रहे थे। अब जान सी आ गई। तमाम जनवादी-प्रगतिशील झंडे हवा में लहराने लगे। क्रांति करीब आती दिखने लगी। देखते ही देखते तमाम पत्रिकाओं में धर्मवीर के खिलाफ लेख पर लेख लिखे जाने लगे। कईयों ने राष्ट्रीय सेमिनार तक कर डाले। कुछ नई पत्रिकाएं भी बाज़ार में दिखने लगीं। विषय सबका एक-धर्मवीर के बहाने दलित साहित्य पर हमला।
इस किताब से पहले धर्मवीर की एक और किताब आई थी ‘कबीर के आलोचक’। इस किताब में उन्होंने कबीर के सारे ब्राह्मण आलोचकों की ब्राह्मणवादी मानसिकता की कलई खोली थी कि किस तरह उन्होंने अपने समय के सबसे विद्रोही और क्रांतिकारी कवि को धार्मिक और अध्यात्मिक कवि बनाकर रख दिया था। इन सबों ने कबीर को ब्राह्मण परम्परा का कवि सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। हिन्दी के आजकल के ज्यादातर आलोचक-संपादक भी लगभग ऐसी ही मानसिकता से ग्रस्त हैं। लेकिन धर्मवीर के मजबूत तर्कों के आगे उनकी एक ना चली। कईयों ने खुद को प्रगतिशील बनाए रखने के लिए धर्मवीर की पीठ भी ठोकी। मगर इस बार उन्हें पूरा मौका मिल गया।
धर्मवीर की आलोचना करने के बहाने जनवादी-प्रगतिशील साहित्य की मठाधीशी करने वालों ने दलित साहित्य को भी नहीं बख्शा। उन्होंने दलित साहित्य और साहित्यकारों को पानी पी पीकर खूब कोसा। ये लोग वैसे तो दलित साहित्य पर ज़बान खोलते ही नहीं थे अब खोली तो पूरी गज भर की…। और यह सब सिर्फ इसलिए कि धर्मवीर ने प्रेमचंद पर आरोप लगाकर उनकी प्रगतिशीलता को चुनौती जो दे दी है।गोया हिन्दी की सारी प्रगतिशीलता मानो प्रेमचंद की मोहताज हो। वैसे ये बात किसी हद तक सच भी है। आजकल प्रेमचंद के नाम पर तमाम फ़ंड, अवार्ड और फेलोशिप जो मिलने लगे हैं।
प्रेमचंद के विषय में धर्मवीर ने जो सवाल उठाया है अगर वही सवाल किसी तिवारी, चौबे या त्रिपाठी ने उठाया होता तब शायद यही सवाल सच्ची प्रगतिशीलता का वायस माना जाता। उन्हें शायद यही मलाल है कि प्रेमचंद हमारे हैं। और उनको दुलराने और उनकी कमियां निकालने का हक हमारा है। एक दलित की क्या मजाल कि प्रेमचंद को सामंत का मुंशी बताए। उनके जीवन के छुपे प्रसंग को सुधीजनों के सामने लाए। वैसे तो साहित्य में आजकल उत्तर आधुनिकता का दौर चल रहा है जिसमें लेखक और उसकी रचना में कोई तालमेल जरूरी नहीं। कोई भी पाठक लेखक की रचना का लेखक के पाठ से इतर अपना पाठ बना सकता है। लेकिन एक दलित को प्रेमचंद का अलग पाठ बनाने की अनुमति नहीं। ये एक अलग बात है कि उत्तर आधुनिकता का यह सिद्धांत दलित साहित्य की मान्यताओं के एकदम उलटा है। क्योंकि दलित लेखक अपनी रचनाओं को अपने जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति मानता है। यानी वह मानता है कि उसकी रचनाओं उसके जीवन से सीधा सम्बन्ध है।
प्रगतिशील-जनवादी आलोचक वैसे तो बड़े स्त्री समर्थक बनते हैं मगर इस प्रकरण में किसी को यह नहीं दिखाई दिया कि धर्मवीर ने दरअसल दलित स्त्री की अस्मिता और स्वतंत्रता पर कितना घटिया प्रहार किया है। आखिर क्यों दिखे हैं तो सब पुरूष ही। फिर प्रेमचंद के सामने दलित स्त्री की अस्मिता और स्वतंत्रता कए क्या मायने हैं?
इस प्रकरण में कुछ दलित साहित्यकारों को अपने मतलब की बात बड़ी जल्दी समझ आ गई। उनमें प्रेमचंद समर्थक होने की होड़ सी मच गई। उन्हें लगा कि इसी बहाने उन्हें तमाम प्रगतिशील-जनवादी पत्रिकाओं में जगह मिलेगी, ब्राह्मण प्रोफेसरों की शाबासी मिलेगी, बड़े-बड़े पुरस्कारों की समितियों की कुर्सियों पर बैठे नामवरों की नज़र उन पर पड़ेगी। किसी को भी दलित स्त्रियों की अस्मिता और स्वतंत्रता से धर्मवीर का खिलवाड़ समझ नहीं आया।
मगर इससे धर्मवीर को कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें तो मुफ्त में प्रसिद्धि मिल ही गई।किसी भी पत्रिका को उठा लीजिये, धर्मवीर ही धर्मवीर्। बिना ट्का खर्च किए ऐसी प्रसिद्धि बिरले को ही मिलती है। धर्मवीर तो शायद यही चाहते होंगे तभी तो उन्होंने इतने गंभीर विषय को इतने चलताऊ ढ़ंग से उठाया और विषयांतर ऐसा कि प्रेमचंद को सामंतवादी जार सिद्ध करते-करते जा पहुँचे दलित महिलाओं जार सिद्ध करने तक। उपर से समाधान ये कि दलित महिलाएं गैर-दलितों से विवाह न करें क्योंकि यह जार कर्म है। दलित महिलाओं ने उन पर चप्पल फैंक कर बिल्कुल सही किया।
प्रेमचंद बड़े लेखक हैं और रहेंगे। किसी निजी कमजोरी से कोई बड़ा लेखक छोटा नहीं हो जाता। व्यक्ति प्रेमचंद और लेखक प्रेमचंद की आलोचना होनी चाहिए। उनकी व्याख्या करने का हरेक को हक है। मगर व्याख्या तर्कपूर्ण और प्रमाण आधारित होनी चाहिए।
दिसम्बर 2005
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परमाणु बम परीक्षण
परमाणु बम परीक्षण से नहीं, विकास से मिलेगा सम्मान
मुकेश मानस
भारत में अर्द्ध-बेरोजगारों, अप्रत्यक्ष बेरोजगारों और पूर्ण बेरोजगारों की कुल संख्या 18 करोड़ से भी ज्यादा हो चली है। भारतीय युवा वर्ग की आधी से ज्यादा आबादी बेरोजगार है। आजाद भारत में पूंजीवादी रास्ते पर चलने वाले शासक वर्ग की भ्रष्ट कारगुजारियों की राह पर बेरोजगारी की यह अमर बेल बढ़ती चली आई है। आजकल यह काम सार्वजनिक उद्योगों को बीमार बताकर, या गैर-मुनाफे का सौदा घोषित करके या निजीकरण करके किया जा रहा है। नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। बेरोजगारी दीमक की तरह युवा वर्ग की छाती पर बैठी है और उसके यौवन, शक्ति, उत्साह और रचनात्मकता को खा रही है। युवा वर्ग में अवसाद, निराशा अवसरवाद और पतनशीलता घर कर रही है। जिस देश की युवा शक्ति घुट-घुट कर जीने-मरने को अभिशप्त हो, जो हताशा और निराशा की अंधी गली में भटकने को मजबूर हो उस देश का क्या सम्मान?
सरकारी स्कूलों में प्रतिवर्ष दाखिला लेने वाले 100 बच्चों में से केवल पांच ही उच्च शिक्षा तक पहुंच पाते है और इन पांच में से चार अमीर परिवारों के होते हैं। हर साल आधे बच्चे स्कूल से बाहर रह जाते हैं और आधे बच्चों को, यह अमानवीय और पूंजीवादी नीतियों पर खड़ी शिक्षा व्यवस्था स्कूल से बाहर ठेल देती है। गरीबों के बच्चे, मंहगे और निजी पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से हर क्षेत्रा में पिछड़ते हैं। नतीजतन, शिक्षा जिसे देश के भावी कर्णधारों के बीच की आर्थिक व अन्य तमाम तरह की खाइयों को पाटना था वह ऐसी रेल बन जाती है जिसमें केवल अमीरों के बच्चे ही बैठ सकते हैं और वही अपनी-अपनी मंजिलों पर पहुंचते। पिछले पचास सालों से इस देश के बच्चों को शिक्षा के नाम पर केवल मिट~टी का झुनझुना देकर टरकाया गया है। पूरे बजट में शिक्षा पर खर्च 6% से शुरू करके उसे 1.5% पर ले आया गया है। देशभर में लाखों बच्चे बाल मजदूरी के विभिन्न पेशों में अपना बचपन और अपने सपने घिस रहे हैं। यह शर्म की बात है कि देश के पचास जिलों में विश्व बैंक अपने स्कूल चला रहा है जिनमें बच्चे क्या पढ़ेंगे, कैसे पढ़ेंगे, यह हम नहीं, वह तय करेगा। इस बच्चे देश के आधे से ज्यादा बच्चे अशिक्षित हैं और आधे लोग अनपढ़। बम परीक्षण करने वालों के लिए यह प्राथमिकता क्यों नहीं रही कि वे बम परीक्षण कार्यक्रम की बजाए सर्वजन शिक्षण कार्यक्रम पर अमल करते।
आज दुनिया भर में अधिकतम गेहूं उगाने वाले देश में आटा 10 रुपए किलो बिक रहा है और प्याज 20 रुपए किलो। सैकड़ों लोगों को खाने के वास्ते कुछ भी नसीब नहीं होता और काला हांडी जैसी वीभत्स घटनाएं घटती हैं। दुनिया के पेट के लिए जो किसान रोटी पैदा करते हैं वे दाने-दाने को तरसते हुए मर जाते हैं। पिछले साल देश भर में खासतौर पर आन्ध्र प्रदेश में बीज, खाद, पानी की मदद न मिलने के कारण सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या की। पर्यावरण की सुरक्षा और सुंदरता के नाम पर भारत के अनेक शहरों में कल-कारखाने बंद किए गए और करोड़ों की तादात में मजदूर बेरोजगार हुए। मिल मालिकों ने मुफ्त मिली जमीनें आसमान छूती कीमतों पर बेचकर अपने घर भरे। पिछले साल केवल अकेले दिल्ली शहर में ही 10-15 झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा गया और करोड़ों ऐसे लोगों को बेघर और बेबस कर दिया जिनके हाथों से सारा शहर चलता था। इस देश में लगातार विकास के नाम पर, शहरीकरण के नाम पर और रोजगार अवसरों के केन्द्रीकरण की नीति के कारण आम लोगों को लगाता। विस्थापित होते रहने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। आवास का हक जनता का बुनियादी हक है। ये सरकारें वह तो मुहैया करवा नहीं पाई उल्टे तंग और बदूबदार बस्तियों में मिली सर छिपाने की जगह से भी आम लोगों को वंचित किया गया। रोटी, कपड़ा और मकान, बम परीक्षण पर पैसा फूंकने वालों की प्राथमिकता में क्यों नहीं रहे। जिस देश में लाखों लोग भूखे मरें, नंगे रहें और खुले आसमान में दिन काटें वह देश दुनिया के सामने कैसे आत्मगौरव और निज सम्मान की बात कर सकता है।
इस देश के आम बाशिन्दों को पिछले पचास सालों से लगातार भूख और गरीबी से मुक्ति के सपने दिखाए जाते रहे हैं। बेरोजगारी और अशिक्षा को दूर भगा देने के पुरजोर नारों से उन्हें भzमित किया जाता रहा है। लेकिन पचास सालों में जिन्दगी के बद-से बदतर होते गए हालातों ने आम आदमी को सिखा दिया है कि भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा घटने की बजाए बढ़ रही है। इस देश के आम इंसान को उन्नति और सुख-चैन के रास्ते से दर किनार किया जाता रहा है। देश पर लगातार बढ़ता जाता विश्व कर्ज, भ्रष्ट और कमजोर नीतियों के चलते देश के औद्योगिक विकास का ऐसा ढांचा अख्तियार करना जिसमें कम श्रम की आवश्यकता पड़े, और भ्रष्ट और रिश्वतखोर अफसरशाही के बेतहाशा खर्चों का बढ़ना, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जरूरी जन सुविधाओं से पैसा काटना इस देश की गिरती माली हालत के उदाहरण हैं। जनता के तरफदार अर्थशास्त्री एक बार नहीं, सैकड़ों बार आर्थिक विकास और उन्नति से संबंधित सरकारों के झूठे आंकड़ों का पर्दाफाश कर चुके हैं और देश की लगातार आर्थिक संकटों से घिरती जा रही अर्थव्यवस्था का खुलासा कर रहे हैं। टोपी पहनने वाले टिडडों के कानों पर जूं नहीं रेंगती है बल्कि ये जनता को भरमाने के लिए न सिर्फ तरह-तरह के सब्ज़बाग दिखा रहे हैं बल्कि इन सब्ज़बागों को और ज्यादा आकर्षक और लुभावना दिखाने के लिए किसिम-किसिम के कलात्मक और रचनात्मक दिखने वाले तरीके ईजाद कर रहे हैं। इन तरीकों की फेहरिस्त बाबरी मस्जिद विध्वंस से शुरू होकर परमाणु बम परीक्षण तक पहुंच गई है ताकि जनता का ध्यान असली समस्याओं की जड़ पर जाने से हटे और ये कुर्सी पर बैठकर शान से उसका खून चूसते रहें।
भारत के परमाणु परीक्षण के बाद कई देशों ने उसको दी जा रही आर्थिक सहायता पर प्रतिबन्ध लगाने की धमकी दी है। लेकिन सत्तारूढ़ों का कहना है कि भारत की आर्थिक व्यवस्था पर इन प्रतिबन्धों का कोई असर नहीं पड़ने वाला है। विश्व पूंजीवाद आज अपने आर्थिक संकटों से घिरा हुआ है जिनसे राहत पाने के लिए वह तीसरी दुनिया के देशों की ओर बढ़ा है। इसलिए अगर अमरीका प्रतिबंध लगाएगा तो दूसरे सैकड़ों देश मदद को आ जाएंगे। अत: भारत पर इसका ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला है। जन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इन प्रतिबंधों का असर पड़ेगा और जरूर पड़ेगा मगर वह टाटा-बिरला डालमिया या अटल-आडवाणी मुरली एंड कम्पनी पर नहीं पड़ने वाला है। इनका असर आम जनता पर पड़ेगा। भुखमरी और गरीबी बढ़ेगी। मंहगाई लोगों की कमर तोड़ देगी। बेरोजगारी सुरसा बनकर करोड़ नौजवानों को अपने पेट में लील लेगी। किसान आत्महत्याएं करेंगे और मजदूर कम से कम मूल्य पर श्रमशक्ति बेचने को मजबूर होंगे। बचे-खुचे सामाजिक विकास के रास्ते में रूकावट आएगी, जो थोड़ा-बहुत धन शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर लगता था वह अब बम पूजा की भेंट चढ़ जाएगा। परमाणु कार्यक्रम को आगे चलाए रखना मजबूरी होगी जिसमें खर्च होने वाली राशि लगातार बढ़ती जाएगी। देश के भीतर लाखों करोड़ों लोग भूख और गरीबी से मरेंगे और देश सीना तानकर लाखों जीते-जागते, हंसते-गाते लोगों को मारने की ताकत लिए-लिए घूमेगा। 21वीं सदी में भारत की हालत शायद उस आदमी जैसी होगी जो भूखा-नंगा और प्यासा होगा और जिसके एक हाथ में परमाणु बम होगा और दूसरे हाथ में भीख मांगने के लिए कटोरा।
इस देश में दो देश हैं। एक भारत है जो भूखा, नंगा और संपत्तिहीन है। इस देश के पास खोने के लिए है ही क्या जो दुश्मन लूट लेंगे, जिसकी रक्षा के लिए सैना रखी जाए या परमाणु बम बनाया जाए। पूरी दुनिया में कोई देश नहीं होगा जिसमें ऐसा दूसरा देश न हो। इन देशों के पास न अपना कुछ लुटाने के लिए कुछ है न दूसरों का लूटने के लिए कुछ। फिर फौजें किसकी और किससे रक्षा करती हैं और बम परीक्षण किसका भय दूर करेंगे। निश्चित ही, 15 पफीसदी की आबादी वाले उस हिस्से का, जो संपत्ति का मालिक है, तमाम संसाधनों पर कब्जा किए बैठा है और जिसे अपनी संपत्ति लुट जाने का भय हमेशा रहता है उसी को फौजें और परमाणु परीक्षण चाहिए। जो अपनी संपत्ति को लगातार बढ़ाने और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए दूसरे गरीब और पिछड़े मुल्कों में भी डाका डालने व उन्हें हड़पने की ताक में रहता है, जो अपने देश में अपने विरोध में उठती हर आवाज, हर नस्ल, जाति और धर्म को तानाशाहीपूर्ण और बहशियाना ढंग से नेस्तोनाबूद करने की हद तक गिर सकता है। ऐसे बहशी दरिन्दे का नाम पूंजीवाद है, साम्राज्यवाद है, साम्प्रदायिकतावाद है, फासिस्टवाद है। हमारे देश का शासक वर्ग, हर शासन करने वाली का चरित्र यही है और इससे अलग बिल्कुल नहीं है। यह शासक वर्ग और इसकी शोषणकारी व्यवस्था आम जनता के शोषण पर टिकी है। पचास साल तक इसने जनता के साथ बहुत छल-कपट किए हैं। अब इसके समाजवादी नमूने के जनवादी चरित्रा का असली रंग जनता देख चुकी है। अब यह बाबरी मस्जिद के विध्वंस और परमाणु बम परीक्षण को कितना ही राष्ट्रवादी मुलम्मे में रखे पर जनता इस चाल में नहीं आने वाली। भाजपा आजकल बम परीक्षण के बाद जिस राष्ट्रवाद का उन्माद फैला रही है उसे जनता ने समझ लिया है मगर उसने यह भी समझ लिया है कि यह ऐसा राष्ट्रवाद है जिसके हाथ-पांव, आंख, नाक और कान नहीं है। यह एक अंधा, बहरा और लूला राष्ट्रवाद है जिसके पास केवल मुंह है जो रक्त और मनुष्य के मांस के लोथड़े के अलावा और कुछ नहीं मांगता है। इसका यह बम पूजा का हवन कुंड न सिर्फ अपने देशवासियों बल्कि दुनिया के तमाम अमन पसंद मनुष्यों की मौत मांगता है। बम पूजा की यह हवन कहीं खत्म नहीं होती है इसमें खत्म होती हैं दुनिया भर के लोगों की खुशियां, इच्छाएं, सपने और फूल और इन्द्रधनुष।
ये अंधराष्ट्रवादी 15 मई से लगातार चीख रहे हैं कि भारत ने परमाणु परीक्षण करके पूरी दुनिया में अपना सम्मान बढ़ाया है। बम परीक्षण के बाद भारत अब गौरव बढ़ा है। वह अब शान से दुनिया को बता सकता है कि वह भी कुछ है। इससे ये साबित होता है कि पहले भारत का गौरव और आत्म सम्मान नहीं था वह केवल बम परीक्षण करने पर भी आया है। आत्म सम्मान तो शायद थोड़ा बहुत था मगर इन लूटखोर जोंकों का आत्मसम्मान नहीं था। इनका सम्मान बढ़ा है जो दूसरे लूटखोरों के आगे सीना तानकर कहेंगे कि तुम्हारे पास अगर बम है तो मेरे-पास भी है। इतिहास गवाह है कि दूसरों को ताकत के बल पर डराने धमकाने और लूटने वाले लूटखोर आपस में लड़-भिड़ कर मर-खप जाते हैं। इतिहास उनको केवल बहशी दरिन्दे के रूप में याद करता है और उनका जिक्र आने पर उन के मुंह पर थूकता है। हिरोशिमा-नागासाकी आज भी ऐसे लूटखोरों के मुंह पर थूक के निशान हैं।
जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी भूख और मौत के बीच खड़ी हो, जिस देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग गरीबी और अभावों से जूझ रही हो, जिस देश के मजदूरों को मजदूरी से और किसानों को जमीनों से बेदखल करके, आत्महत्या के लिए मजबूर किया जा रहा हो, वह पांच तो क्या हजारों बम परीक्षण कर ले तब भी उसका आत्म सम्मान नहीं बनने वाला है। आत्म सम्मान केवल हाथ में परमाणु हथियार आ जाने और सैकड़ों लोगों को मौत के मुंह में उतार देने में सक्षम हो जाने पर नहीं आता है, कभी नहीं आता है। वह लूट-खसोट के असले से नहीं बल्कि अपने देश के प्रत्येक नागरिक को रोटी, कपड़ा और मकान व अन्य मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होने से आता है। वह पड़ोसी देशों व उनके लोगों को दुश्मन बनाने से नहीं आता वह उनसे परस्पर सहयोग व भाईचारे की भावना को मजबूत करने से आता है। वह दुनिया में शांति अमन कायम करने के लिए जान की बाजी लगा देने से आता है।
परमाणु युद्ध में कोई विजेता नहीं होता। भारत के महाशक्ति बनने का दावा एकदम फर्जी है। इतिहास ने खोखली और जनता के सिरों पर खड़ी ऐसी सैकड़ों महाशक्तियों को धड़ाम से गिरते देखा है। अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, इंग्लैंड सभी ऐसी ही खोखली महाशक्तियां है जिनकी होड़ में भारत और पाकिस्तान जैसे अन्य और देश भी शामिल होने को लालायित हैं। भारत की असली ताकत उसके लोग हैं। अत: उसको उनके आत्मगौरव और आत्मसम्मान का ख्याल करना चाहिए। आज भारत की जरूरत यह नहीं है कि वह परमाणु शक्ति वाले पांच देशों के समूह में शामिल हो बल्कि इस बात की है कि वह सामाजिक रूप से दस सबसे कम विकसित देशों की कतार से बाहर आए।
हर आदमी को जब मिल पाएगा।
रोटी, कपड़ा और मकान।
तब ही होगा इस भारत का
आत्मगौरव, आत्मसम्मान। जून’
समाजवाद मांगेंगे, पूंजीवाद नहीं
मुकेश मानस
4 फरवरी 2006 को राष्ट्रीय सहारा के सम्पादकीय पृष्ठ पर नजरिया शीर्षक के तहत दलित बुद्धिजीवी श्री चंद्रभान प्रसाद के लेख ‘दलित कैपिटलिज्म का मार्च’ को पढ़ा। उन्होंने लिखा है कि अमरीका में रहने वाले श्री के पी सिंह की अगुआई में आगामी अक्टूबर को एक लाख सूटेड-बूटेड पढ़े-लिखे दलित लोग जंतर-मंतर पर मार्च करेंगे और दलित कैपिटलिज्म की मांग करेंगे। भारत के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व परिघटना होगी। अगर यह मार्च वाकई क्रियान्वित हो जाए तो भारत के दलित आंदोलन के लिए यह एक गौरवशाली मार्च होगा। ये दलित कैपिटलिज्म क्या है? इसकी रूपरेखा क्या हैं और किस तरह यह दलितों की मुक्ति का आधार बन सकता है? क्या यह ‘दलित कैपिटलिज्म’ उस पूंजीवाद के जैसा होगा जो आज लगभग सारी दुनिया के अधिकतम देशों में चल रहा है या यह उससे भिन्न किस्म का पूंजीवाद होगा? दलित कैपिटलिज्म वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था से किस प्रकार भिन्न होगा? इन तमाम बातों का खुलासा श्री चंद्रभान प्रसाद ने अपने लेख में नहीं किया है।
भारत का पूरा दलित समाज और उसका आंदोलन एक जबर्दस्त संक्रमण काल से गुजर रहा है। पूरा दलित समाज जबरदस्त हिलोरें ले रहा है और उसके दलित आंदोलन में कई तरह के जरूरी सवालों पर विचार-मंथन चल रहा है। इन सवालों में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल है कि दलितों की सर्वांगीण मुक्ति का रास्ता क्या है? लगातार चलने वाले इन बहस-मुबाहिसों में एक बात बार-बार निकल कर आ रही है कि दलितों की सर्वांगीण मुक्ति एक ऐसे समाज की स्थापना करने में निहित है जिसमें जात-पात न हो, अमीर-गरीब न हों, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों पर आधरित हो और जिसमें कोई किसी का शोषण न कर सके, जिसमें सबको फूलने-फलने का पूरा मौका और स्वतंत्रता मिले। और ऐसा समाज पूंजीवाद तो कतई नहीं हो सकता चाहे, वह अमरीकी पूंजीवाद हो या दलित पूंजीवाद।
इस देश में आज भी अम्बेडकर से बड़ा दलितों का हितैषी कोई नहीं है। अपनी मृत्यु के लगभग 50 वर्षों बाद भी वह दलितों के लिए प्रासंगिक बने हुए हैं बल्कि दलितेत्तर समाजों में भी वह लगातार प्रासंगिक होते जा रहे हैं। कहा जा सकता है कि इस देश के आगामी सुखद परिवर्तनों का आधार भी डा. अम्बेडकर ही साबित होते जा रहे हैं। आजादी के बाद इस देश की व्यवस्था कैसी हो? इस बारे में उनके विचार क्रांतिकारी थे। वे लगातार इस देश की व्यवस्था को एक राजकीय समाजवादी व्यवस्था में बदलने की वकालत करते रहे। उन्होंने भूमि समेत तमाम उत्पादन शक्तियों के राष्ट्रीयकरण जैसी रणनीतियां भी पेश कीं जो देश को एक समाजवादी व्यवस्था की तरफ ले जाने वाली आधर भूमि को तैयार करने में मददगार साबित हो सकती थीं। मगर यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि उनकी इन बातों को दरकिनार कर दिया। लेकिन आज उनके यही सिद्धांत दलित मुक्ति
आन्दोलन के प्राण हैं
डा. अम्बेडकर ने कभी इस तरह के कैपिटालिज्म की कोई मांग नहीं की। पूंजीवाद के खतरों से वह पूरी तरह वाकिफ़ थे। जिस चीज की वकालत कभी डा. अम्बेडकर तक ने नहीं की, आज कुछ लोग उसी चीज की मांग कर रहे हैं? क्या ये लोग डा. अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी हैं? क्या ये लोग व्यापक दलित समाज के हितैषी हैं? ये दलित कैपिटलिज्म किस प्रकार का होगा? इस बात का खुलासा करने के लिए यह जानना जरूरी है कि दलित कैपिटलिज्म की मांग करने वाले ये कौन लोग हैं। और वे दलित कैपिटलिज्म की मांग क्यों और किसके लिए कर रहे हैं। श्री चंद्रभान प्रसाद ने दलित समाज के ऐसे लोगों की श्रेणी बनाई है। वह लिखते हैं कि इस श्रेणी के अधिकतर दलित अंग्रेजी बोलने वाले या अंग्रेजी समझने वाले होंगे। अंग्रेजी बोलने या समझने वालों की श्रेणी को प्रतीक की तरह लेना चाहिए। ये वही लोग हैं जो आरक्षण का सहारा पाकर एक सुविधा सम्पन्न स्थिति में आ गए हैं। इनको ही दलित समाज की ‘क्रीमी लेयर’ कहा जाता है। इन्हीं के बीच एक ऐसे वर्ग का भी उदय भी हो चुका है जिसको आर्थिक तौर पर उच्च और समृद्ध वर्ग कहा जा सकता है। इस वर्ग में छोटे बड़े व्यापारी, पूंजीपति और उद्योगपति आदि की खासी तादात है। ये ज्यादा-से ज्यादा आर्थिक समृद्धि पाने के रास्ते खोज रहे हैं लेकिन जाति इनके रास्ते की रुकावट बन रही है। पर आश्चर्य की बात ये है कि जाति तोड़ने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। दरअसल इनका एकमात्र उद्देश्य जाति को सीढ़ी बनाकर अपनी समृद्धि को बढ़ाना है। इसलिए ये दलित कैपिटलिज्म की मांग कर रहे हैं। लेकिन सिर्फ़ अपने लिए, पूरे दलित समाज के लिए नहीं?
आखिर दलित कैपिटलिज्म की मांग करने वाले ये लोग क्या चाहते हैं? श्री चंद्रभान प्रसाद के मुताबिक मांगें तो बहुत-सी हैं लेकिन मुख्य मांग है कि दलितों के स्वामित्व के बड़े-बड़े उद्योग होने चाहिए। दूसरे अर्थों में कुछ दलित अरबपति होने चाहिए। सैकड़ों दलित करोड़पति तथा लाखों दलित लखपति होने चाहिए। तुरंत दिमाग में आने वाला एक सवाल है कि अरबपति होने वाले दलित ‘कुछ’ क्यों हों, लाखों क्यों नहीं? कैसी जबरदस्त मांग है। अरबपति हों मगर ‘कुछ’ हों सभी न हों। यानि दलित कैपिटलिज्म की मांग से एक तो पहले ही एक ऐसी आबादी को बाहर कर दिया है जो न अंगzेजी बोल सकती है और न समझ सकती है, जो सूटेड-बूटेड हो सकती है। दूसरे, सूटेड-बूटेड वर्ग में भी कुछ की ही उच्चतम समृद्धि हो, सबकी न हो। क्या डाइवर्सिटी है जनाब! डाइवर्सिटी है या शुद्ध पूंजीवाद है?
आइए देखें इस दलित कैपिटलिज्म में क्या होगा? दलित कैपिटलिज्म की मांगों के अनुसार कुछ लोग अरबपति, सैकड़ों करोड़पति और लाखों करोड़पति हों। मगर सवाल ये है कि कौन बनाएगा? डाइवर्सिटी का सिद्धांत मानकर भारत की सरकार बनाएगी। कुछ लोग मिलों, कारखानों कम्पनियों, मीडिया सेंटरों के मालिक हो जाएंगे। यानि इन सूटेड-बूटेड, पढ़े-लिखे दलितों में से बहुत से दलित पूंजीपति हो जाएंगे। लेकिन बाकी दलित जनता का क्या होगा? क्या ये दलित पूंजीपति दलित जनता के श्रम का शोषण किये बिना मुनाफ़ा कमा पाएंगे? क्या बिना मुनाफ़ा कमाये ये लोग पूंजीपति बने रहेंगे। पूंजी की प्रवृति लगातार कुछ हाथों में सीमित होने जा रही है। क्या गारंटी है कि आज जो लाखों लखपति बनेंगे, गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में कल भी बने रह पाएंगे। क्या ये दलित पूंजीपति भी अन्य पूंजीपति से भिन्न रह पाएगें? पूंजीवाद के बारे में सारी दुनिया की जनता का अनुभव यह बताता है कि पूंजीवाद किसी भी देश में जनता के हित में नहीं रहा है। यह जनता का शोषण करने वाली एक खूनी व्यवस्था है। पूंजीवाद का इतिहास शोषण, दमन और नृशंसताओं का इतिहास है। क्या गारंटी है कि दलित कैपिटलिज्म इस खूनी खेल में शामिल नहीं होगा। वह मजदूरों-किसानों, गरीबों, महिलाओं का शोषण नहीं करेगा। इस बात की गारंटी शायद दलित कैपिटलिज्म के अजेंडे में नहीं है।
इस बात की भी जांच-पड़ताल होनी चाहिए कि अमरीका जाकर डाW. के.पी. सिंह को ऐसी कौन-सी जड़ी-बूटी मिल गयी कि एकाएक दलित कैपिटलिज्म की मांग करने लगे। पिफर विदेशी दलितों को दलित कैपिटलिज्म में दिलचस्पी क्योंकर पैदा होने लगी। आज भी पूरे देश में चल रहे दलित आंदोलन को इन विदेशी दलितों से कोई खास मदद नहीं मिलती है। दलित कैपिटलिज्म में दिलचस्पी दिखाने की कोई न कोई तो खास वजह होगी?
अमरीका जाने वाले एक डा. के.पी. सिंह ही दलित नहीं हैं, डा. अम्बेडकर भी अमरीका गए थे। मगर वे वहां से दलित कैपिटलिज्म आयात करके नहीं लाए थे। उन्होंने अपने देश की और देश के दलितों की वस्तुस्थिति का अध्ययन करके ही दलित मुक्ति का रास्ता निकाला था। इतिहास गवाह है कि पूंजीवाद में कभी किसी की मुक्ति नही होती श्रमिकों का शोषण करके मुनाफ़ा अर्जित करने वाले पूंजीपति की भी नहीं। दलित कैपिटलिज्म की मांग करने वाले इस देश की व्यापक दलित जनता के हितों के संरक्षक नहीं दुश्मन हैं। वे डाइवर्सिटी के पूंजीवादी जाल में फंसकर दलित जनांदोलन को सीमित और कमतर बना देना चाहते हैं जैसे अमरीका में ‘ब्लैक मूवमेंट’ को बनाया गया। डाइवर्सिटी के चक्कर में आज अमरीका को ‘ब्लैक मूवमेंट’ की धार कुंद हुई है। ये हो सकता है कि डाइवर्सिटी के चलते कुछ अश्वेतों की स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी हो गई हो मगर अश्वेतों की अधिकांश भी बदहाली और बेरोजगारी की शिकार है। कैटरीना तूफ़ान दौरान अश्वेत पीड़ितों के साथ राहत सामग्री बंटवारे में किया गया भेदभाव यह बताता है कि अमरीका में नस्लभेद की मानसिकता आज भी जड़ जमाये है। यही अमरीकी डाइवर्सिटी का कटु सच है।
दलित कैपिटलिज्म की मांग दरअसल एक ऐसी ही समाज व्यवस्था को यथावत
बनाए रखने की मांग है जिसमें कुछ अमीर हों और शेष जनता गरीब, जिसमें कुछ शोषक हो और बाकी शोषित। ऐसी व्यवस्था में दलितों की मुक्ति नहीं हो सकती? दलितों की मुक्ति का एक ही रास्ता है
समाजवाद का रास्ता। अगर किसी से कुछ मांगना ही है तो दलित जनता समाजवाद मांगेंगी, पूंजीवाद नहीं। समाजवाद में ही दलितों की और शेष शोषित जनता की संपूर्ण मुक्ति होगी, पूंजीवाद में नहीं।
2006
कापीराईट सुरक्षित
मुकेश मानस
गुलामी से आजादी की कहानी
साम्राज्यवादी अंग्रेज़ हमारे देश में व्यापारी बनकर आए थे। वे अपनी राजनीतिक रणनीतियों व सैनिक शक्ति के बल पर यहां के शासक बन बैठे। धीरे-धीरे उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बनाकर उसका भयानक रूप से सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक शोषण किया। साम्राज्यवाद के चक्के में पिसती जनता ने भी तरह-तरह से गुलामी के खिलाफ आवाज़ उठाना शुरू किया। 1857 में भारत के किसानों, असंतुष्ट सामंतों, हिन्दू-मुस्लिम गरीब जनता और सैनिकों ने संगठित होकर बहुत बड़ी बगावत की थी। भारतीय जनता की आजादी के लिए यह पहली जबरदस्त कोशिश थी। इस कोशिश को मार्क्स ने भारत का पहला स्वतत्रता संग्राम कहा था।
भारत में उभरते पूंजीपति वर्ग ने हिन्दुस्तानी व्यापार क्षेत्र में अपने लिए व्यापार की छूट मांगने के लिए 1885 में खुद को कांग्रेस नाम के एक संगठन में संगठित किया जो बाद में कांग्रेस पार्टी बनी। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद को कमजोर होते व देश भर में उठ रहे क्रांतिकारी जनांदोलनों के तूफान को उठते देख जब पूंजीपति वर्ग को भारत की सत्ता अपने हाथ में आने की संभावनाएं दिखीं तो कांग्रेस पार्टी भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी। मगर सत्ता हथियाने का उसका रास्ता समझौतावादी था। कांग्रेस अंग्रेजों से बार-बार समझौता करती थी, अंग्रेजों के आगे बार-बार झुकती थी। जनता बार-बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध करने सड़कों पर उतरती थी मगर कांग्रेस असहयोग और अहिंसा के रास्ते से आजादी प्राप्त करने के सिद्धांतों का वास्ता देकर उसे रोकती थी।
आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा अहम भूमिका क्रांतिकारी नौजवानों और छात्रों ने निभाई थी। सन~ सत्तावन की बगावत के बाद से ही उन्होंने खुद को अलग-अलग क्रांतिकारी दलों में संगठित करना शुरू कर दिया था। ऐसे संगठनों में युगांतर, अनुशीलन और हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ प्रमुख थे। क्रांतिकारी नौजवानों ने भारतीय जनता की संपूर्ण आजादी की मांग उठाते हुए अंग्रेजी साम्राज्यवाद पर तरह-तरह से हमले किए।
1917 में रूस में एक ऐसी क्रांति हुई जिसने मनुष्य का शोषण करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था का नाश करके समाजवादी समाज की स्थापना की। इस क्रांति का भारत के नौजवानों पर गहरा असर पड़ा। आजादी की लड़ाई में समझौतावादी कांग्रेस और उसके लीडरों के सामने कुछ ऐसे प्रतिब¼ क्रांतिकारी नौजवान भी थे जिनके विचारों की गर्मी और दूरगामी दृष्टि जनता को लगातार प्रेरित कर रही थी। इनमें आगे-आगे थे भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव और शहीदे-आजम भगतसिंह। भगतसिंह और उनके साथियों के विचार मेहनतकश जनता और नौजवानों में बड़ी तेजी से पैफल रहे थे। भगत सिंह और उनके साथियों के बाद देश में क्रांतिकारी ताकतों का एक ऐसा उभार आया जिसने किसानों और मजदूरों को संगठित करके तेलंगाना कृषक संग्राम जैसे महान आंदोलन को नेतृत्व दिया, जिसने समझौतावादी शक्तियों पर एक दबाव बनाए रखा और उसे देश की संपूर्ण जनता की पूरी आजादी की लड़ाई लड़ने पर मजबूर किया, जिसने पशोपेश में पड़ी जनता को प्रेरित किया कि वह भारत में रूस की तरह समाजवादी समाज के निर्माण के लिए आगे आए।
भगत सिंह को क्यों याद करें?
भगत सिंह और उनके साथियों के आगे इस बात का नक्शा एकदम साफ था कि आजादी के बाद का हिंदुस्तान कैसा होना चाहिए। वे हिन्दुस्तान से न सिपर्फ शोषण और दमन पर टिके अत्याचारी साम्राज्यवादी अंग्रेजों को भगाना चाहते थे बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे भारतीय महाजनों, जमींदारों और नए-नए उभर रहे पूंजीपति वर्ग के चंगुल से भी भारतीय जनता को मुक्त कराना चाहते थे। उनके सामने यह एकदम साफ था कि कांग्रेस व्यापारियों, सामंतों और पूंजीपतियों की पार्टी है। उसमें और उसकी नीतियों में इसी वर्ग के लोगों के हितों का वर्चस्व है इसलिए अगर आजाद भारत की सत्ता की बागडोर इसके हाथ में आई तो गरीब जनता को इससे कोई लाभ नहीं होगा, उल्टे वह साम्राज्यवाद के चंगुल से छूटकर पूंजीवाद के चक्के में पिसने लगेगी।
अप्रैल 1927 में अंग्रेज़ी सरकार दो दमनकारी काले कानून पास करना चाहती थी। अगर यह कानून पास हो जाते तो अंग्रेज़ी हकूमत को यह अधिकार मिल जाता कि वह किसी भी भारतीय को बिना कोई कारण बताए गिरÝतार कर सकती थी। इन कानूनों के पास हो जाने से ज्यादा नुकसान क्रांतिकारी ताकतों को होता। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बहरे सामzाज्यवादियों और भारतीय पूंजीपतियों को जनता की आवाज सुनाने और दमनकारी कानूनों के खिलापफ विरोध जाहिर करने के लिए असेंबली में बम पेंफका। यह बम जान माल को नुकसान न पहुंचाने वाला दिखावटी बम था यह बम इस तरीके से पेंफका गया था कि इससे किसी व्यक्ति को कोई नुकसान न हो। गौरतलब बात ये है कि इसी असेंबली में अनेक महत्वपूर्ण कांग्रेसी लीडर हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। जिस मंच पर कांग्रेसी लीडरों को इन दमनकारी कानूनों के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए थी वहां वे चुप थे।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेंबली में बम फैंके जाने की योजना पूर्व निर्धारित थी। ये क्रांतिकारी साथी कचहरी के मंच के जरिए कांग्रेस द्वारा अपने बारे में फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का खुलासा करना चाहते थे और जनता एक अपने विचार खुले व प्रमाणिक रूप से पहुंचाना चाहते थे। वे भागना चाहते तो भाग सकते थे मगर उन्होंने वहीं खड़े होकर साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद, इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाये, साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध में पर्चे बांटे और गिरफ्तारी दी। उन्होंने कचहरी में दिए अपने बयानों के जरिए जनता को क्रांति (इंकलाब), मेहनतकशों का राज और समाजवादी समाज के निर्माण के अपने कार्यक्रम से वाकिफ़ कराया। वे मानते थे कि भारत (राष्ट्र) केवल कांग्रेस के लाउडस्पीकर (कांग्रेस के नेता) नहीं हैं बल्कि वे मजदूर किसान हैं जो भारत की 95वें प्रतिशत आबादी हैं। इंकलाब का मतलब बताते हुए उन्होंने कहा कि इस सदी में क्रांति का केवल एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के द्वारा जनता के लिए राजनैतिक सत्ता हासिल करना। उनके लिए इंकलाब का अर्थ था- ऐसा इंकलाब जो ऐसी आजादी लाएगा जिसमें मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असंभव होगा। यह इंकलाब किस रास्ते से आएगा? इसके बारे में उन्होंने बताया कि बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की धार विचारों की सान पर तेज होती है। इंकलाब लाने के लिए उन्होंने खासतौर से नौजवानों को ललकारा और कहा कि नौजवानों ने इंकलाब का संदेश फैक्ट्रियों में काम कर रहे लाखों मजदूरों, झुग्गी-झोपड़ियों और देश के कोने-कोने में पहुंचाना है।
किसको मिली आजादी?
दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों की आर्थिक हालत काफी कमजोर हो गयी थी। भारत में चारों तफ से क्रांतिकारी जनांदोलनों का सैलाब उठ रहा था और भारतीय सेना भी छुटपुट तरीके से इनमें हिस्सा लेने लगी थी। अंग्रेज़ी हुकूमत इसका सामना करने को तैयार नहीं थी और न ही उनकी ऐसी हालत थी। साम्राज्यवाद का पूंजीवाद से चोली दामन का साथ होता है और साम्राज्यवाद पूंजीवाद के कंधों पर ही जीवित रह सकता है। इसलिए साम्राज्यवाद अंग्रेजों ने पूंजीवादी कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित करने का निश्चय किया। दूसरी ओर, कांग्रेस भी समझौते के लिए तैयार थी। बढ़ते हुए क्रांतिकारी जनांदोलनों को देखकर उसे डर था कि आजादी के आंदोलन की बागडोर उसके हाथों से छूट न जाए। इस प्रकार, सन 1947 में भारत को जब राजनीतिक आजादी मिली तो सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथ में थी।
आजाद भारत में नौजवान और आम जनता की दुर्दशा
कांग्रेस ने सत्ता अपने हाथ में आते ही हिंदुस्तान के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी माडल का चुनाव किया और उसी रास्ते पर देश को आगे बढ़ाया। आजादी की लड़ाई में जनवादी और क्रांतिकारी ताकतों ने भी हिस्सा लिया था और एक हद तक उसका दबाव भी बना हुआ था। इसलिए शासक वर्ग ने अपने आपको जनवादी और प्रगतिशील दिखाने के लिए पूंजीवादी माडल को समाजवादी मुलम्मे में पेश किया और सोवियत रूस की तर्ज पर सार्वजनिक औद्योगिक क्षेत्र व पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की। बाद में यह साबित हो गया कि समाजवादी मुलम्मा केवल दिखावा था। सार्वजनिक क्षेत्र को खड़ा करना उस वक्त की जरूरत थी क्योंकि भारतीय पूंजीपति वर्ग तब आर्थिक रूप से काफी कमजोर था और अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता था। इसलिए मेहनतकश जनता की कमाई पर खड़े किए सार्वजनिक क्षेत्र ने निजी क्षेत्र की सेवा की और उसे बढ़ने के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा किया। जैसे-जैसे निजी क्षेत्र मजबूत होता गया वैसे-वैसे सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर किया जाने लगा। अब तो हालत यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र को बीमार और गैर-मुनाफे का क्षेत्र घोषित करके उसे पूंजीपतियों के हाथों कौड़ियों के दाम बेचा जा रहा है। सार्वजनिक परिवहन सेवा, रेलवे, डाक-तार, विद्युत आदि इसी नीति के शिकार बनाए जा रहे हैं।
शासक वर्ग ने जिस हद तक जरूरी समझा सामंतवादी शक्तियों पर अंकुश लगाया। एक हद तक भूमि सुधार किए गए। सामंतवाद को खोखला करके बचे-खुचे हिस्से को अपना सहयोगी बना लिया। धीरे-धीरे शासकवर्ग का पूंजीवादी चरित्रप सामने आता गया। कहने को उसने हरित क्रांति, गरीबी हटाओ, सबको शिक्षा-सबको काम, विकास का बीस सूत्री कार्यक्रम जैसे नारे दिए मगर हकीकत में गरीब किसानों, मजदूरों, नौजवानों पर उसका शिकंजा कसता चला गया। शहादत से कुछ दिन पहले भगत सिंह ने अपने साथियों से कहा था कि अंग्रेजों की जड़ें हिल चुकी हैं। वे पन्द्रह साल में चले जाएंगे। समझौता हो जाएगा मगर इससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा। गोरे अग्रेजों की जगह काले अंग्रेज़ आ जाएंगे पर इससे गरीबों, मजदूरों और दलितों का कोई भला नहीं होगा।¸ आजाद भारत पर कांग्रेस ने लगातार कई दशकों तक शासन किया और अपनी पूंजीवादी नीतियों को अमल में लाकर जनता की हालत बद से बदतर कर दी।
भारतीय शासक वर्ग ने नित नयी नीतियां बनाकर कभी विकास के नाम पर, कभी पर्यावरण के नाम पर गरीबों पर तरह-तरह के कहर ढ़ाए हैं। गरीबों को हर जगह ठोकरें मारी गयी है। विकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध व बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनाकर लोगों को व्यापक पैमाने पर उजाड़ा गया है। बड़े-बड़े शहर बसाए गए, रोजगार के सारे अवसर भी शहरों में केन्द्रित किए गए जिससे मजबूरन रोजगार की तलाश में लाखों की तादात में लोगों को पलायन करके शहरों में आना पड़ा है। रोजगार के नाम पर लोगों को कारखानों का धुंआं और आवास के नाम पर तंग झुग्गी बस्तियों और फुटपाथ मिले। जिनको यह भी नहीं मिला वे बेवसी और लाचारी में दिन गुजारने को मजबूर हुए।
पिछले कुछ सालों से नई आर्थिक नीति के तहत वे शासक वर्ग ने शिक्षा जैसी मूलभूत नागरिक सुविधा से हाथ खींचना शुरू कर दिया। यह शासक वर्ग की अपनी ही चाल थी कि इसने शिक्षा को मौलिक अधिकार कभी माना ही नही और न ही इस क्षेत्र में उसने ज्यादा सक्रियता ही दिखाई है। शुरू से ही शासक वर्ग ने पूरे बजट का बहुत ही कम हिस्सा शिक्षा में लगाया और धीरे-धीरे इसमें कटौती करता गया। शिक्षा पर खर्च होने वाला पूरे बजट का 6 प्रतिशत खर्च अब 2 प्रतिशत पर आ गया है। शिक्षा के निजीकरण के कारण गरीब और पिछड़े बच्चों को स्कूल नसीब ही नहीं हो रहा है। वैसे भी प्राथमिक कक्षा में अगर 100 बच्चे दाखिला लेते हैं तो कालेज तक आते-आते केवल दो ही रह जाते हैं। आधे से ज्यादा बच्चों को स्कूल से बाहर धकेल दिया जाता है। माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा इतनी मंहगी कर दी गई है कि गरीब बच्चों तक इसकी पहुंच ही नहीं है, पढ़ना-लिखना तो दूर की बात है।
आज देश भर में बेरोजगारों की संख्या अठारह करोड़ से भी ज्यादा है और इस संख्या में लगातार बढ़ोतरी ही हो रही है। शिक्षा और रोजगार का कोई सीधा तालमेल नहीं है। आजादी के बाद से ही रोजगार की गारंटी का कोई ठोस प्रयास शासक वर्ग ने नहीं किया है। जो थोड़े-बहुत प्रयास किए भी गए वे एकदम ढीले ढाले तरीके से किए गए। इस देश में अभी भी इतने संसाधन हैं कि हरेक आदमी को रोजगार मुहैया करवाया जा सकता है मगर सरकार जान बूझकर बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। बेरोजगारी का सबसे ज्यादा असर युवाओं पर होता है। बेरोजगारी की अवस्था युवाओं की प्रगतिशील चेतना और क्रांतिकारी क्षमता को कुन्द करती है। युवाओं में लड़कियों और महिलाओं को तो रोजगार की दौड़ में शामिल ही नहीं किया जाता है। बेरोजगार और आर्थिक रूप से गुलाम युवतियों और महिलाओं का भरपूर शोषण किया जाता है। उन पर तरह-तरह के तरीकों से अत्याचार किया जाता है। युवा वर्ग सुरक्षा और आत्मविश्वास के अभाव में अंधियारी गलियों में भटकने को मजबूर होता है। शासक वर्ग युवा वर्ग को अपना पालतू बनाने के लिए उसे ऐसी अवस्था में रखने के लिए बेरोजगार रखने की नीति अपनाता है ताकि वह सर उठाकर न जी सके, अन्याय को चुपचाप सहता रहे और शासक वर्ग के खिलाफ आवाज़ न बुलंद कर सके।
इधर अपनी आर्थिक हालत कमजोर होते देख भारतीय पूंजीपति वर्ग ने विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों से हाथ मिलाया है और उनसे आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव लाने शुरू कर दिए हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद ने अपनी कार्यशैली में लगातार बदलाव किए हैं। आज यह अपना पुराना उपनिवेशी चोला काफी हद तक बदल चुका है। विश्व साम्राज्यवाद ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकासशील देशों और खासकर तीसरी दुनिया के देशों में अपनी पैठ बना रहा है। भारतीय आर्थिक विकास की रेलगाड़ी आजकल वैश्विक साम्राज्यवाद की जिस पटरी पर चल रही है उससे एक ओर पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ा है तो दूसरी ओर जनता के शोषण में तेजी आई है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का असर सबसे ज्यादा नौजवानों पर पड़ा है। साम्राज्यवादी संस्कृति ने भारतीय युवाओं को सांस्कृतिक पतन की कगार पर ला खड़ा किया है। आज वह अपनी असली समस्याओं को पहचान इनके खिलाफ आवाज़ उठाने की बजाए साम्राज्यवाद द्वारा फैलाई जा रही विभ्रम और मोह से पूर्ण संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहा है।
सत्ता के चटखारे लेती अवसरवादी राजनीतिक पार्टियां
आज यह बात साबित हो चुकी है कि भारत की तमाम बुर्जुआ पार्टियों का चरित्र एक सा ही है। आज न सिर्फ कांग्रेस बल्कि भारतीय जनता पार्टी, समता पार्टी, जनतादल आदि सभी पार्टियां पूंजीपति वर्ग के हितों की ही रक्षक हैं। ये पूंजीपतियों से प्राप्त धन पर चलने वाली पार्टियां गरीबों व दलितों के विकास की बात जरूर करती हैं मगर हकीकत में ये साम्प्रदायिकता और जातियता के नाम पर मेहनतकश जनता की एकता को खंडित करने का प्रयास करती रहती हैं ताकि पूंजीवादी शोषण बदस्तूर जारी रह सके। देश की जनता अब समझ चुकी है कि सारी की सारी पार्टियां अवसरवादी हैं और सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती हैं। पार्टी संगठनों में पदों का लालच देकर व युवा वर्ग के हित में नीतियां बनाने का वायदा करके युवा वर्ग को सभी पार्टियां अपने हित के लिए इस्तेमाल करती हैं मगर हकीकत में युवा वर्ग की वास्तविक समस्याएं इनके अजंडे पर केवल दिखावा हैं। वोट मांगने के लिए रचा गया ढोंग है।
आज का भारत
आज देश में चारों तरफ बदहाली है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी फैल रही है। सरकारी आंकड़े गरीबों की संख्या को लगातार कम करके दिखाते हैं। मगर हकीकत में लोग इतने गरीब हैं कि अपने बच्चे तक बेचने को मजबूर हो रहे हैं। सरकारी सहायता के अभाव किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मंहगाई ने गरीबों और मजदूरों की कमर तोड़ डाली। रोज़मर्रा की आम जरूरत की चीजों की कीमतें इतनी बढ़ रही हैं कि आम आदमी इन्हें खरीद नहीं पाता है। बाजार में कार, टी.वी., फ्रिज आदि की भरमार है। कोने-कोने पर पेप्सी और कोका कोला बिक रही हैं मगर लाखों लोगों को पीने का पानी तक नहीं मिल पा रहा है।
शिक्षा इतनी मंहगी है कि आम परिवारों के बच्चे यहां तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। करोड़ों लोगों को अपने ही देश में रहने को घर नहीं है जो फुटपाथ और झुग्गी बस्तियों में सर छुपा कर जी रहे हैं वहां लाखों लोगों को शहरीकरण और सुन्दरता के नाम पर बड़ी तादात में उजाड़ा जा रहा है। इसके बावजूद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बड़ी तादात में सस्ते दामों पर भारत के कोने-कोने में जमीन देकर बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कम आदमियों की जरूरत वाली तकनीक के साथ बड़ी संख्या में भारत की सरजमीन पर उतर रही हैं और सरकारें उनके कदम चूम रही हैं। सरकारी नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह गया है। कारखानों को, पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए सुंदरता के नाम पर, बंद किया जा रहा है और उनमें 10-15 सालों से काम कर रहे मजदूरों को लाखों की संख्या में निकाला जा रहा है। आजाद भारत में भी आम जनता का पेट खाली है, तन नंगा है और सर पर छत नहीं है। क्या ऐसी आजादी के लिए मेहनतकश जनता और नौजवानों ने अपना खून-पसीना बहाया था। भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी नौजवानों ने क्या ऐसे आजाद भारत का सपना देखा था?
नौजवान का रास्ता
इन हालातों का असर सबसे ज्यादा युवा वर्ग पर पड़ रहा है उसे न सही शिक्षा मिल पा रही है, न रोजगार। वह लगातार उदासी और निराशा के शिकंजे में जीने को मजबूर हो रहा है। उसको कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है इसलिए वह अवसरवाद और स्वार्थ से भरी अंधेरी सुरंग में भटक रहा है।
आज हमारा देश एक संकट के दौर से गुजर रहा है। चारों तरफ शोषण और दमन का राज कायम है। हम जानते हैं कि नौजवानों में असीम ताकत है, जोश है और कुछ कर गुजरने की ललक है। इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जब युवाओं ने ही संकट की घड़ी में संघर्षशील जनता को प्रेरणा दी है। उसने हमेशा अन्याय के खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ी है और दुनिया बदल कर रख दी है। नौजवानों में त्याग और बलिदान की भावना तीव्र होती है। वे मानवता के भले के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। हम आपकी इसी ताकत को ललकारते हैं।
आज चारों तरफ, युवाओं में व्यक्तिवादी, अवसरवादी और अलग-अलग रहने की मानसिकता छाई हुई है। यही मानसिकता उसकी शोषण के खिलाफ, लड़ने की ताकत को कम करती है। शासक वर्ग भी यही चाहता है कि नौजवान अवसादों से घिरा रहे ताकि वह अपनी मनमानी बेरोक टोक चलाए रख सके। केवल और केवल नौजवान ही उसके शोषण के पहिए को जाम कर सकता है। आइए, हम अवसरवाद और व्यक्तिवाद को त्याग कर चुप रहने के इस खोल से बाहर निकलें। जरा समाज और दीन-दुनिया के बारे में भी सोचें। सिर्फ खुद में बदलाव लाने, खुद को अच्छा बनाने से ये समाज, देश और दुनिया अच्छे नहीं हो जाएंगे। गुलामी के सभी बंधनों को तोड़ते हुए, खुद को बदलने के साथ-साथ समाज और दुनिया को भी बदलना पड़ेगा।
भगतसिंह ने कहा था कि अगर कोई सरकार जनता को उसके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दे तो उस देश के नौजवानों का यह कर्तव्य ही नहीं बल्कि अधिकार भी बन जाता है कि ऐसी सरकार की सत्ता को पलट दे। भगतसिंह ने ही कहा था कि नौजवान खुद संगठित होकर और जनता को जागरूक व एकजुट करके ही ऐसी दुनिया बसा सकते हैं जिसमें आदमी, आदमी का शोषण न कर सके।¸ जिस पूंजीवादी व्यवस्था में हम जी रहे हैं वह ही हम सबकी मुसीबतों की जड़ है। पूंजीवादी व्यवस्था का जवाब संगठन, जनवाद और समाजवाद ही हो सकता है। हम संगठित होकर ही इस अत्याचारी पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ सकते हैं और अपने आक्रोश को संघर्ष और निराशा को आशा में बदल सकते हैं।
प्रगतिशील युवा संगठन
प्रगतिशील युवा संगठन पिछले कुछ सालों से दिल्ली के कई इलाकों में युवाओं के साथ रचनात्मक कामों में लगा हुआ है। दसवीं-बारहवीं के छात्रों के लिए नि:शुल्क कक्षाएं चलाना, पुस्तकालय चलाना, पाठय पुस्तकें एकत्रित करके गरीब बच्चों में उनका वितरण करना, नि:शुल्क औषधालय चलाना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना व आम मुददों पर संघर्ष करना आदि गतिविधियों में संगठन सक्रिय है। हमारे आगे भगतसिंह और उनके साथियों की सोच है और एक ऐसी दुनिया बसाने का सपना है जिसमें कोई भूखा व नंगा ना रहे, किसी का शोषण न हो। आइए, कंधे से कंधा मिलाकर अपनी और अपनी जनता की लड़ाई में शामिल हों और भगतसिंह और उनके साथियों के आजादी के सपने को सच में बदल दें।
इंकलाब-जिन्दाबाद 1996
सांस्कृतिक कर्म को व्यापक धरातल पर परिभाषित करने की ओर
मुकेश मानस
हमारे देश में छोटे-बड़े सैकड़ों सांस्कृतिक संगठन मौजूद हैं। राजनीति और संस्कृति के बारे में उनकी समझ के रंग, मानदंड और आधार भी भिन्न हैं। इतनी विविधता के बावजूद सभी संगठन अपना उददेश्य जन-जन को जागृत करना ही बताते हैं। इतने सांस्कृतिक संगठनों के प्रयासों के बावजूद समाज में कोई सांस्कृतिक उत्थान नजर नहीं आता। हालत ये है कि लोगों के सांस्कृतिक पतन का नारा भी यही संगठन लगाते हैं। इस स्थिति को देखकर किसी भी समझदार और संवेदनशील आदमी को यह समझने में देर नहीं लगनी चाहिए कि कहीं न कहीं इस पूरे परिदृश्य में ही कोई न कोई गड़बड़ जरूर है।
आजकल ऐसे संगठनों की कमी नहीं है जो राजनीति और संस्कृति को अलग-अलग चीजें मानते हैं। इनके लिए राजनीतिक कर्म एक बात है तो सांस्कृतिक कर्म दूसरी। दोनों में कहीं मेल-मिलाप नहीं। इस तरह के संगठनों में से अधिकतर सरकारी संगठन हैं। इनके पास अकूत आर्थिक स्रोत व सुविधाएं हैं। इसके बावजूद इनका कर्म क्षेत्रा एकदम सीमित और संकुचित है। इस तरह के संगठन अपने कामों के ज़रिए लोगों की रूढ़ियों को और बढ़ाने व उनकी समझ को और भोंथरी करने का ही काम करते हैं। कहीं-कहीं इनकी भूमिका प्रगतिशील भी होती है किन्तु अपने समग्र रूप में इनकी भूमिका सरकारी प्रचारतत्र का हिस्सा बने रहने की ही है। यह एक सच्चाई है कि जिस सांस्कृतिक संगठन ने एक ज़माने में दहेज विरोधी प्रचार किया था उसी ने राजस्थान के गांवों में घूम-घूमकर परमाणु बम के समर्थन में नाटक किए।
दरअसल, इस तरह के सांस्कृतिक संगठन सरकार और सरकारी मशीन के पुछल्ले होते हैं। वे सांस्कृतिक कर्म को सरकार की नीतियों और कार्यों की प्रशंसात्मक नाटयात्मक, काव्यात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति मानते हैं। जिस प्रकार की विचारधारा और राजनीति वाली सरकार देश की गददी पर बैठती होती है वे उसी प्रकार की मानसिकता से लैस संस्कृति का प्रचार करने लगते हैं। इनको जनता की उन मुसीबतों से कोई मतलब नहीं होता जो अंतत: सरकार की गलत नीतियों के परिणामस्वरूप उसको झेलनी पड़ती हैं। इसलिए अपने समग्र परिणाम के रूप में यह संगठन जन विरोधी ही साबित होते हैं।
आज नज़र उठाकर देखें तो अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों से जुड़े सांस्कृतिक संगठन भी बहुत नजर आएंगे। हर पार्टी का अपना एक सांस्कृतिक संगठन दिखाई देता है जो उस पार्टी की विचारधारा और तंत्र से जुड़े होते हैं। वास्तव में ये पार्टी की उपशाखा के रूप में काम करते हैं। इनका मुख्य काम पार्टी की विचारधारा, नीतियों और कायो± का प्रचार करना होता है। आम जनता और सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली साम्यवादी राजनीतिक पार्टियों के भी लेखक व सांस्कृतिक संगठन मौजूद हैं। साम्यवादी राजनीतिक विचारों से लैस यह संगठन भी आज मौजूदा सांस्कृतिक ठहराव को तोड़ पाने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं। ये भी लोक संस्कृति और जनचेतना के संवाहक नहीं बन पा रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की भूमिका काफी संघर्षशील रही किन्तु आजाद भारत में यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उपशाखा के रूप में काम करने लगा। पार्टीगत नीतियों से संचालित होने के कारण यह धीरे-धीरे संकुचन का शिकार होकर बिखर गया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से संबंध सांस्कृतिक संगठन ने भी आजाद भारत में को व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा। इसने लोगों की चेतना विकसित करने और उसे जुझारू रूप प्रदान करने में काफी मेहनत की। किन्तु यह भी पार्टी की संकीर्ण नीतियों में फंसकर कमजोर होता गया। यह भी देखने में आता है कि इन संगठनों में व्यापक सांस्कृतिक कर्म की दृष्टि वाले लोकप्रिय सांस्कृतिक कर्मियों को नेतृत्व के शीर्ष पर रखने की बजाय ठेठ राजनीतिक कर्मियों को रखा जाता है जिससे सारा का सारा सांस्कृतिक क्षेत्र पार्टी की राजनीति से संचालित होने लगता है और सांस्कृतिक कार्य महज राजनीतिक मुहावरों का शिकार होता चला जाता है।
देखने में यह भी आता है पार्टियों से जुड़े और पार्टियों के लीडरों के ऐसे संगठनों के नेतृत्व के शीर्ष पर होने से सांस्कृतिक महज उत्सवधर्मी होता जाता है। विभिन्न विशेष दिवसों पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं और जीवन के अनेक पहलुओं पर सांस्कृतिक कर्म की आवश्यकता की उपेक्षा की जाती है। राजनीति को सीधे-सीधे लोगों तक पहुंचाना ही ये सांस्कृतिक कर्म का उददेश्य मानते हैं। इसलिए राजनीतिक मुहावरे उन तक सीधे-सीधे पहुंचाए जाने के कलात्मक प्रयास ही सांस्कृतिक कर्म की इतिश्री मान लिए जाते हैं। यह भी अजीब विडम्बना ही है कि जो लोग नाटक में किरदार निभाते हैं, वही राजनीति भी करते हैं। वही इनकी पत्रिकाओं के सम्पादक भी होते हैं। नतीजतन, साम्यवादी विचारों को जीवन के विभिन्न संदर्भों में पिरोकर पेश करने वाले, उन्हें व्यापक धरातल पर प्रस्तुत करने वाले कवि, लेखक, गायक, चित्रकार और नाटयकर्मी इन संगठनों में सामने नहीं आ पाते हैं। यदि दिखते भी हैं तो अधकचरे और अपूर्ण रूप में, जिन्हें न राजनीति की सही समझ होती है और न संस्कृति की।
राजनीति संस्कृति से अलग नहीं होती किंतु सांस्कृतिक कर्म में राजनीतिक उददेश्यों की पूर्ति के लिए ज्यादा व्यापक और गहरे धरातल की आवश्यकता होती है। संस्कृति राजनीति से आगे-आगे चलकर लोगों को उसके आने की खबर देती है और लोगों को प्रेरित करती है कि वे राजनीति को अपने जीवन में गहराई से रेखांकित करें। सांस्कृतिक कर्म को पार्टी संगठन की सीमाओं के भीतर कैद नहीं करना चाहिए और जब-जब ऐसा किया जाता है सांस्कृतिक कर्म सीमित और संकुचित होता जाता है। जिससे राजनीतिक विचारों का प्रचार-प्रसार भी सीमित और संकुचित होता जाता है। परिणामस्वरूप, जनवादी मूल्यों और जन संस्कृति के सम्वाहक कहे जाने वाले संगठन और उनके विचार ठहराव के शिकार हो जाते हैं। आज ऐसे कितने ही जनवादी और प्रगतिवादी संगठन ठहराव के शिकार हो चुके हैं या हो रहे हैं। स्थिति ये है कि इन संगठनों की पहुंच लोगों तक नहीं है और न ही इन्हें आम जनता की वास्तविक स्थिति का अंदाज है। सब के सब अंधे होकर जन संस्कृति के हाथी के अलग-अलग हिस्सों को महसूस कर पूरे हाथी को समझने का भ्रम पाले हुए हैं। आज की दुनिया में चीजें तेजी से बदल रहीं है। कहा जा रहा है कि विदेशी संस्कृति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जरिए भारतीय संस्कृति को प्रभावित कर रही है। विदेशी टी.वी. चैनलों के जरिए पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति पर हावी हो रही है। दूसरी तरफ सामंती अवशेष और पूंजीवादी विकास भी कुसंस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। इस स्थिति में भारतीय संस्कृति में तेजी से हो रहे इन बदलावों को फार्मूलाबद्ध तरीके से न तो समझा जा सकता है। किन्तु विडंबना ये हैं कि हमारे देश की साम्यवादी पार्टियों के बुद्धिजीवी भी फार्मूलाबद्ध तरीके से ही हर समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं।
आज सांस्कृतिक कर्म धुंधलेपन और ठहराव के जिस मोड़ पर खड़ा है उसका समाधान फार्मूलों से नहीं निकलने वाला है। इसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में सांस्कृतिक रूझान पैदा करने के लिए छोटे-छोटे सैकड़ों आंदोलनों की उपस्थिति की जरूरत है। सांस्कृतिक कर्म को कविता, नाटक में ही सीमित करके देखने की बजाए जीवन के समूचे संदर्भों में व्यापक रूप में देखने की आवश्यकता है। बदलती हुई दुनिया में सांस्कृतिक कर्म का असली मर्म समझने के लिए नयी आंखों की आवश्यकता है। जनता के पास एकदम निखालिस स्लेट के रूप में जाना पड़ेगा। अन्तरों को पहचानना और उनको भरने का प्रयास करना पड़ेगा। इस ठहराव को समझकर उसे तोड़ने की कोशिश करना ही वास्तविक सांस्कृतिक कर्म होगा। यह निश्चित है कि आगे आने वाले समय में सही सांस्कृतिक कर्म की भविष्य के राजनीतिक कर्म की व्याख्या करेगा और उसे मजबूती देगा।
2000
प्रेम मनुष्य को ज्यादा मानवीय और प्रगतिशील बनाता है
मुकेश मानस
1
प्रेम को प्राय: स्त्री-पुरुष के बीच बनने वाले संबंध के रूप में ही देखा समझा जाता है। आज भी बहुतों के लिए प्रेम का एक ही अर्थ है- स्त्री-पुरुष का प्रेम। और स्त्री-पुरुष के बीच होने वाले प्रेम के रास्ते में भी प्राय: बहुत सी चीजें रुकावट बनती हैं जैसे जात-पात, अमीरी गरीबी, रूप-रंग। लेकिन प्रेम इन सभी चीजों को नकारता है, इनका विरोध करता है। इस मायने में प्रेम के आधार पर बनने वाला संबंध एक प्रगतिशील संबंध होता है। यानी प्रेम एक प्रगतिशील शक्ति है जो सभी नकारात्मक विचारों और तत्वों का विरोध करती है।
2
प्रेम व्यक्ति का जनवादीकरण, लोकतांत्रीकरण करता है। जिस क्षण आप में अपने से अलग किसी दूसरी वस्तु, व्यक्ति से प्रेम की भावना जाग्रत होती है उसी क्षण आपका जनवादीकरण होना शुरू हो जाता है। जैसे प्रकृति से मनुष्य का एक नैसर्गिक लगाव होता है लेकिन जैसे ही मनुष्य के भीतर प्रकृति के प्रति प्रेम जाग्रत होता है वैसे ही वह खुद को प्रकृति का और प्रकृति को खुद का हिस्सा समझने लगता है। जैसे ही मनुष्य के भीतर किसी दूसरे मनुष्य के लिए प्रेम जाग्रत होता है वह खुद को दूसरे मनुष्य का और दूसरे मनुष्य को खुद का हिस्सा समझने लगता है। प्रेम ही के कारण एक मनुष्य दूसरे के लिए अपने अहम का त्याग करता है। त्याग प्रेम की एक जरूरी शर्त है। बिना अपने अहम का त्याग किए, आप किसी से प्रेम नहीं कर सकते। अहम को घटाकर अपने भीतर मनुष्यता का विस्तार करते जाना प्रेम है। इसीलिए कहा गया है कि प्रेम मनुष्य को मांजता है, मनुष्य को मनुष्य बनाता है। इस दार्शनिक सी लगने वाली शब्दावली से बाहर आकर कहें तो प्रेम मनुष्य ज्ञनवादी बनाता है, मनुष्य को लोकतांत्रिक बनाता है। प्रेम सही मायनों में मनुष्य को आधुनिक बनाता है।
3
प्रेम व्यक्ति का ही नहीं परिवार, समाज, देश और विश्व का भी जनवादीकरण करता है। पश्चिम के तथाकथित उन्नत समाजों में परिवारों में काफ़ी हद तक जनवाद है। परिवारों में सामंती जकड़न नहीं है। एक-दूसरे के प्रति प्रेम के कारण ही पति-पत्नी, माता-पिता, बेटा-बेटी को अलग-अलग समयों और स्थितियों में अपने वर्चस्व का त्याग करना पड़ता है। एक-दूसरे से प्रेम ना होने पर पारिवारिक रिश्ते सामंती जकड़न और तानाशाही के शिकार हो जाते हैं। दरअसल प्रेम मनुष्य को दूसरे मनुष्यों को अपने बराबर समझना और उनका सम्मान करना सिखाता है। इसी मायने में प्रेम व्यक्तिवाद और व्यक्तिवादी हितों पर प्रहार करता है। व्यक्तिवाद के खोल से बाहर आकर मनुष्य समाज देश और विश्व की सीमाएं लांघ जाता है। प्रेम से भरा मनुष्य खुद से ही नही, अपने रिश्तेदारों से ही नहीं, अपने समाज-देश से ही नहीं बल्कि समूचे विश्व और विश्व भर के मनुष्यों से प्रेम करने लगता है। इस तरह उसका वैयक्तिक और वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रीकरण होता है। व्यक्ति का वैश्विक स्तर पर होनेवाला यह लोकतांत्रीकरण उसे विश्व समुदाय के अधिकारों और उनके प्रति उसके कर्तव्यों का बोध कराता है। यह प्रेम ही है जो एक राष्ट्र के मनुष्यों को दूसरे राष्ट्रों के मनुष्यों के प्रति सचेत बनाता है। इस तरह वे किसी भी स्तर पर किसी के भी द्वारा की जानेवाली हिंसा, युद्धोन्माद का विरोध करने को तत्पर हो जाते हैं।
4
प्रेम हर समय और हर समाज में एक प्रगतिशील मूल्य है। प्रेम का वास्तविक आधार है- समानता। यानी दूसरे को अपने बराबर समझना। दो असमान स्थितियों वाले व्यक्तियों के बीच प्रेम के कुछ बिंदु हो सकते हैं परन्तु प्रेम नहीं हो सकता है। प्रेम तो सदैव बराबरी के धरातल पर ही फलता-फ़ूलता है। प्रेम इसीलिए एक प्रगतिशील मूल्य है क्योंकि प्रेम जाति, धर्म, आयु, रूप-रंग, आर्थिक हैसियत कुछ नहीं देखता। प्रेम एक ऐसे समाज का यूटोपिया रचता है जिसमें कोई छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा या अमीर-गरीब नहीं होता। जिसमें व्यक्ति व्यक्तिवाद और व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं का शिकार होकर दूसरों का शोषण नहीं करता है।
5
अगर हम हिन्दुस्तानी समाज पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह मूलत: जातियों के आधार पर मनुष्यों को विभाजित करके रखने वाला समाज है। जाति के आधार पर मनुष्यों का विभाजन इस समाज की सबसे कड़वी सच्चाई है। डा. अम्बेडकर ने कहा था कि जाति व्यवस्था श्रम का ही विभाजन नहीं करती है, यह श्रमिकों का विभाजन भी करती है। हिन्दुस्तानी समाज में जाति एक ऐसी चीज है जो हर स्तर पर दो प्रेम करने वालों के रास्ते में रूकावट डालती है। दो भिन्न जातियों के लड़के-लड़कियों के बीच पैदा होने वाला प्रेम यहां अक्सर हिंसा, हत्या आदि का शिकार होता है। भिन्न जातियों के दो प्रेम करने वालों के रास्ते में सामंती मानसिकता तमाम रोड़े अटकाकर उसे समाप्त करने की कोशिश करती है। (केस स्टडी : नरेला, करनाल)
6
आज समाज इन सामंती और पूंजीवादी मानसिकताओं का शिकार है। जाति, धर्म और आर्थिक हैसियत से उत्पन्न ये सामंती और पूंजीवादी मानसिकताएं प्रेम के रास्ते में रूकावटें पैदा करती हैं। प्रेम इन तमाम चीजों का विरोध करने के कारण ही एक प्रगतिशील मूल्य है। आज के इस समाज में प्रेम हमें चौंकाता है। वह एक अपवाद की तरह सामने आता है किन्तु कल जब ये चीजें समाज में नहीं रहेंगी तब प्रेम का न तो विरोध ही होगा और न वह हमें चौंकाएगा ही। तब वह एक बेहद सरल और स्वाभाविक मानवीय स्वाभाव बन जाएगा। लेकिन आज तो ये तमाम बेड़ियां ही हमारे समाज की सच्चाईयां हैं इसीलिए प्रेम इन बेड़ियों का विरोध करता है।
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि मानवीय परिष्कार और मानवीय गरिमा को बचाए रखने की राह में प्रेम एक अनिवार्य शर्त है। प्रेम ही वो चीज है जो मनुष्य को ज्यादा मानवीय और प्रगतिशील बनाता है।
2006
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