Literary Papers

हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन : कुछ सवाल, कुछ विचार

अछूत: दलित जीवन का अन्तर्पाठ

दलित साहित्य आंदोलन के पक्ष में

 

हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन : कुछ सवाल, कुछ विचार

मुकेश मानस

 

यूं तो हिन्दी में दलित साहित्य की बुनियाद के तौर पर कबीर, दादू, रैदास, पीपा, सेन, रविदास आदि का नाम चिन्हित किया जा चुका है और दलित साहित्य के प्रणेता दलित साहित्य के संदर्भ में उन पर दलित दृष्टिकोण से अनुसंधान में लगे हुए हैं किन्तु आधुनिक दलित साहित्य की शुरुआत मराठी भाषा में रचित साहित्य से मानी जा रही है जिसकी प्रेरणा की पृष्ठभूमि में संतकवि नामदेव, चोखामिला, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास, तुकाराम, एकनाथ आदि हैं।

 

आधुनिक दलित साहित्य आंदोलन ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले और डा. अम्बेडकर द्वारा चलाए गए सशक्त सामाजिक आंदोलन के परिणामस्वरूप उभरा है। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने पहले पहल दलितों की खासतौर से दलित स्त्रियों की शिक्षा का आंदोलन चलाया। उन्होंने दलितों के उत्थान और सामाजिक सम्मान के लिए स्वयं पर अनेकानेक अत्याचार सहकर भी जागृति की एक लहर पैदा की। डा. अम्बेडकर ने उनके द्वारा तैयार जमीन पर व्यापक दलित चेतना के बीज बोये और परिणामस्वरूप, उनके जीवन काल में ही सशक्त सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक दलित आंदोलन अस्तित्व में आया। इस आंदोलन की जबरदस्त अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय साहित्य के दृश्य पटल पर दलित साहित्य उपस्थित हुआ और सतह पर दिखाई पड़ने लगा। जल्द ही इसका प्रभाव हिंदी भाषा पर भी पड़ा। आज वर्तमान हिंदी साहित्य में दलित लेखन के उभार और उसके निरंतर विकास से इंकार नहीं किया जा सकता है। दलित साहित्य के इस जबरदस्त उभार ने भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों और आलोचकों में एक हलचल पैदा कर दी है जिससे उनका ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है। किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि स्वयं दलित साहित्य आंदोलन और दलित रचनाकारों को वैचारिक स्तर पर अनेक अन्तरनिहित अन्तर्विरोधों का सामना भी करना पड़ रहा है।

 

जाति से दलित ही दलित साहित्यकार है

 

इस प्रस्थापना के अनुसार किसी साहित्यकार को दलित साहित्यकार होने के लिए यह अनिवार्य है कि वह दलित जाति में पैदा हुआ हो। किन्तु अभी भी यह मसला काफी बहस की गुंजाईश रखता है कि आखिर दलित कौन है? दलित साहित्य की मुख्यधारा के चिंतकों का मानना है कि दलित साहित्यकार वही है जो जाति से दलित है। वे दलित साहित्य को व्यापक अर्थों में न देखकर दलित जाति के संदर्भ में ही देखते हैं किन्तु वहां भी दलितशब्द की व्याख्या को लेकर अस्पष्टता है। वे दलितों में उभर रहे अभिजातीय व शोषक वर्ग के उभार को दरकिनार ही करते आ रहे हैं किन्तु दलित साहित्य के चिंतकों की दूसरी धारा दलित शब्द के व्यापक अर्थ लगाती है। उनका मानना है कि किसी भी जाति या धर्म से संबंध रखने वाला व्यक्ति अगर सामाजिक और आर्थिक रूप से शोषित है तो उसे भी दलितों की एक श्रेणी के रूप में ही रेखांकित किया जाना चाहिए। आज दलितों में, खासतौर से कस्बों, नगरों और महानगरों में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसने गुणात्मक रूप से अच्छी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में जन्म लेने के कारण जातीय उत्पीड़न को बिल्कुल नहीं झेला है। इस प्रकार का दलित अन्य अमीर तबकों की तरह न सिर्फ दलितों का दुश्मन साबित हो रहा है अपितु स्वयं दलितों में ही शोषकों की एक श्रेणी को संभव बना रहा है। वह वास्तव में सत्ता का दलाल है। ऐसा दलित अगर सभी दलितों की पीड़ा को जानने, समझने और महसूस करने का दावा करता है तो इसे दलित विमर्शकार ही तय करें कि यह कितना उचित है।

 

अगर इस अभिजातीय और शोषक दलित को दलित साहित्य का प्रणेता माना जा सकता है तो किसी अन्य जाति में पैदा हुआ दलितवादी जनवादी लेखक को क्यों नहीं? क्या उसे दलितों का समर्थक केवल इसलिए नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उसने दलित जाति में जन्म नहीं लिया है। यही आधार गौतम बुद्ध के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। गौतम बुद्ध ने राजघराने में जन्म लिया और दलित जाति से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं था। लेकिन अपने त्याग और दलितवादी चिंतन के आधार पर वे दलितों के मसीहा बने। गौतम बुद्ध ने सभी पीड़ितों को अपने दामन में पनाह दी और उनके विहारों में अन्य जातियों के गरीबों को भी बराबरी का दर्ज़ा मिला। इसके अतिरिक्त इन्हीं विहारों में राजा, सामंत और व्यापारी लोग भी आते रहे। दलितों के जीवन की विसंगतियों पर व्यापक चिंतन और सृजन करने वाले महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए किंतु उनके प्रति दलित विचारकों का नज़रिया काफी तंग है।

 

जाति के आधार के संदर्भ में उन दलितों का सवाल भी उठाया जा सकता है जो धर्मान्तरण करके अन्य धर्मों में जा चुके हैं। उन धर्मों में हिंदू धर्म के विपरीत वहां उन्हें सैद्धांतिक तौर पर जाति के आधार पर छुआछात या भेदभाव नहीं झेलना पड़ा है। जातीय उत्पीड़न से मुक्ति के दलितों ने अनेक मार्ग खोजे हैं जिनमें दूसरे धर्मों में धर्मातरण भी एक प्रचलित तरीका रहा है। बुद्ध धर्म के साम्यवादी स्वरूप ने पहले पहल दलितों को अपनी ओर आकर्षित किया और हजारों दलित बौद्ध बने। इसी प्रकार जैन, इस्लाम, ईसाई, सिख व आर्य समाज आदि धर्मों में दलित धर्मातरण करके जाते रहे हैं। ऐसे लोग जिस साहित्य का सृजन करेंगे उसे किस आधार पर दलित साहित्य माना जाएगा। क्योंकि न तो वहां मनुवादी वर्ण व्यवस्था है न जाति के आधार पर दलित उत्पीड़न।

 

इसके अतिरिक्त यहां एक सवाल और जरूरी लगता है भले ही उसकी संभावनाएं कम हों। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हर प्रकार का साहित्य कर्म अपने बुनियादी रूप में शोषण विरोधी और व्यापक अर्थों में सत्ता विरोधी होता है। वह समाज में व्याप्त बुराइयों की आलोचना करता है और सुखद~ मानवीय परिस्थितियों वाले समाज के निर्माण के लिए लोगों में जागृति और चेतना का प्रसार करता है। इसे विपरीत समाज में जन विरोधी या प्रगतिशील मूल्य विरोधी और सत्तापक्षी साहित्य भी खूब रचा जाता है। मान लीजिए कोई दलित साहित्यकार सत्ता के समर्थन और दलितों के विरोध में रचना करे तब क्या ऐसे साहित्य को भी दलित साहित्य केवल इसलिए माना जाना चाहिए कि उसकी रचना एक दलित साहित्यकार ने की है।

 

इस संदर्भ में कहना यही है कि किसी दलित साहित्यकार के लिए दलित होने की शर्त तो ठीक है किंतु ऐसे मानदंडों का होना भी जरूरी है जिनसे यह तय किया जा सके कि उसकी कौन-सी रचना दलित साहित्य मानी जाएगी और कौन-सी नहीं?

दलितों द्वारा दलितों पर रचा गया साहित्य ही दलित साहित्य

 

एक पत्रिका ने अपने आगामी अंक में दलित साहित्यविशेषांक निकालने की घोषणा की थी पिछले साल। मैंने उसमें अपनी एक कहानी भेज दी और जल्दी ही वह वापस भी आ गई क्योंकि न तो उस कहानी के पात्र दलित हैं और न उसकी विषय वस्तु दलित जीवन की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है। अधिकांश दलित विमर्शकारों द्वारा यह बात उठाई जा रही है कि केवल दलितों द्वारा दलितों की जीवन परिस्थितियों पर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। यह एक संकीर्ण और अन्तर्विरोधी प्रस्थापना है। दलितों द्वारा लिखे जाने की बात तो ठीक है मगर उनका केवल दलित जीवन पर लिखने की शर्त दलित साहित्य को केवल दलित समाज और दलित उत्पीड़न के चित्रण के दायरे में कैद करने की भूल है। इससे दलित साहित्य न सिर्फ वैचारिक न सृजनात्मक स्तर पर सीमित होगा बल्कि उसका विकास भी कुंद होगा।

 

इस संदर्भ में संत कबीर, नामदेव, पीपा, रैदास, ज्ञानदेव, तुकाराम और एकानाथ आदि का साहित्य देखा जा सकता है। उनके जमाने में सामंतवादी व्यवस्था काफी मजबूत थी और वर्ण व्यवस्था भी। ये लोग केवल इसलिए महान कवि नहीं माने जाएंगे कि उन्होंने दलित जीवन का अपने काव्य में व्यापक चित्रण किया बल्कि वे इसलिए बड़े और महान कवि हैं कि उन्होंने पूरे समाज में व्याप्त बुराइयों और शोषणकारी व्यवस्था के विरोध में जीवन भर सशक्त सृजनकर्म किया। दलित वर्ग में जन्म लेने के बावजूद कबीर साहित्य में इक्का-दुक्का प्रसंगों के अलावा न तो दलित पात्र आते हैं और न दलित जीवन की विडम्बनाओं का ज़िक्र आता है बल्कि पूरे समाज में व्याप्त धार्मिक कटटरता, अंधविश्वास व रुढ़ियां ही उन्हें ज्यादा परेशान करती हैं। अपने संपूर्ण काव्य में वे उन्हीं पर क्रांतिकारी ढंग से प्रहार करते नजर आते हैं। फिर उपरोक्त प्रस्थापना के आधार पर उन्हें दलित साहित्य की बुनियाद कैसे माना जा सकता है?

 

इसके विपरीत दलित वर्ग में जन्म न लेने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने निजी अनुभव और मानवीय संवेदना के आधार पर अपने साहित्य में न सिर्फ दलित पीड़ा का गहन चित्रण किया है बल्कि उन पर सदियों से जुल्मों-सितम की बरसात करने वाली ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों का न सिर्फ भंडाफोड़ किया है बल्कि उन्हें जनविरोधी साबित करते हुए उन पर निर्ममता से प्रहार भी किए हैं। याद कीजिए उनके दलितवादी होने के कारण ही हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन पर तमाम आरोप लगाए थे। केवल कफनकहानी (उसको भी संकीर्ण दृष्टिकोण से परखकर) को लेकर हो हल्ला मचाने वाले दलित आलोचकों को दलित पात्रों को लेकर रची गई उनकी अन्य रचनाएं भी पढ़नी चाहिए और उन पर यथार्थवादी ढंग से विचार करना चाहिए। यह कोई सार्वभौमिक सत्य नहीं है कि दलित की पीड़ा को दलित ही जानता है और वही इसकी सही अभिव्यक्ति कर सकता है। भले ही वह दलित साहित्य हो। किसी भी उत्कृष्ट रचना के लिए केवल अनुभव ही काफी नहीं होता उसके लिए अपने समय और समाज की परिपक्व समझ, व्यापक दृष्टि, गहन मानवीय संवेदना और विलक्षण रचना शक्ति की भी आवश्यकता होती है।

 

फिर सवाल ये उठता है कि दलित साहित्यकार अपने रचनाकर्म को केवल जातीय शोषण तक ही क्यों सीमित करे। आज समाज में जाति के अलावा भी ऐसी सैंकड़ों समस्याएं हैं जिनसे दलितों को भी दो-चार होना पड़ रहा है। क्यों गरीबी, भुखमरी, बेकारी, भ्रष्टाचार और मंहगाई किसी दलित रचनाकार के रचनाकर्म का विषय नहीं हो सकते। क्या इन समस्याओं के चलते दलित समाज के अन्य उत्पीड़ितों से नहीं जुड़ते? क्यों एक दलित साहित्यकार अन्य उपेक्षितों की पीड़ा का चित्रण अपनी रचनाओं में नहीं कर सकता? क्यों एक दलित साहित्यकार बिना जातिगत संदर्भ दिए जो लिखे वह दलित साहित्य नहीं माना जाना चाहिए? दलित साहित्यकार क्यों समूचे आकाश पर नहीं लिख सकता है? उसके लेखन और दृष्टि को केवल जाति की सीमाओं में कैद करने वाले क्या वास्तव में दलित साहित्य के आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

 

दलितों द्वारा दलितों के जीवन पर दलितों के लिए रचा गया साहित्य

 

दलितों में साहित्य का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से उनमें सांस्कृतिक रूझान पैदा होगा और चेतना बुद्धि का विकास होगा। किन्तु यह कहना जितना आसान है, इसे कार्यरूप देना उतना ही कठिन है। इस समस्या का सामना जनवादी सांस्कृतिक कर्मियों को भी करना पड़ रहा है। दलित भी इससे अछूते नहीं है। उन्हें सांस्कृतिक क्षेत्र में आई जड़ता को तोड़ने के लिए व्यापक पैमाने पर कदम उठाने पड़ेंगे। पहले तो इसके लिए उन्हें दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की दिशा में काम करना पड़ेगा। अपने लेखन के दलितों में प्रसार के लिए विभिन्न सृजनात्मक तरीके इस्तेमाल करते हुए लोगों के बीच जाना पड़ेगा। दलित विचार और साहित्य संबंधी पत्र-पत्रिकाएं व्यापक पैमाने पर निकालनी होंगी। मुख्यधारा से अलग दलित साहित्य प्रकाशन की अपनी व्यवस्थाएं कायम करनी होंगी।

 

बहरहाल, उपरोक्त प्रस्थापना में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार व पठन-पाठन को दलितों तक सीमित करने का अर्थ निकलता है। यह न तो दलित साहित्य के हित में है और न दलितों के। दलित वृहत्तर समाज का अंग है। सदियों से जातिगत अपमान व भेद-भाव की जो पीड़ा दलितों ने झेली है उससे समाज के अन्य वगो± को भी परिचित होना चाहिए। दलित वर्ग तो उससे एक हद तक वाकिफ है ही। केवल दलितों के लिएकी चेपी लगाकर भी किसी दलित रचना को अन्य वगो± द्वारा पढ़े जाने से नहीं रोका जा सकता है बल्कि दलित साहित्य के व्यापक आधार के निर्माण के लिए यह जरूरी भी है कि वह समाज के अन्य वगो± तक भी पहुंचे। इससे दलित आंदोलन को दूसरे वगो± में अपने सहानुभूतिक और समर्थक मिलेंगे। दूसरे तबकों में दलित साहित्य के प्रचार-प्रसार से उसकी विवेकशीलता व गzहणशीलता बढ़ेगी व समाज के अन्य उत्पीड़ित वगो± से एकता का रास्ता खुलेगा।

 

दोस्त और दुश्मन की पहचान

 

अब इस सवाल को और नहीं टाला जा सकता है। इस सवाल पर उथले-पुथले ढंग से बहसबाजी करने के बजाए ज्यादा गहराई और व्यापकता के साथ चिंतन मनन करने की जरूरत है। अभी तक हिंदी के दलित साहित्यकार दलितों के शत्रु के रूप में ब्राह्मणवादी-सामंतवादी शक्तियों के रूप में चिन्हित कर रहे हैं। दलित विमर्श और चिंतन का यह काफी कमजोर पहलू है। इस तरफ दलित विमर्शकारों की तरफ से न तो कोई खास चिंतन हुआ है और न उनकी तरफ से सशक्त अनुसंधान ही सामने आए हैं। अधिकतर भारतीय इतिहासकारों और अर्थवेत्ताओं की इस सवाल पर अब सहमति दिखाई देती है कि भारत में न तो ब्राह्मणवादी शक्तियां मजबूत रह गई हैं और न सामंतवादी शक्तियां। इसके विपरीत भारतीय शासक वर्ग और शासन व्यवस्था पूंजीवादी शक्तियों द्वारा संचालित है। जो पिछले पचास सालों में देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर काफी आगे ले आई हैं और समाज में इसका व्यापक प्रभाव दिखाई पड़ रहा है।

 

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति भारतीय समाज की एक कटु सच्चाई रही है और वह अब भी भले सामंतवादी विकृत मानसिकता के रूप में समाज में उपस्थित है। इसमें भी संदेह नहीं है कि वर्णव्यवस्था के कारण ही सामाजिक-आर्थिक दासता दलितों को विरासत के रूप में मिली है। जिसे वे सदियों से झेलते आ रहे हैं और आज भी किसी न किसी रूप में झेल रहे हैं। दलितों को सामाजिक सम्मान और बराबरी की बजाय जितनी घृणा और जिल्लत मिली है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। किंतु आज भारतीय समाज विकास के जिस मुकाम पर खड़ा है वहां सामंतवादी शक्तियों और दलित शोषण के उनके हथियार काफी कमजोर पड़ रहे हैं। दलित विमर्शकारों को अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान इसी संदर्भ में करनी चाहिए।

 

आजाद भारत की बागडोर बहुमत से पूंजीवादी ताकतों के हाथ में आई। सामंतवादी शक्तियां पूंजीवादी विकास के रास्ते में रुकावट थीं क्योंकि बिना उनको कमजोर किए देश को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर नहीं ले जाया जा सकता था। अत: पूंजीवादी शासक वर्ग ने भूमि सुधार आदि कार्यक्रमों के जरिए उन पर आक्रमण किए किन्तु उनका जड़मूल से विनाश ना करके उसे अपना सहयोगी बना लिया। अत: यदाकदा सामंतवादी शक्तियों द्वारा दलितों पर अमानवीय हमलों की जो घटनाएं सामने आती हैं वह इन्हीं सामंतवादी अवशेषों द्वारा की जाती हैं जिन्हें वो समाज में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए सरंजाम देते हैं।

 

पूंजीवादी विकास की दिशा में देश को ले जाने वाले शासकों ने विभिन्न कानूनों और संस्थाओं के जरिए दलितों और पिछड़ों के अधिकारों को कायम करने और उन्हें सुरक्षित रखने के प्रयास किए हैं। भारत के जनवादी आंदोलन व मजबूत दलित आंदोलन के दबावों के चलते वे ऐसा करने के लिए मजबूर हुए हैं। दलित आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप संविधान में दलितों के लिए शिक्षा, रोजगार आदि मुहैया कराने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जिससे दलितों को सामाजिक और आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आया है हालांकि यह अभी भी कई मायनों में नाकाफी है। चाहे जो हो, आजाद भारत में दलितों की स्थिति काफी सुधरी है।

इसमें संदेह नहीं कि वर्णव्यवस्था पर चोट करके सामाजिक सम्मान हासिल करने की ओर बढ़ा जा सकता है परन्तु इसे ही आर्थिक विषमता का निदान समझना भयानक मूर्खता है। डाW. अम्बेडकर का भी मत था कि दलितों के सामाजिक सम्मान के लिए वर्णव्यवस्था का खात्मा लाज़मी है किन्तु इसमें लड़ाई अधूरी ही रहेगी अगर दलितों में उपस्थित आर्थिक निम्नता और अभाव को समाप्त नहीं किया जाता है। इसको खत्म किए बिना न तो दलितों को सामाजिक सम्मान मिल सकता है और न सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है।

 

आज का अधिकांश दलित जातिगत विपन्नता और आर्थिक विषमता का शिकार है। दलितों में आर्थिक अभाव इतना ज्यादा है कि कुछ सेर गेहूं या कुछ रुपयों के लालच में वे अपना स्वाभिमान तक बेच डालते हैं और जनतंत्र की स्थापना में अपनी निर्णायक भूमिका को धनिकों को सौंप देते हैं। देश में पूंजीवादी शासकवर्ग ने नित नई जनविरोधी नीतियां बनाकर दलितों, पिछड़ों और पिछड़ों की हालत बद से बदतर कर दी है। आज समाज में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बड़े पैमाने पर फैल रही है। सरकारें, चाहे किसी भी पार्टी की हों, वे जन स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं से लगातार कटौती कर रही हैं! महंगाई ने गरीबों की कमर तोड़ डाली है। चारों तरफ निजीकरण का बोलबाला है। सरकारी नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। गरीबों को विकास के नाम पर हर जगह ठोकर मारी जा रही है। शहरों की ओर ढकेलता है जहां वे अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने को विवश होते हैं। शहरों में नित नई तकनीकें मजदूरों को कारखानों में मिलने वाले रोजगार से बाहर कर देती हैं।

 

इन हालातों का सबसे ज्यादा शिकार दलित वर्ग ही है। दलितों के सामने आज जाति के अलावा गरीबी, अशिक्षा, भूमिहीनता, महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं जिनका भौतिक आधार इस व्यवस्था में निहित है। सो, केवल ब्राह्मणवादी शक्तियों को अपना शत्रु बताना दलितों के लिए काफी नहीं है। पूंजीवादी-नव साम्राज्यवादी व्यवस्था ताकतवर दुश्मन के रूप में उनके सामने मुंह बाये खड़ी है जिसका आकलन दलित आंदोलन के लिए एकदम अनिवार्य है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी और श्रम के स्थायी अन्तविरोध के कारण उनका दोस्ताना संबंध सर्वहारा संघर्ष से बनना दलित आंदोलन को व्यापक बनाएगा। सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के आंदोलन में ही दलित आंदोलन की सार्थकता होगी उससे अलग होकर नहीं।

 

 

विचारधारा का सवाल

 

विचारधारा के सवाल पर अधिकतर दलित चिंतक ये बयान देते हैं कि उनका जुड़ाव केवल अम्बेडकरवादी विचारधारा से ही हो सकता है किसी अन्य विचारधारा से नहीं। ऐसा करते वक्त वे अम्बेडकरवादी विचारधारा की सीमाओं की चर्चा नहीं करते हैं। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से दलितों में सामाजिक सम्मान का आंदोलन खड़ा किया किन्तु 1951 तक आते-आते उन्हें इस बात का अहसास हो चला था कि केवल जाति अवस्था के खात्मे से दलितों का खात्मा नहीं होगा बल्कि आर्थिक विषमता के दुर्ग को भी तोड़ना होगा। इसलिए उन्होंने आर्थिक समाजवाद का सपना देखना शुरू किया। इस दिशा में वे चिंतन मनन कर ही रहे थे कि उनकी मृत्यु हो गई। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की स्थापना को इसी अर्थ में देखा जाना चाहिए। किंतु बाद में आर. पी. आई उनके आर्थिक समाजवाद को साकार करने के रास्ते पर नहीं बढ़ी। बसपा आदि दलितवादी पार्टियों के अजंडे पर भी आर्थिक समाजवाद लाने का सपना नहीं है। बसपा भी आज सत्ता के जिस खेल में शामिल हो चुकी है वहां उसके लिए अम्बेडकरवादी विचारधारा केवल दिखावा है।

आजाद भारत में अम्बेडकर न सिर्फ कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते रहे बल्कि तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी और उसके व्यवहार को दलित आंदोलन की मजबूती का आधार नहीं माना। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे वामपंथी विचारों के विरोधी थे बल्कि उनकी चर्चित पुस्तक स्टेट एंड माइनोरिटिपर वामपंथी विचारों की छाप मिलती है।

 

1952 के आम चुनावों में अच्छी जीत हासिल करके कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय रास्ते से समाज बदलाव की हामी बनती गई। डा. अम्बेडकर ने उसके इस रुख को अच्छी तरह से चिन्हित किया था। उनको लगता था कि वामपंथी दलित समस्या को समाज की कोई समस्या न मानकर उससे न सिर्फ आंख मींचे है बल्कि वामपंथी दृष्टिकोण से दलित समस्या का समाधान खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

 

आज ऐसे दलित चिंतकों की कमी नहीं है जो अम्बेडकर को लगातार वामपंथी विचारधारा के विरोध में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें कुछ योगदान उन तथाकथित वामपंथियों का भी है जो न मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में ढाल पाते हैं और न उसे व्यवहार में उतार पाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अब तक वामपंथ उन ऊंची जात वालों का खिलौना बनता रहा है जो न मार्क्सवाद को ठीक से जीवन में उतार पाए और न अपनी जातीय स्थिति का त्याग कर पाए। यह उन्हीं की दोहरी भूमिका का नतीजा है कि वामपंथ आज छ्दम वामपंथ बन गया है। लेकिन खाली छदम वामपंथ का विरोध करने भर से काम नहीं चलने वाला है। दलितों को चाहिए कि वे न सिर्फ वामपंथी विचारधारा बल्कि अन्य वैज्ञानिक विचारधाराओं का भी गहन अध्ययन करें और उसे अंबेडकरवादी विचारधारा के विकास का माध्यम बनाएं। इससे उन्हें न सिर्फ छद~म वामपंथ से मुक्ति मिलेगी बल्कि वैचारिक स्तर पर दलित आंदोलन की व्यापकता बढ़ेगी।

दलितों का उत्पीड़न समाज के अन्य शोषितों के उत्पीड़न से भिन्न अवश्य हो सकता है किंतु उससे अलग नहीं हो सकता है। जाति के अलावा उनके सामने अनेक समस्याएं हैं जिन पर संघर्ष लाजमी बनता है। इस आधार पर दलितों का संघर्ष अन्य शोषितों के संघर्ष से जुड़ता है। अस्तु, दलित साहित्य आंदोलन का संबंध जनवादी साहित्य आंदोलन से बनता है।

 

दलितों की पीड़ा को एक वास्तविक दलित ही समझ सकता है किंतु मानवीय संवेदना और जनवादी समझ के आधार पर अन्य वर्गों के साहित्यकार भी इसे समझ और व्यक्त कर सकते हैं। अत: दलितों द्वारा रचित साहित्य को तो दलित साहित्य माना ही जाना चाहिए किंतु जनवादी लेखकों द्वारा दलित जीवन पर रचित साहित्य को भी दलित साहित्य का एक हिस्सा माना जाना चाहिए।

 

दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा अभी निर्माण की प्रक्रिया में है लेकिन उसको परखने के आधार भी वही होने चाहिए जो दुनिया के किसी भी उत्पीड़ितों के साहित्य को समझने के होंगे। इसे केवल जातीय उत्पीड़न और दलितों तक ही सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि समाज में व्याप्त अन्य जनसमस्याओं पर भी दलितों को सोचना और रचना चाहिए। दलित साहित्य इस प्रकार वृहत~ समाज के उत्पीड़ितों के बीच भी उपयोगी हो सकता है इसलिए उनके बीच भी इसका प्रसार होना चाहिए।

 

अंत में, सिर्फ इतना ही कहना है कि भारतीय संदर्भों में दलित साहित्य न केवल छदमवामपंथ, जातीय उत्पीड़न, आर्थिक उत्पीड़न से मुक्ति का वैचारिक स्रोत है बल्कि जनवादी व प्रगतिशील साहित्य के फलक की व्यापकता का आधार भी है। दलित साहित्य मुक्तिकामी साहित्य है और ये समस्त वर्गों के उत्पीड़ितों के साहित्य का हिस्सा होकर ही अपनी क्रांतिकारी भूमिका को सरंजाम दे सकता है।

 वर्तमान साहित्य के अगस्त 1999 अंक में प्रकाशित

 

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अछूत: दलित जीवन का अन्तर्पाठ

मुकेश मानस

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दया पवार मराठी दलित साहित्य में एक सुपरिचित नाम है। आधुनिक मराठी दलित साहित्य के बरक्स दलित साहित्य को खड़ा करने में जिन दलित साहित्यकारों ने भारी ज़द्दोज़हद का सामना किया, उनमें दया पवार का नाम कभी न भुलाया जा सकने वाला नाम है। मराठी के जिन दलित साहित्यकारों ने अपनी रचना-धर्मिता और सृजनशीलता के बल पर भारतीय साहित्य के पैमाने पर अपनी पहचान बनाई है, ऐसे साहित्यकारों में दया पवार पहली पंक्ति में खड़े नजर आते हैं।

 

दया पवार के 1974 में प्रकाशित काव्य संग्रह कोंडवाड़ा(कांजी हाउस) ने न सिर्फ उनको दलित साहित्य आंदोलन में स्थापित किया अपितु उनके कविता संग्रह से मराठी दलित लेखन भी चर्चा में आया। कोंडवाड़ा और कुछ नहीं महारवाड़ा का ही पर्याय है। महारवाड़ा के लोग, उनके दु:ख और तकलीफ़ें, उनकी निराशाएं और छटपटाती वेदनाएं ही कोंडवाड़ा की अंतर्वस्तु हैं। कोंडवाड़ा एक ऐसा अदृश्य घेरा है जिसके भीतर भारत की जातिव्यवस्था के अभिशाप से ग्रस्त असंख्य निराशाएं और वेदनाएं छटपटाती नजर आती हैं। यह काव्यगत सृजन की ऐसी संवेदना और शिल्प है जो शब्दों की सीमा से बाहर आकर उसकी भयावह वेदना, अपमान और शोषण को साकार करता है।

 

अछूत (बलुत)1979 में पहली बार मराठी में प्रकाशित हुआ था। अछूतदलित साहित्य का पर्याय ही बन गया। अछूतदलित साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन का प्रस्थान बिंदु है। दलित जीवन की असहनीय और बेवाक अनुभूतियां इसमें से झांक-झांक पड़ती हैं। अछूतने दया पवार को मराठी दलित साहित्य का ही नहीं, भारतीय दलित साहित्य का भी इतिहास पुरुष बना दिया। अछूत के बाद 1983 में उनके विटालऔर बाद में चावड़ीशीर्षक से कहानी संग्रह भी आए। उन्होंने भगवान बुद्ध के धम्मपदसे कुछ गाथाओं का मराठी में अनुवाद भी किया है। देखा जाए तो उनकी साहित्यिक रचनाओं की संख्या बहुत कम है मगर वे इन्हीं के बल पर आज भी दलित साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोतत बने हुए हैं।

 

 

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कैसे बताया जा सकेगा सीधे-सीधे। वह सारा क्या एक दिन का है। पूरे चालीस साल की जिंदगी कर जीवंत इतिहास है...वैसे मैं बड़ा भुलक्कड़ हूं। विस्मरण की आदत के कारण ही जीवित रह सका नहीं तो सिर फटवा कर मरने की बात थी।

 

अछूतमें दया पंवार ने अपने चालीस साल की जीवन-यात्रा का बयान लिखा है। उनकी जीवन यात्रा का जो वृतांत अछूतमें मिलता है वह बहुत ही छोटा है। लेकिन अछूत के दगडू मारुति पवार के जीवन के छोटे से आत्म-वृतांत का फलक बहुत ही व्यापक है। इस मामले में अछूतसिर्फ दगडू मारुति पवार की जीवन यात्रा का लेखा-जोखा ही नहीं हैं बल्कि अछूतमहारवाड़ा के हजारों-हजार महार युवकों, प्रौढ़ और वृद्ध पुरुषों, स्त्रियों की अछूत गाथा है। दगडू मारुति पंवार की जीवन यात्रा इन लोगों के संदर्भोंस्मृतियों और दारुण जीवन स्थितियों के साथ चलती है। महारवाड़ इस गाथा का प्रस्थान बिंदु है तो कावाखाना इसकी परिणति। महारवाड़ा और कावाखाना के दीन-हीन परिवेश में दगडू मारुति पंवार के जैसी सैकड़ों अभिशप्त जिन्दगियां हैं जिनसे अछूत गाथा की एक समूची करुण गाथा साकार होती है।

 

दगड़ू मारुति पंवार ने जब आंख खोलकर अपने आस-पास की दीन-हीन और अभिशप्त दुनिया को समझने की उमर पाई तो उसने खुद को बम्बई की एक बदनाम बस्ती कवाखानामें पाया। भारत के अछूतों का जीवन कहीं से भी शुरू हो मगर उसका प्रस्थान बिंदु महारवाड़ा या चमारवाड़ा ही रहता है। वे कहीं भी जन्म लें, कहीं भी पलें-बढ़ें महारवाड़ा की अभिशप्त छाया हमेशा उनके साथ रहती है। कावाखाना बम्बई का शहरी महारवाड़ा ही है। महारवाड़ा उपेक्षा, गरीबी, बेकारी और बेरोजगारी की जिस मार से पीड़ित है लगभग वही मार उसे शहर के कावाखाना में भी भुगतनी पड़ती है। बल्कि शहर में कुछ नई समस्याएं इसमें और जुड़ जाती है। दगडू के पिता बम्बई शहर में कमाई की खातिर आए थे। यहां उन्हें मिला गोदी में हमाली और गोदी की भटटी में खुद को झुलसाने का काम। अन्य महारों की तरह वह भी शराब और रंडीबाजी जैसी बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं। दगडू मारुति पवार का परिवार घटिया आवास व्यवस्था के साथ-साथ अभावहीनता में जीवन-यापन करता है। मगर दगडू के पिता के मन में बेटे को पढ़ाने की चाह है। इसलिए दगडू का दाखिला शहर पालिका के स्कूल में करवा दिया जाता है। कुछ साल कावाखाने में दीन-हीन जीवन बिताने के बाद दगडू का परिवार वापस महारवाड़ा में अभिशप्त होने को पहुंच जाता है।

 

महारवाड़ा में रोजगार नहीं है। अस्पृश्यता की मार के अलावा बेरोजगारी और बेबसी की मार से परिवार की आर्थिक दशा दयनीय ही रहती है। दगडू का पिता लकड़ी चीरने का काम करके जैसे-तैसे घर चलाता है। लोकल बोर्ड के स्कूल में दगडू को भर्ती करा दिया जाता है। पिता की शराब की लत यहां भी नहीं छूटती। गांव में ही पिता की मृत्यु हो जाती है। जाने कैसे दगडू में पढ़ने की इच्छा बनी रहती है और उसकी मां भी उसको रोकती नहीं है। वह मेहनत मशक्कत करके घर चलाती है। गांव के स्कूल में अध्यापकों की जातीय मानसिकता उसे बेचैंन करती रहती है। अंग्रेजी में गेzस मार्क्स पाकर वह तालुका के स्कूल में आता है। यहां आकर उसे जातीय वंचना से मुक्ति का अहसास होता है मगर यह एहसास ज्यादा देर नहीं रहता। एकाध प्रगतिशील अध्यापकों को छोड़कर बाकी शिक्षकों की ऊंच-नीच की मानसिकता उसे हतोत्साहित करती है मगर वह हार नहीं मानता। एक अध्यापक की सलाह पर वह सगनेर पुणे छात्रावास में दाखिला पाता है। यह छात्रावास डा. अम्बेडकर की प्रेरणा से महार छात्रों के लिए बनाया गया था। मगर यहां आकर उसे दलित युवकों में अपने ही बिरादर भाइयों और स्त्रियों के प्रति उनकी ऊंच-नीच और पितृसत्ता की मानसिकता का पता चलता है। वह इससे बड़ा दु:खी होता है। जगह खाली होने पर उसकी मां और बहन भी छात्रावास में खाना पकाने जैसे काम के लिए छात्रावास में आती हैं। यहां उसकी मां और बहन का भयानक शोषण होता है। अपनी मां और बहन के प्रति छात्रावास के लड़कों का गुलामों सा व्यवहार और पितृसत्तावादी रुख परेशान करता है।

 

इस बीच उसके जीवन में बानू, गऊ जैसी लड़कियां आती हैं। बानू से उसे प्लेटोनिक लव हो जाता है। मगर उसके बाप की उच्च जाति और आर्थिक हैसियत उसके इस प्लेटोनिक लव को जल्दी ही मिट~टी में मिला देती है। गऊ को वंश चलाने के नाम पर पिता की उम्र के बहन के पति से ब्याह दिया जाता है। गरम लोहे की सलाखों से दागी जाने वाली सीता, यौंन विकृति का शिकार टांकी, मंदिर की सीढ़ियों को लात मारने वाला पागल, हरि का कोढ़ी बाप जैसे महारवाड़ा के सैकड़ों चरित्रा और उनकी दारुण और विषमतापूर्ण जीवन परिस्थितियां, महारवाड़ा की पतित मूल्य-मान्यताएं उसे लगातार अभिशप्त करती रहती हैं। वह महारवाड़ा से लगातार खुद को काटा-सा महसूस करता है। महारवाड़ा के अभिशप्त जीवन से खुद की मुक्ति की कामना उसे लगातार प्रोत्साहित करती रहती है।

 

तालुके के स्कूल में दगडू कविताएं लिखना शुरू करता है। दगडू का कविताएं लिखना एक तरह से महारवाड़ा से मुक्ति और महारवाड़ा की मुक्ति का ही रचनात्मक प्रतिफलन है। उसकी कविताओं में महारवाड़ा की दारुण परिस्थितियां और उनसे मुक्ति की कामना झलकती है। इसी बीच में उसे नाटक का शौक लग जाता है लेकिन प्रिंसिपल की नेक सलाह पर वह केवल पढ़ाई-लिखाई पर अपना ध्यान केंन्द्रित करता है। इसी बीच उसकी इच्छा के विरुद्ध सई से विवाह तय हो जाता है। वह एस.एस.सी. के इम्तहान में फेल हो जाता है। लेकिन दृढ़ निश्चयी दगडू पढ़ाई पर अपना ध्यान केंन्द्रित कर पास हो जाता है। उसे गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल सकती है फाइनल पास करके वह शहर में नौकरी करने की सोचता है। उसे लगता है कि देहात तो अस्पृश्यता रूपी बिच्छू डंकों का अंबार है। वहां रहकर वह जीवन भर अभिशप्त रहेगा।

 

नौकरी की तलाश में वह बम्बई आता है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था की अन्तरनिहित कमजोरियां उसे सालती हैं। बम्बई में आकर वह नौकरी की तलाश में रोजगार दफ्तर के चक्कर काटता रहता है और एक लंबा समय बेरोजगारी में काटता है। मां बम्बई में मेहनत-मशक्कत करके घर को चलाती है। यह बात उसे सालती रहती है। कावाखाने का अभिशप्त जीवन उसकी मुक्ति के स्वप्न को चकनाचूर कर देता है। यहां आकर भी महारवाड़ा उसका पीछा नहीं छोड़ता है। महार होने के कारण आरक्षण व्यवस्था के तहत उसकी चमड़ा फैक्टरी में नौकरी लगती है। हालांकि यह नौकरी उसे फिर उसी जातीयता के दंश से अभिशप्त रखती है जिससे वह मुक्ति पाना चाहता है मगर आर्थिक अभाव उसे यह नौकरी करने पर मजबूर कर देता है।

 

इसी बीच दगडू की शादी साई से हो जाती है। उसका हनीमून एक दु:स्वप्न की तरह गुजरता है। लेकिन दगडू थमता नहीं। वह रूपारेल कालेज में पढ़ने लगता है। लेकिन कालेज और नौकरी की भागमभाग के कारण उसे लगातार एक अंतरद्वन्द्व से गुजरना पड़ता है। सई की सुंदरता और व्यवहार उसे सई पर शक करने को मजबूर कर देता है। सीता, जमना मौसी, गऊ, परित्यक्ता चाची और अपनी मां-बहन के दु:खों से सहानुभूति रखने वाला दगडू अंतत: पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होकर अपनी पत्नी का परित्याग कर देता है। काफी समय तक उलझन और ऊहापोह से गुजरता हुआ वह दुबारा शादी कर लेता है। इसी बीच उसकी मन मुताबिक नौकरी लग जाती है। बस इतनी सी कथा है दगडू मारुति पंवार की जिसमें वह हमें दु:ख झेलता, अपमान सहता, टूटता और आगे बढ़ने का निश्चय करता हुआ मिलता है।

 

दगडू मारुति पवार का जीवन महारवाड़ा के हजारों-हजार नवयुवकों के जीवन का पर्याय है। यह जीवन जातीयता और अपमान के दंश से निर्मित होता है और गरीबी और आर्थिक अभाव की मार सहता हुआ समाज व्यवस्था की विषमता से टूटता, अपनी ही कमजोरियों से पस्त होता हुआ आगे बढ़ता है। इस समूची गाथा में हमें दगडू मारुति पवार के चरित्रा की तमाम कमजोरियों और विशेषताओं का वेबाक बयान मिलता है। यही अछूतकी विशेषता है। यह आत्मकथा अंत से शुरू होती है। शुरुआत में हम पाते हैं कि दगडू मारुति पवार एक सुखी आदमी है। मगर वह दु:खी नजर आता है। वह दु:खी नजर आता है क्योंकि वह खुद तो सुखी है। उसको तो किसी हद तक मुक्ति मिल गई मगर वह दुखी है क्योंकि उसका महारवाड़ा अभी भी वहीं ना वहीं है।

 

 

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गांव और मेरे बीच आज भी एक अदृश्य दीवार है। वे उस पार-मैं इस पार। गांव और महारवाड़ा से सीधे एक रास्ता जाता है। वही गांव और महारवाड़ा का बार्डर है।....... एक टीले पर महारवाड़ा है-गांव के निचले हिस्से पर। ऐसा कहते हैं कि हवा और नदी का पानी उच्च-जातियों को शुद्ध मिले, इसीलिए गांव की रचना प्राचीनकाल से इसी तरह की है।

 

भारत के अधिकतर गांवों की यह बनावट आज भी इसी रूप में देखने को मिलती है। एक तरफ गांव और दूसरी तरफ महारवाड़ा। महारवाड़ा- यानी महारों का मुहल्ला, ठीक उत्तर भारत के चमारवाड़े जैसा। गांव में भूमिसम्पन्न, समृद्ध उच्च-जातियों के परिवार रहते हैं। महारवाड़ा में भूमिहीनता, दरिद्रता, छुआछूत और बेगार की मार झेलने वाली महार जैसी निचली जातियों के परिवार रहते हैं। दोनों के बीच जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिलता है। एक अदृश्य दीवार दोनों के बीच की सामाजिकऔर आर्थिक विषमता को रेखांकित करती है। यह अदृश्य दीवार एक ऐसा बाWर्डर है जिसके बीच किसी मेल की कोई गुंजाईश नहीं है। कहना चाहिए कि दोनों के बीच की विषमता की खाई सदियों से बढ़ती आई है।

 

महाराष्ट्र की अकोला तहसील के घामड़ गांव का महारवाड़ा समूचे देश के भीतर शोषित और उत्पीड़ित लाखों महारवाड़ाओं का प्रतिनिधि है। महारवाड़ा देश के बहुतायत दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का नंगा चित्रा है। यही महारवाड़ा दया पवार की आत्मकथा अछूतका केन्द्रीयय आधार है। अछूतकी अछूतगाथा इसी महारवाड़ा के इर्द-गिर्द घूमती है। अछूतका दगडू मारुति पवार दरिद्रता और छुआछूत की सतत मार से अभिशप्त इसी महारवाड़ा में पैदा होता है और अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा इसी में गुजारता है। उसके समूचे जीवन का संघर्ष इसी महारवाड़ा के अभिशाप से मुक्ति का संघर्ष है। अछूतके लेखक और नायक की तरह यह महारवाड़ा भारत के करोड़ों-करोड़ अछूतों को जीवन पर्यंत अभिशप्त रखता है। अब तक प्रकाशित लगभग हर दलित आत्मकथा में इसी महारवाड़ा के विविध रूपों में दर्शन होते हैं।

 

अछूतके इस महारवाड़ा में महारों-दलितों के शोषण की तीन व्यवस्थाएं देखने को मिलती हैंµ महारकी, येसकर पाटी और बलुत। महारकी यानी उच्च-जातियों द्वारा महारों से ली जाने वाली बेगार की परंपरा और व्यवस्था। इसका न कोई निश्चित रूप है और न कोई बंधा हुआ वक्त। गांव का सारा लगान तालुके में पहुंचाना, गांव में आए बड़े अधिकारियों के घोड़ों के साथ दौड़ना, उनके जानवरों की देखभाल करना, चारा-पानी देना, ढ़िढोरा पीटना, मौत की सूचना गांव-गांव पहुंचाना, मरे ढ़ोर खींचना, लकड़ियां फाड़ना, गांव के मेले में बाजा बजाना, दूल्हे का नगर द्वार में स्वागत करना जैसे और न जाने कितने अनगिनत काम महारों के हिस्से पड़ते हैं। इसके अलावा येसकर पारी के रूप में गांव की चौकीदारी।

 

इन सब बेगारों के बदले में महारवाड़ा को मिलता है-बलुत। वैसे बलुत दलितों से लिए जानेवाले बेगार के बदले मिलने वाली मजदूरी है। मगर असल में यह किसी भी मायने में मजदूरी नहीं है। यह एक तरह की भीख है जो उन्हें उनसे लिए गए बेगार के बदले में नहीं मिलती बल्कि उनकी जाति की नीचता और उनकी दरिद्रता पर तरस खाकर उन्हें दी जाती है। दलितों को गांव भर में द्वार-द्वार पर जाकर बलुत मांगना पड़ता है। बलुत के रूप में प्राय: उन्हें बासी रोटियां मिलती हैं या फसल के मौके पर थोड़ी बहुत उपज, खाद्यान्न। दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं होता कि लोगों से काम भी लिया जाए और उनका मेहनताना भी न दिया जाए और मिल तो ऊपर से अपमान भी किया जाए। बलुत एक प्रकार की अमानवीय प्रथा है। यह दलितों के मानवीय सम्मान और आत्मविश्वास को अमानवीय ढंग से ठेस पहुंचाती है।

 

बलुत और महारकी की पंरपराएं प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। ये परंपराएं जाति व्यवस्था का परिणाम हैं। मनु की तथाकथित महान जातिव्यवस्था ने दलितों से तमाम माननीय, सामाजिक और आर्थिक अधिकार छीन लिए। दलितों को भूमिहीन और संपतिहीन बनाया, उन्हें ज्ञान से वंचित करके लगातार एक घ्रणित गुलाम के रूप में विकसित किया गया। जाति व्यवस्था ने दलितों के सामाजिक सम्मान को तो छीना ही, उन्हें उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादन के साधनों से वंचित करके उनका आर्थिक शोषण भी किया। उनकी तरक्की के सारे मार्ग बंद कर दिए। आज भी गांवों में दलितों की बहुतायत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीने को अभिशत है। इस तथाकथित महान जाति व्यवस्था के कारण दलितों ने दोहरी मार झेली है। उनका आज का अभिशत जीवन इसी व्यवस्था का परिणाम है।

 

यह महारवाड़ा की विडम्बना ही है कि वह जिस जाति व्यवस्था की मार को निरंतर झेलता आया है, उसी जाति व्यवस्था का वह खुद भी शिकार है। छुआछूत और ऊंच-नीच की व्यवस्था उनके भीतर भी विभाजन और विषमता का कारण है। महारवाड़े के भीतरी विभाजन को अछूतके लेखक ने बड़ी ईमानदारी के साथ पूरे यथार्थपूर्ण ढंग से रखा है। चमार और ठाकर आदिवासी उच्च जातियों के ऊंच-नीच पूर्ण व्यवहार को झेलते हैं और बदले में महारों के साथ छुआछूत का व्यवहार करते हैं। उत्तर भारत की दलित जातियों में भी एक-दूसरे के प्रति छुआछूत बरतने का व्यवहार देखने को मिलता है।

 

दलित जातियों के भीतर एक-दूसरे के प्रति मौजूद छुआछूत की भावना को रेखांकित करते हुए दया पवार ने लिखा है-चमार लोग हमारे कुंए का पानी कभी न पीते। वे महार के पानी से छुआछूत मानते। चमार परिवारों की औरतें मराठों के कुंओं पर घंटों एक घड़ा पानी के लिए भीख मांगती बैठी रहतीं। मन में बड़ी उथल-पुथल मचती। वह आगे चलकर लिखता है-वैसे ठाकर थे आदिवासी ही। स्वयं को महादेव का वंशज समझते। हमसे छुआछूत मानते। पानी तक ऊपर से पिलाते। ठाकरों के व्यवहार में जातीयता आई कहां से? इस तरह के और भी कई उदाहरण देखने को मिलते हैं। मसलन मराठों द्वारा अपमानित होने वाला नाई भी महार लड़कों से छुआछूत और उनके बाल काटने से इंकार करता है।

 

ब्राह्मणवाद दलितों में आपसी विभाजन और फूट पैदा करके ही हजारों सालों से उनका शोषण करता और फलता-फूलता आया है। यह दलितों की विडम्बना ही है कि जिस ब्राह्मणवाद का मुकाबला उन्हें एकजुट होकर करना चाहिए वह उनके भीतर भी समा गया है। दलित जातियां इसी ब्राह्मणवाद का शिकार होकर अपने जातीय-बंधुओं से घृणा करते हैं। जाति व्यवस्था से अभिशप्त महारवाड़ा की आन्तरिक रचना की यह कटु सच्चाई है। यह आज के दलित संघर्ष का एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है। इस सच्चाई से आंखें नहीं मूंदी जा सकती हैं।

 

जाति व्यवस्था और गरीबी की मार से अभिशप्त महारवाड़ा से बाहर निकलने के लिए दगड़ू मारुति पंवार को एक ही रास्ता दिखता है-शिक्षा का रास्ता। वह बार-बार शिक्षा को मुक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में देखता है। डा.अम्बेडकर ने भी जीवन भर शिक्षा पर बार-बार जोर दिया था। मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था भी जाति के राक्षस से अभिशप्त है। स्कूल-कालेज व्यवस्था और शिक्षक भी इसके शिकार हैं। जाति-व्यवस्था ने दलितों को शिक्षा-ज्ञान का अधिकार कभी नहीं दिया। उत्पादन व आर्थिक संसाधनों पर अधिकार के साथ-साथ ज्ञान की व्यवस्था पर भी उच्च-जातियों का ही कब्जा बना रहा है। शिक्षा प्रगति और उन्नति का मार्ग है। इसलिए उच्च-जातियों ने निम्न जातियों को शिक्षा के अधिकार से लगातार वंचित किया। यदि कभी किसी दलित ने शिक्षित होने की कोशिश की तो उसके इस प्रयास को परंपरागत मूल्यों और समाज व्यवस्था पर प्रहार माना गया। शंबूक वध, एकलव्य आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। आजाद भारत में शिक्षा का दरवाजा प्रत्येक भारतवासी के लिए खुलने के बावजूद उस पर उच्च जातियों का ही कब्ज बना रहा। उन्होंने दलितों के शिक्षित होने के मार्ग में तमाम तरह के अवरोध पैदा किए और उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की साजिशें कीं। आज भी स्थिति में कुछ खास बदलाव देखने को नहीं मिलता है।

 

अछूतका दगड़ू पवार गांव और तालुके स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में निहित जातीय विषमता के दंशों को लगातार झेलता है। इस बारे में दया पवार ने लिखा है-ब्राह्मण मास्टर कक्षा में हमारा छुआछूत मानते हैं, यह महसूस न होता। परन्तु घर पर मास्टर बहुत ही अलग तरह का व्यवहार करते।..... स्कूल के मास्टर और घर के मास्टर में बहुत अंतर दिखाई पड़ता। ऐसा लगता कि घर आकर उन्होंने खूंटी पर टंगी अपनी जाति का जनेऊ फिर से चढ़ा लिया हो।

 

ऐसे शिक्षक न तो प्रगतिवादी मूल्यों के पोषक हैं और न वे महारवाड़ा के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं। मगर महारवाड़ा की यह विडम्बना ही है कि अधिकतर शिक्षक इसी तरह के हैं। ये लोग कदम-कदम पर दलित विद्यार्थियों को हतोत्साहित करते हैं और उनका महीन रूप में शोषण करते हैं। कुल मिलाकर इन तथाकथित ऊंची जातियों के शिक्षकों का चरित्र सड़े-गले मूल्यों वाली व्यवस्था के पोषक और पैरोकार की ही बनती है। दलित विद्यार्थियों के मामले में ये ठेठ जातिवादी ही हैं।

 

स्कूलों और छात्रावासों में दलित छात्रों के प्रति ऊंची जातियों के छात्रा छुआछूत का बर्ताव करते हैं। स्कूलों का पूरा माहौल उन्हें प्रोत्साहित करने की बजाए लगातार अपमानित करता हैं। शिक्षा का ब्राह्मणदी, सामंतवादी मूल्यों का पोषक और जीवन से हटा पाठयक्रम और उसकी भाषा उनके लिए दुरूह साबित होते हैं। दलित माता-पिता भी इस व्यवस्था के शिकार हैं दलितों में शिक्षा की परंपरा और उसके प्रति सम्मान की भावना न होने के कारण वे अपने बच्चों की मदद कर पाने में असमर्थ रहते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का समूचा चरित्र दलित विद्यार्थियों की मदद करने की बजाए उन्हें हतोत्साहित ही करता है। अपने समग्र रूप में दलित विरोधी शिक्षा व्यवस्था दलितों को अशिक्षितों की भीड़ की तरफ धकेलती है। अशिक्षित रहकर वे आर्थिक और सामाजिक तरक्की से भी वंचित रह जाते हैं। अछूतका दगड़ू मारुति पवार इसी शिक्षा व्यवस्था में लगातार संघर्ष करता हुआ महारवाड़ा से बाहर निकलने का प्रयास करता है। मगर यह शिक्षा व्यवस्था सकारात्मक रूप में उसके व्यक्तित्व को बहुत ही कम प्रभावित कर पाती है।

 

इस शिक्षा व्यवस्था का एक और नकारात्मक पहलू है- शिक्षार्थी को उसके समाज से काट देना। वैसे इस शिक्षा व्यवस्था की पूरी कोशिश यही रहती है कि दलित शिक्षित न हो पाए। अगर कोई शिक्षित हो भी जाता है तो यह उसे उसके समाज से काट देती है। दगड़ू मारुति पंवार भी अपने व्यक्तित्व में इसी तरह की फांक देखता है-जैसे-जैसे मुझमें समझ आती गई, मैं अकेला होता गया।¸ और आगे वह लिखता है- गांव में रहते हुए भी मैं बचपन से गांव से कटा-सा रहता¸ ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की घटिया संरचना में भी उसे मुक्ति की आशा दिखाई पड़ती है। स्कूल पहुंचने पर मेरा मन दूर आकाश में किसी पक्षी के पहाड़ की चोटी पर उड़ान भरने-सा रोमांचित हो उठता। मुक्ति का आनन्द मिलता। तालुके के सही स्कूल में मुझे अपने सही व्यक्तित्व की पहचान हुई। मुझमें कोई कमी नहीं। गांव के कांजी हाउस से बाहर निकलना ही चाहिए। उसके लिए पढ़ना जरूरी है।

 

गांव के कांजी हाउस से बाहर निकलने के लिए पढ़ना जरूरी है। मगर यह पढ़ाई-लिखाई एक तो उसे महारवाड़ा से काट देती है दूसरे उसे कदम-कदम पर आतंकित करती रहती है। दगड़ू शिक्षा में मुक्ति देखता है मगर यह मुक्ति व्यक्तिगत मुक्ति है। अपने समाज से काट देना इस शिक्षा व्यवस्था की अंतिम परिणति है। फाइनल का रिजल्ट आने के बाद वह लिखता है-फाइनल के बाद यदि थोड़ी भी कोशिश करता तो बड़ी सहजता से मास्टर बन सकता था परन्तु सारी उम्र देहात में खपने की इच्छा न थी। और देहात- वह था मात्रा बिच्छू डंकों का अंबार। जिन्दगी भर मनस्ताप होता।अलगाववादी शिक्षा व्यवस्था अंतत: दगड़ू मारुति पवार में व्यक्तिगत मुक्ति की चाह जगाकर उसे महारवाड़ा से काट देती है। इस तरह व्यक्तिगत मुक्ति की चाह में महारवाड़ों, चमारवाड़ों और दलितवाड़ों में मौजूद दगड़ू मारुति पवारों की संख्या लाखों में है जो लौटकर महारवाड़ा की मुक्ति के लिए कुछ नहीं करते।

 

लेकिन महावाड़े से कटने वाले सिर्फ़ पढ़े-लिखे लोग ही नहीं हैं,अनपढ़ भी हैं।गांव की व्यवस्था उन्हें कोई रोजगार और सम्मान नहीं देती उल्टे उनसे बेगार लेकर उनका शोषण करती है, उन्हें गरीब से गरीब बनाती है। बेगार, जातिगत प्रवंचना और से मुक्ति की तलाश में लोग हजारों की तदात में शहरों की तरफ पलायन करते हैं-येसकर पारी गई, बलुत गया बित्ता भर जमीन हडिडयां पोसने के काम आती थी, वह भी नाम मात्रा पैसों के लिए जमींदारों के पास गिरवी है। इस कारण उजड़ा पड़ा है। पेट का गडढ़ा भरने के लिए सब शहर भाग रहे हैं।

 

१९७९ में पहली बार मराठी में प्रकाशित अछूत में दया पवार ने लिखा है- मैंने बचपन में जो महारवाड़ा देखा था, वह अब उजड़ गया है। परन्तु बचपन में वहां के देखे चित्रा मैं कैसे पोंछ सकता हूं। वे सतत् मेरी आंखों के आगे घूमते हैं। मगर इसके बावजूद महारवाड़ा नहीं उजड़ता। वह जस का तस बना रहता है। उसमें कुछ परिवर्तन बाहर से दिखाई पड़ते हैं मगर भीतर से वह जस का तस बना रहता है। उसका बलुत, उसकी येसकर पारी, उसके तीज-त्योहार, उसके मूल्य-मान्यताएं थोड़े बहुत बदलाव के साथ बने रहते हैं क्योंकि गांव बना रहता है। जाति व्यवस्था बनी रहती है, उच्च-जाति के लोगों का वर्चस्व बना रहता है।

 

इतने विस्थापनों और पलायनों के बावजूद महारवाड़ा शांत नहीं रहता है। दगड़ू मारुति पवार भले ही कावाखाना आकर बस जाते हैं मगर डॉक्टर अम्बेडकर के संघर्ष की गूजें वहां तक पहुंचती हैं। दलित आंदोलन की शिरकत और सक्रियता का असर वहां दिखाई पड़ने लगता है। परिवर्तन की लहर महारवाड़ा में उठने लगती है। मगर ऐसा नहीं है कि दलित आंदोलन से पहले महारवाड़ा में विद्रोर और संघर्ष दिखाई नहीं पड़ता। हजारों सालों से महारवाड़ा जातिव्यवस्था का विरोध अपने ही तरीके से करता आया है। मगर यह विरोध बड़े ही धीमे और स्वत: स्फूर्त ढंग से आगे बढ़ाता आया है। इस संघर्ष का एक रूप महारकी और बलुत के विषय में विकसित दंत कथाओं में देखने को मिलता है। इन गाथाओं में महारों का मेहनती और ईमानदार स्वभाव अपनी पराकाष्ठा में अभिव्यक्त हुआ है। मसलन् बादशाह की रूपवती कन्या को जंगल के रास्ते उसकी मंजिल पर पहुंचाने से पहले अपना लिंग काटकर बादशाह के पास रखकर जाने वाले महार नवयुवक की दंत कथा। बादशाह के बुर्ज को खड़ा करने के लिए अपने बहू-बेटे की बलि देने वाले येसाजी नायक की गौरव गाथा। बदले में महारों को मिलता है- महारकी के ५२ अधिकारों का तोहफा। दलितों को अपमानित करने के लिए महारों पर थोपी गई महारकी और बलुत की व्यवस्था को उन्होंने अपने अधिकार की व्यवस्था में बदल डाला। दलित जीवन में निरंतर घटित होने वाली अवमानना और शोषण से उत्पन्न निराशा और अवसाद से बचने और उसे गौरवपूर्ण रूप देने के लिहाज से ही शायद महारों ने इन दंत कथाओं को विकसित किया होगा।

 

इन दंत कथाओं के अलावा कुछ और भी ऐसी बातें हैं जिन्हें दलितों ने मौखिक तौर पर लगातार आगे बढ़ाया। इन बातों में दलितों के इतिहास की कड़िया छुपी हैं। इन बातों में दलितों के गौरवपूर्ण इतिहास दर्शन होते हैं। मसलन झुनझुने की लाठी का इतिहास। दया पवार ने लिखा है- रोटी मांगने अक्सर स्त्रियां जातीं। जिस घर में स्त्रियां न होती, उस घर से कोई बूढ़ा व्यक्ति झोली लेकर जाता। जाते समय वह झुनझुने की लकड़ी ले जाना न भूलता। इस लकड़ी की भी महारों में एक परंपरा है। कोई कहता इस लकड़ी में पहले झंडा भी होता था। हम राज्यकर्त्ता थे। युद्ध में हार गए

 

 उच्च जातीय शासकों और ब्राह्मणदी व्यवस्था के पैरोकारों ने उनके झंडे और हथियार छीनकर उन्हें गुलामी की निशानी के रूप में लाठी थमा दी। पता नहीं इन बातों में कितनी वास्तविकता है। मगर महारों ने अपने जीवन में कुछ ऐसी बातों को मौखिक तौर पर बनाए रखा जिसमें उनके विद्रोह की भावना दिखाई पड़ती है। वैसे अगर दलित शोद्यार्थी अगर मेहनत करें तो इन अनगिनत कड़ियों को जोड़कर दलितों के इतिहास की रचना की जा सकती है।

 

तरह-तरह की दंत कथाओं के विकास और ऐतिहासिक स्मृतियों को जीवित रखने के अलावा दलित-महार अपनी वर्तमान जीवन परिस्थितियों में कुछ यथार्थपूर्ण संघर्षों को अंजाम देते हैं। ब्राह्मणदी मंदिरों और कुओं पर बरती जाने वाली छुआछूत के चलते महारों ने अपने ही ढंग की उपासना पद्धति और कुओं का निर्माण किया। उन्होंने देवी-देवताओं और पीरों की समाधियां बनाकर उनकी पूजा आरंभ कर दी। हालांकि अछूतका लेखक सामान्य प्रवृत्ति से थोड़ा आगे बढ़कर इस तरह के पूजा पाठ का भी विरोध करता दिखाई पड़ता है। महारों ने ब्राह्मणदी मानसिकता से ग्रसित और छुआछूत की भावना से अभिशप्त तीज-त्यौहारों के विरोध स्वरूप अपने ही तरह के तीज-त्योहारों को विकसित किया है। उन्होंने अपने ही तरह के खेल-कूद और आमोद-प्रमोद के तरीके बनाए हैं। इसके अलावा वे बलुत और मजदूरी के लिए संघर्ष करते हैं। ऊंची जाति के लोगों द्वारा कुएं के साथ लगे रास्ते को अस्पृश्यता के डर से महारों के लिए बंद कर दिए जाने पर पूरा महारवाड़ा इसके खिलाफ संघर्ष करता है। बेहतर रोजगार अवसरों की तलाश में गांव से पलायन भी उनके संघर्ष का ही एक रूप है। महारवाड़ा में अपने मानवीय सम्मान को बनाए रखने और बेहतर सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के लिए वे समय-समय पर संघर्ष करते हैं। मगर ये संघर्ष ज्यादातर स्वत: स्फूर्त किस्म के होते हैं जो धीरे-धीरे सांगठनिक रूप लेते जाते हैं। महारवाड़ा का लक्ष्मण और दादा साहब गायकवाड़ का आंदोलन सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर महारों के संघर्ष को ठोस रूप देता है।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि अछूतमें महारवाड़ादलित जीवन का एक व्यापक चित्रा प्रस्तुत करता है। महारों के जीवन की विडम्बनाएं और उनके संघर्षों का एक समग्र रूप अछूतमें देखने को मिलता है। इस महारवाड़ा में दलित जीवन की दरिद्रता और अस्पृश्यता के अभिशाप की तमाम परतें दिखाई पड़ती हैं। इस महारवाड़ा का अपना इतिहास है, अपनी परंपराएं हैं। इसकी अपनी निराशाएं, कुंठाएं और अवसाद हैं तो उनसे बचे रहने के लिए गढ़ी गई महार गाथाएं भी हैं। इसमें एक तरफ महारकी है, बलुत है, येसकर पारी है तो दूसरी तरफ इनके खिलाफ उठता संघर्ष भी है जो शिक्षा और संघर्ष के प्रकाश से उदित हो रहा है। इसमें अभिशप्त, थकी और बोझिल छायाएं हैं तो दूसरी तरफ मुक्तिकामी अदम्य, दृढ़निश्चयी आंखें और बाजू भी हैं।

 

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गांव के काम बंद हो गए थे। इस कारण बलुत बंद। गांव में मजदूरी भी न मिलती। ग्राम व्यवस्था की उठा-पटक में उत्पादन-साधनों का कोई हिस्सा न था। रोटी पानी के लिए सब बम्बई में खो गए।

 

गांव का अभिशप्त माहौल और रोजगार के अवसरों का अभाव महारों को बम्बई जैसे शहरों की ओर धकेलता है। मगर जैसे गांव की संरचना में महारवाड़ा उनके हिस्से में आता है ठीक वैसे ही बम्बई में उनके हिस्से में आता है-कावाखाना! कावाखाना’-यानी गरीब और निम्न जातीय ग्रामवासियों का शहर में रहने का ठिकाना। शहर की आधुनिक जीवन शैली, चकाचौंध और आर्थिक सम्पन्नताओं से उपेक्षित एक बदनाम बस्ती। कावाखाना बम्बई का निचले स्तर का आधुनिक महारवाड़ा ही है। कावाखाना बम्बई शहर का अपने ही ढंग का महारवाड़ा है। महाराष्ट्र के अनगिनत महारवाड़ों का बम्बई शहर में मुक्ति की तलाश में आया और कावाखाना में बसने वाला हिस्सा। मगर महारवाड़े की त्रासदी यहां थी उसका पीछा नहीं छोड़ती बल्कि कावाखाने में वह नया रूप ले लेती है- शोषण और वंचना के नए तरीकों के साथ।

 

कावाखाना महारवाड़ा से विस्थापित महारों के सामने नई समस्याएं उत्पन्न करता है। जिन समस्याओं से मुक्ति की तलाश में महारवाड़ा शहर आता है वह नए सिरे से दूसरी समस्यों से कावाखाने में रूबरू होता है। रोजगार का अभाव, बदहाली, आवासीय सुविधाओं का अभाव ऐसी ही कुछ समस्याएं हैं जिन्हें महारवाड़ा कावाखाने में निरंतर झेलता है। कावाखाने में महारों की त्रासद जीवन परिस्थितियों के बारे में लेखक लिखता है-महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी। एक-एक दड़बे में दो-तीन उप किराएदार। बीच में लकड़ी की पेटियों का पार्टीशन। लकड़ी के इन्हीं संदूकों में उनका सारा संसार। पुरुष हमाली करते। किसी मिल या कारखाने में जाते। औरतें भी खूब खटतीं।

 

महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी’- इस वाक्य के घटियाशब्द में कावाखाने में रहने वाले महारों की पूरी जीवन परिस्थितिके हालात का यथार्थ छिपा हुआ है। महारवाड़ा में महारों की स्थिति जैसी थी लगभग वैसी ही स्थिति कावाखाने में है। कावाखाने में भी उनके हिस्से बदहाली पूर्ण जीवन और निम्न स्तर के काम ही आते हैं। कावाखाने में भी वे बदहाल और वंचित जीवन जीने को अभिशप्त रहते हैं। बम्बई शहर आर्थिक सम्पन्नता की ऊंचाईयां छूते हुए उन्हें उपेक्षित ही रखता है।

 

महारवाड़े की जातीय प्रवंचना से बचने और रोजगार की तलाश में दगड़ू मारुति पवार के पिता बम्बई शहर में आते हैं। उन्हें गोदी में हमाली का काम मिलता है और कावाखाने में सिर छिपाने की जगह। लेखक लिखता है-शुरू-शुरू में अकेले पिताजी ही गोदी में काम करते थे। बाद में उन्होंने एक-एक करके सबको गोदी में चिपका दिया।धीरे-धीरे उसके परिवार के अन्य सदस्य भी कावाखाने में घुसते जाते हैं। फिर लेखक और उसकी मां को भी वहां बुला लिया जाता है-कावाखाने में हमारे रिश्तेदारों का एक छोटा द्वीप ही था। बारिश में ज्यों आदमी अपना कोट समेट लेता है। ठीक उसी तरह ये सारे रिश्तेदार एक दूसरे के साथ रहते। उनका प्रेम और द्वेष साथ-साथ चलते।

 

कावाखाने में महारकी नहीं हैं, न येसकर पारी और न बलुत। यहां हमाली है और मजदूरी है- नगद। गोदी है, गोदी की तपती भटटी है और मेहनताना है। मगर यह मजदूरी और मेहनताना इतना नहीं है कि महारों को उनकी गरीबी और बदहाली से मुक्ति दिला दे उन्हें आर्थिक रूप से सम्पन्न बना दे। घर चलाने के लिए घर की औरतों को भी तरह-तरह से खटना पड़ता है। साथ ही, नौकरी छूट जाने और आर्थिक तंगी की तलवार उनके सिर पर लटकती रहती है। नौकरी छूट जाने पर फिर उसी महारवाड़ा में अभिशप्त होने वापस लौट जाते हैं जहां से मुक्ति की तलाश में भागकर आए थे। यह आना-जाना महारवाड़ा से पूर्ण संबंध विच्छेद होने या मृत्यु होने तक चलता रहता है।

 

कावाखाने में गांव जैसी साफ तौर पर दिखने वाली छुआछूत नहीं है मगर एक अदृश्य किस्म का सामाजिक भेदभाव है जो आर्थिक तौर पर काफी स्पष्ट दिखता है। अमीर और सुविधासंपन्न बम्बई, गरीब और सुविधाहीन कावाखाना। कारखाना और दफ्तर मालिक बम्बई, हमाल और मजदूर कावाखाना। कावाखाना बम्बई शहर को अपना श्रम बेचता है और अपनी गुजर-बसर करता है। मगर महारवाड़ा की तरह कावाखाना में भी आगे बढ़ने की इच्छा है और सम्पन्न होने की चाहत। इसे पूरा करने के लिए सीधे तरीकों के अलावा चोरी, जेब तराशी जैसे उल्टे तरीके भी अपनाए जाते हैं। कावाखाना में महारों की आर्थिक स्थिति में तो थोड़ा बहुत बदलाव दिखता है मगर सांस्कृतिक परिवेश और पारिवारिक संबंध ज्यों के त्यों बने रहते हैं- खास तौर से औरतों और बच्चों के मामले में। कावाखाने के महार पुरुष शराब और रंडीबाजी जैसी पैसा लुटाने वाली लतों के शिकार होकर अपनी बदहाल जिन्दगी को और बदतर बनाते हैं।

 

कावाखानादगड़ू मारुति पवार को महारवाड़े की तरह अभिशप्त रखता है। लेकिन बम्बई शहर उसे लगातार आकर्षित करता है। बम्बई उसे मुक्ति का शहरलगता है। उसके बचपन का कुछ हिस्सा कावाखाने में गुजरता है और युवा होने तक वहां के चक्कर लगाता रहता है। युवा होने पर महारवाड़ा छोड़कर वह यहीं बस जाता है। अपनी शिक्षा पूरी करके वह रोजगार की तलाश में बम्बई आता है। और कावाखाने में अपने रिश्तेदारों के द्वीप में उसके लिए जगह बन जाती है। मगर नौकरी उसे इतनी आसानी से नहीं मिलती-बम्बई में कदम रखते ही नौकरी मिलना संभव न था...... रोजगार दफ्तर की सीढ़ियां-चढ़ता उतरता था। निराश मन लिए घर आता था। शैडयूल्ड कास्ट की अलग लिस्ट होती। आज सी गंभीर परिस्थिति उन दिनों नहीं थी। काल भी आती परन्तु इंटरव्यू में मैं साफ उड़ जाता।

 

रोजगारहीनता युवाओं में कुंठाएं पैदा करती है, उन्हें कदम-कदम पर हतोत्साहित करती है। पढ़ने-लिखने के बाद पढ़ने-लिखने वाली नौकरी मिलनी चाहिए। यह चाहत शिक्षित दगड़ू मारुति पवार को मजदूरी भी न करने देती। वह मां की मजदूरी पर पलता है और शर्मशार होता रहता है। इसी बीच मां और रिश्तेदारों के जोर देने पर सई से उसका विवाह होता है। उसका हनीमून एक दु:स्वप्न की तरह गुजरता है। मां और बीबी के झगड़े उसके उत्साह को तोड़ते हैं। अंत में उसे नौकरी मिल जाती है- बीमार जानवरों के गोबर की जांच और जानवरों की चीड़-फाड़ करने वाले विभाग में। यह नौकरी उसके महार होने की वजह से उसे मिलती है। नौकरी पाकर उसे खुशी कम कोफ्त ज्यादा होती है। अपने आक्रोश को स्वर देता हुआ लेखक लिखता है-विचारों के तनाव से सिर फटने को होता। लगता, साला इतना पढ़-लिख गए, फिर भी बापजादों का धंधा ही अपने हिस्से क्यों आया। जाति की मानसिकता से ग्रस्त भारतीय समाज की यह विडम्बना ही है कि जिन गंदे कामों से मुक्ति के लिए दलित शिक्षित होता है, शिक्षित होकर भी वही काम उसके हिस्से आते हैं।

 

लेकिन इसे दगड़ू मारुति पवार के चरित्रा की खूबी की कही जाएगी कि वह लगातार इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह और आक्रोश प्रकट करता है और आगे बढ़ने के रास्ते खोजता रहता है। यहां भी आगे बढ़ने का एकमात्रा रास्ता उसे शिक्षा ही लगती है। वह रूपारेल कालेज जाने लगता है। नौकरी और कालेज में किसी तरह संतुलन बनाए रखकर वह बी.ए. करता है। अंतत: उसे एक मनमुताबिक सरकारी नौकरी मिल जाती है। तनावों और अन्तरद्वंद्वों से किसी हद तक मुक्ति मिल जाती है।

 

उम्र के चालीसवें पड़ाव पर उसे एक सुखी जीवन जीने का अहसास होता है। वह एक प्रसिद्ध दलित साहित्यकार और आफिसर के रूप में स्थापित होता है यहां आकर वह लिखता है-मैंने एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है। सात-आठ सौ की सरकारी नौकरी है। माई-बाप सरकार ने, किराए का ही सही, सबर्ब में मकान दिया है। पत्नी पढ़ी लिखी है। दो लड़कियां पढ़ रही हैं। अपना नाम चलाने के लिए पांच-छह साल का लड़का हाथों-कंधों पर फुदक रहा है। बड़ी लड़की की शादी हो गई। पिछले साल ही उसे लड़का भी हो गया है। यानी मैं उम्र के चालीसे में ही नाना बन गया। कुल मिलाकर बेल ऊपर चढ़ती हुई फल-फूल रही है।

 

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यूं तो अछूतदगड़ू मारुति पवार के चालीस साल की संघर्ष गाथा है और इसका केन्द्रीयय पात्रा भी वह खुद ही है। महार अछूतसे गुजरने के बाद लगता है कि अछूत का केन्द्रीयय पात्रा दगड़ू मारुति पवार नहीं है बल्कि महारवाड़ाऔर खावाखानाहैं। लगता है कि जैसे अछूत महारवाड़ाऔर खावाखानाकी ही अभिशप्त गाथा। इन दोनों के इर्द-गिर्द सैकड़ों ऐसे पात्रा और उनकी त्रासद जीवन परिस्थितियां हैं जो कहीं न कहीं जाकर इनके व्यापक रूप का ही प्रतीक मात्रा हैं।

 

महारवाड़ा और कावाखाना के बीच पिसते, घुटते और सिसकते सैकड़ों ऐसे चरित्रा हैं जो इन्हीं के बीच उभरते हैं और इन्हीं की सीमाओं के भीतर समाप्त हो जाते हैं। अछूतका एक छोर महारवाड़ा है तो दूसरा कावाखाना। इन दोनों के बीच केन्द्रीय चरित्रा दगड़ू मारुति पवार है और उसके इर्द-गिर्द सैकड़ों अभिशप्त चरित्रा हैं। महारवाड़ा और कावाखाना ग्रामीण और शहरी त्रासद दलित जीवन का समूचा चित्रा बनाते हैं। इस चित्र में दगड़ू मारुति पवार की संघर्ष गाथा तो है ही उसके अलावा सैकड़ों ऐसी गाथाएं हैं जिनका आधार महारवाड़ा और कावाखाना के सैकड़ों छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे दलित पात्र हैं।

 

दगड़ू मारुति पवार के जीवन में बहुत-सी स्त्रियां आती हैं। कुछ उसके जीवन से सीधे जुड़ी हैं। कुछ से उम्दा पारिवारिक संबंध है। कुछ ऐसी स्त्रियां भी हैं जो न उसके जीवन से सीधे जुड़ी हैं और न उनके साथ उनके पारिवारिक संबंध हैं। वह उसकी गाथा की सतहों पर समय-समय पर दिखाई पड़ती हैं और लुप्त हो जाती हैं। लेकिन ये सारी की सारी स्त्रियां उसकी जीवन गाथा के परिवेश में जूझती, हताश होती और शोषित होती दिखाई पड़ती हैं। ये स्त्रियां दोहरे अभिशाप से पीड़ित हैं। वह स्त्री होने के कारण घर के भीतर शोषित होती हैं और एक अछूत स्त्री होने के कारण बाहर भी उत्पीड़ित होती हैं। अछूत में जो स्त्रियां हमें घूमती दिखाई पड़ती हैं उनका व्यक्तित्व आधा-अधूरा ही है। वह अपने समूचे चरित्रा के रूप में हमारे सामने नहीं आती हैं। यही उनकी त्रासदी है, यही उनकी विडंबना है।

 

महारवाड़ा में अछूतपन की सीधा शिकार दलित, स्त्रियां ही हैं। अस्पृश्यता और ऊंच-नीच की जातीय मानसिकता का सबसे ज्यादा शिकार वहीं होती हैं। यह जानकर पुरुष की दलित चिंतकों को धक्का लगेगा कि बलुत और जूठन की जिस परंपरा के अभिशाप के बारे में वे बढ़-चढ़ कर अपनी आत्मकथाओं में लिखते आए हैं, उस अभिशाप का पहला शिकार दरअसल दलित समाज की स्त्रियां ही होती हैं। बलुत और जूठन मांगने जैसे नीच काम को उन्हें ही करना पड़ता है। वह अपने पतियों और परिवार के सदस्यों द्वारा तो सताई जाती ही हैं बल्कि उनकी निचली जाति और गरीबी का फायदा उठाकर ऊंची जाति के पुरुष भी उनका दैहिक शोषण करते हैं।

 

स्त्रियों को दोहरे शोषण की मार जीवन भर झेलनी पड़ती है। मुक्ति का शहर लगने वाले बम्बई शहर के कावाखाने में भी अछूत स्त्रियों की ही दुर्दशा ज्यादा होती है। उन्हें कहीं मुक्ति नहीं मिलती, न महारवाड़ा में और न कावाखाने में। कावाखाने में आकर भी दलित स्त्रियों को दलित पुरुषों की पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होना पड़ता है। कावाखाने में आकर उन्हें जूठन और बलुत मांगने जैसी नीच काम नहीं करना पड़ता मगर उनका शोषण कम नहीं होता। घर में खटने के बाद दलित स्त्रियों को पतियों की बुरी लतों के कारण उत्पन्न आर्थिक अभावों के कारण घर चलाने के लिए छोटे-मोटे धंधे भी करने पड़ते हैं। लेखक लिखता है-औरतें भी खूब खटतीं। सड़कों पर पड़ी चिंदियां, कागज, कांच के टुकड़े, लोहा, लंगर, बोतलें बीनकर लाना, उन्हें कांट-छांट की अलग करना और सुबह बाजार में ले जाकर बेचना यही उनका धंधा था। कुछ औरतें पास के वेश्यालयों में वेश्याओं की साड़ियां धोती। फिर भी उनकी कमाई पर उनका हक नहीं होता। वह अपनी कमाई खुद पर खर्च नहीं कर सकती बल्कि घर गृहस्थी में ही यह खर्च होती है। जबकि आदमी अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा शराब और रंडीबाजी जैसी अपनी बुरी लतों में खर्च करता है।

 

महारों-दलितों में किसी शक के बिना पर, बच्चा न पैदा होने की स्थिति में, या फिर अकारण ही अपनी औरतों को छोड़ देने की परंपरा घर कर गई है। यह उनकी पुरुषवादी सोच का ही नतीजा हैं। महारवाड़ा अगर उनसे बेगार करवाता है तो वह अपनी स्त्री को भी अपने बंधुआ मजदूर के रूप में ही इस्तेमाल करते हैं। जब तक चाहते हैं उसका हर संभव शोषण करते हैं और जब चाहे छोड़ देते हैं। अछूत में ऐसी हुई परित्यकता स्त्रियां हैं जो अपने पतियों द्वारा बदहाल और लाचार स्थिति में छोड़ दी जाती हैं। उनमें से कइयों को वेश्यालय में ठिकाना मिलता है जहां वे प्रतिदिन अपने जमीर और जिस्म का सौदा करती हैं और तिल-तिल मरने को अभिशप्त रहती हैं। सारी अच्छी बुरी दलित मूल्य-मान्यताओं और लोकाचारों का दुष्परिणाम भी उन्हीं को झेलना पड़ता है। दलित पुरुष हर कदम पर और हर रूप में उनका शोषण करते दिखाई पड़ते हैं।

 

महारवाड़ा में दगड़ू मारुति पवार की परित्यक्ता चाची की दुर्दशा उसके बालमन पर अभिट छाप छोड़ जाती है। चाचा अपनी औरत को छोड़कर शहर में दूसरी शादी कर लेता है। दगड़ू का पिता घर में स्त्री होने के बावजूद वेश्यालय में जाता है और रंडीबाजी करता है। उसका चाचा खेल दिखाने वाली औरत का लंबे समय तक मुफ्त दैहिक शोषण करता है। बम्बई में उसकी जमना मौसी को वेश्यालय नसीब होता है और वह वहीं तिल-तिल जीवन जीते हुए मर जाती है। बड़ी बहन के बच्चा न होने पर सीधी-साधी गऊ को अपने ही जीजा से ब्याह दिया जाता है। वह अपनी ही बहन की सौत बनकर जीने को अभिशप्त करती है। महारवाड़ा की एक जवान औरत का पति बम्बई कमाने जाता है। उनका ससुर उससे दुष्कर्म करने की कोशिश करता है। पंचायत लगती है तो उसका पति अपनी पत्नी पक्ष लेने की बजाए उसे अपने और अपने बाप के साझे की स्त्री बनाता है। बेटे की पत्नी ससुर की रखैल बनने को मजबूर होती है। यौंन विकृति की मारी सीता को इज्जत बचाने के नाम पर बड़े ही अमानवीय ढंग से दागा जाता है।

 

स्त्रियों के प्रति महारवाड़ा के पुरुषों जैसा ही बर्ताव खुद दगड़ू मारुति पवार में भी देखने को मिलता है। अपनी परित्यकता चाची और सीता के प्रति अपनी सहानुभूति दर्ज करने वाला दगड़ू अपनी स्त्री सई का दूसरे मर्द के साथ संबंध होने के शक करता है और उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर लेता है। यह दया पंवार की लेखकीय और व्यक्तिगत ईमानदारी ही कही जाएगी कि उन्होंने अछूतके तमाम स्त्री पात्रों की त्रासद जीवन परिस्थितियों को पूरे यथार्थपूर्ण ढंग से अपनी आत्मकथा में रखा है।

 

दगड़ू मारुति पवार की मां सखू का समूचा जीवन एक दलित स्त्री की त्रासद गाथा है। बचपन में शादी हो जाती है। पति शराबी और रंडीबाज निकलता है। वह रो-धोकर अपने पति के साथ अपने जीवन का एक हिस्सा गुजारती है और पति के मर जाने के बाद बाकी जीवन अपने बेटे के साथ। उसे कदम-कदम पर परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। पति के मर जाने पर पेट में गर्भ ठहर जाने पर उसका खुद का बेटा उस पर शक करता है। वह किसी तरह उसे विश्वास दिलाती है। लेकिन धीरे-धीरे उसका संघर्षशील व्यक्तित्व उजागर होता है जो एक दलित स्त्री की महानता और साहसिक उच्चता का ही पर्याय है। डा. अम्बेडकर का संदेश किसी रूप में उनके कानों तक पहुंचता है-महारन के मन में अपने बेटे के लिए कौन से सपने होते हैं। यही कि वह चपरासी हो या सिपाही। पर ब्राह्मणी की इच्छा होती है उसका बेटा कलक्टर बने। ऐसी इच्छाएं महार की मां को क्यों नहीं होती।शायद इसी भाषण का अनजाने में उस पर असर हो गया होगा इसीलिए अपने बेटे को पढ़ाने के लिए वह हर कष्ट उठाने को तैयार हो जाती है। गांव में मेहनत-मजदूरी करके घर चलती है। छात्रावास की नौकरी करके दिन रात खुद को भटटी में तपाती है। अपनी मां के पुरुषार्थ के बारे में लेखक लिखता है –“मां ने मर्दों-सी कमर कस ली। जिंदगी भर तूफानी कष्ट उठाए। उनके सामर्थ से मैं चकाचौंध हो गया। कावाखाने में बेटे के साथ आकर भी वह छोटे-मोटे धंधे करती रहती है। अंत में महारवाड़ा में आकर उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाती है। जिस मुक्ति के लिए दगड़ू निरंतर बेचैन और संघर्षशील रहता है वह मुक्ति उसकी मां के संघर्ष के बिना संभव नहीं हो सकती थी।

 

महारवाड़ाअछूत के नायक दगड़ू मारुति पवार को जीवन पय±त अभिशप्त रखता हैं। वह निरंतर महारवाड़ा के अभिशाप से ग्रस्त मुक्ति की तलाशता में छटपटाता है मगर कावाखाना में आने के बाद उसे नौकरी मिल जाती हैं। अंत में उसे सरकारी नौकरी भी मिल जाती है। इस प्रकार जिस मुक्ति के लिए वह निरंतर छटपटाता है, वह उसे किसी हद तक मिल भी जाती हैं। उम्र के चालीसवें पड़ाव में आकर वह लगभग एक सुखी जीवन जीता है।

 

मगर महारवाड़ा और कावारखाना के बीच सैकड़ों ऐसे दलित पुरुष पात्र हैं जिनकी जिन्दगियों में यह सुख नसीब नहीं होता। वह महारवाड़ा और कावाखाना के अभिशप्त घेरे के बीच छटपटाते हुए जीवन गुजारते हैं और अंत में उसी में मर भी जाते हैं। महारवाड़ा के हरि का कोढ़ी बाप घृणा का कारण बनता है। उसका बेटा उनकी खूब सेवा करता है और इस सेवा का परिणाम यह होता है कि हरि को भी कोढ़ हो जाता है। अपने बाप के कोढ़ को हरि जीवन पर्यत ढोता है। यौंन विकृति का शिकार रामू ऊंची जात वालों की घोड़ियों के साथ संभोग करके अपनी बेगार और घृणा के बर्ताव का बदला लेता है और पूरे महारवाड़ा के भीतर घोड़ी-चोदके रूप में बदनाम होता है। नौजवान शंकर किसी सनक में मंदिर की सीढ़ियों पर लात मारता है और पागल करार दे दिया जाता है। धीरे-धीरे वह पागल हो भी जाता है। लावण नामक तात्याबा शिंदे शहर के थियेटर परदे खींचकर अपना जीवन गुजारता है। जावजी बुआ और उनका लड़का बबन शराब की लत का शिकार होकर अपनी जर्जर काया के साथ अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं। दगड़ू के बचपन का साथी महादू जुए की लत का शिकार होकर बर्बाद हो जाता है। शराब की लत खुद दगड़ू के पिता को भी बर्बाद कर देती है। महारवाड़ा में नाटकों में अच्छा अभिनय करके प्रसिद्धि पानेवाला सदासिव घटिया दलित राजनीति का शिकार होकर अपने दु:खांत पर पहुंचता है।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि विविध कारणों से महारवाड़ा के महार पुरुष घनघोर दरिद्रता और पतित मानवीय विकृतियों की मार से अभिशप्त होते हैं। कुछ महारवाड़ा में ही जीते मरते हैं, कुछ भागकर कावाखाना पहुंचते हैं और उनकी जीवन लीला वहीं समाप्त होती है। कुछ बदहाली की हालत में महारवाड़ा वापस लौटते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यूं तो अछूतदगड़ू मारुति पवार की जीवन गाथा है मगर उसमें हमें सैकड़ों ऐसे अनेक दलित पात्रा दिखाई पड़ते हैं जो महारवाड़ा की त्रासद अमानवीय परिस्थितियों में अमानवीयता की हद तक पहुंचते हैं और मिट~टी में मिल जाते हैं। दरअसल ये सारे दलित पात्र समग्रता में एक दलित जीवन का चित्रा प्रस्तुत करते हैं जिन्हें महारवाड़ा का दंश कदम-कदम पर डसता है। उनकी निराशाएं, कुंठाएं, छटपटाहटें सबकी सब दलित जीवन की अन्तर वेदनाएं हैं जो उनके साकार रूप में हमें अछूत में दिखाई पड़ती हैं। ये सारे के सारे दलित पात्रा एक ऐसे अभिशप्त दलित जीवन को साकार करते हैं जिसमें दु:ख ही दु:ख हैं, सुख की कोई आशा नहीं है, जिसमें पतन ही पतन है, उत्थान की कोई राह नहीं है। सबके सब जाति, दरिद्रता और पतनशील सांस्कृतिक माहौल वाले महारवाड़ा में पैदा होते हैं और उसी में मर जाते हैं।

 

 

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जिन आंदोलनों के बीच मैं बड़ा हुआ, वहां राजनीति और समाज सेवा की रेखाएं आपस में उलझ चुकी थीं। पैदा होते ही पार्टी का कार्ड मिलता है। सोशल फोर्स ही इतना था कि आप अलग पार्टी में जाने की इच्छा रखते हुए भी उसका चुनाव न कर सकते। जिन्होंने ऐसा किया, वे बहिष्कृत हुए।

 

अछूत में राजनीति के कई आयाम देखने को मिलते हैं।एक तरफ महारवाड़ा के स्वत: स्फूर्त और संगठित आंदोलन हैं तो दूसरी तरफ दलितों के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वाली पार्टियाँ है। एक तरफ सत्ता के संस्थागत चरित्र और उसके सरोकार में बदलाव चाहने वाली राजनीति है तो दूसरी तरफ संस्थागत सत्ता के विकल्प के लिए संघर्षशील समाजवादी और साम्यवादी राजनीति है। दया पवार हिंदुस्तान के दलितों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो पैदा तो हुई उपनिवेशवादी भारत में और पली-बढ़ी आजाद भारत में। आजाद भारत में इस पीढ़ी ने कांग्रेस के सामंतवादी-ब्राह्मणदी और पूंजीवादी चरित्र की मार झेली और संपूर्ण मुक्ति के लिए संघर्षशील वाम राजनीति में अपनी मुक्ति की चाह देखी। मगर दलित मुक्ति के प्रश्न पर इन दोनों की असफलता और संकीर्णता ने उन्हें अपना ही आंदोलन खड़ा करने को मजबूर कर दिया। आजाद भारत में संगठित दलित राजनीति का उभार हुआ। दलित राजनीति ने देश भर के लाखों-करोड़ों दलितों को उनकी मुक्ति की इच्छा शक्ति पैदा की। मगर दलित राजनीति की यह विडम्बना ही है कि वह जिस प्रश्न को लेकर सत्ता के मैदान में उतरी थी, वह उसी सत्ता के खेल में मशगूल हो गई।

 

1947 में अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़कर चले गए और हिंदुस्तान की सत्ता कांग्रेस के हाथों में आ गई। स्वतंत्राता आंदोलन के दौर में कांग्रेस का मजबूत संगठन, देश के लगभग हर तबके में उसकी पकड़ और स्वतंत्राता आंदोलन में उसकी व्यापक सक्रियता आदि ऐसी वजहें थी जिनके चलते सत्ता उसके हाथों में आ गई। मगर कांग्रेस अपने समग्र रूप में सामंतवादी, ब्राह्मणदी और पूंजीवादी शक्तियों के गठजोड़ का केन्द्र थी। 1947 के बाद भी उनका यह गठजोड़ जस का तस बना रहा। सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने देश के विकास का जो रास्ता अख्तियार किया, उससे देश के मजलूमों, गरीबों, उत्पीड़ितों और वंचितों के हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया। दया पंवार ने इस बारे में लिखा है-स्वतंत्रता की जलेबी चौथी कक्षा में मिली। एक चमकदार बिल्ला मिला जिसमें भारत-माता की प्रतिमा अंकित थी। बड़े गर्व से छाती पर लगाकर उसे घूमता। परन्तु स्वतंत्राता मिली अर्थात वास्तव में क्या हुआ वैसे जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन याद नहीं।

 

वामपंथी राजनीति ने कांग्रेस के परंपरागत गठजोड़ का असली रूप उजागर किया। भारत की जनता में अपने व्यापक समर्थन के बावजूद वामपंथी आंदोलन कांग्रेस की सत्ता को उलट पाने में नाकाम रहा। दलित प्रश्न को लेकर वामपंथी आंदोलन की ऊहापोह और उसकी संकीर्णता ने दलितों में उनके व्यापक आधार में दरारें पैदा कर दीं। इस बारे में दया पवार ने अछूतमें लिखा है-उस समय के वामपंथियों को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि अस्पृश्यों की अपनी अलग समस्याएं हैं। जेड. पी. शक्कर के कारखाने और महाराष्ट्र की राजकीय सत्ता के हाथों में रहने के बाद भी अनजाने में इन्होंने ब्राह्मण संस्कृति की तरफदारी की.......। इनकी मानसिकता पारंपरिक ही थी। गांव का धनवान आदमी, चाहे वह समाजवादी हो या कम्युनिस्ट अस्पृश्यों की मजदूरी-समस्या की ओर पहले सा ही मगरूर होकर देखता।

 

दलित प्रश्न पर कांग्रेस की असफलता और वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के कारण एक स्वतंत्र दलित आंदोलन का उभार हुआ। डा. अम्बेडकर ने अपने अथक प्रयासों से एक सशक्त और व्यापक दलित आंदोलन को पैदा किया। डा. अम्बेडकर ने दलित समस्या को सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर ही नहीं देखा, उन्होंने इस समस्या के आर्थिक और राजनीतिक पहलू पर भी ध्यान दिया। उन्होंने जीवन भर दलितों के शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान के बारे में सोचा और इस दिशा में भरपूर मेहनत की। एक तरफ उन्होंने सत्ता के सांस्थानीकत ढांचे में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए संविधान बनाने जैसा महत्वपूर्ण कार्य किया तो दूसरे स्तर पर दलित संघर्ष को संगठित रूप देने की लगातार कोशिश की। उनका निजी व्यक्तित्व अपने आप में एक संघर्षशील व्यक्तिकी अप्रतिम मिसाल था। पंवार ने उनके बारे में लिखा है-अम्बेडकर ने आंदोलन की दाहकता सिखाई। संविधानिक स्तर पर दलित हितों के रक्षात्मक उपाय सुनिश्चित करा लेने के बावजूद उन्होंने आजाद भारत में रिपब्लिकन पार्टी आWफ इंडिया की स्थापना की। मगर उनकी मृत्यु के बाद आर.पी.आई. न सिर्फ उनके सिद्धांतों से नीचे उतर गई बल्कि उसमें विखराव भी पैदा हो गया और वह कई हिस्सों में विभाजित होकर लगभग शक्तिहीन सी हो गई।

 

डा. अम्बेडकर की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में सत्ता के दशक में एक जबरदस्त सामाजिक-राजनीतिक दलित आंदोलन का उभार हुआ। महारवाड़ा के दादासाहब गायकवाड़ के राजनीतिक आंदोलन ने दलित प्रश्न पर एक नई दिशा दिखाई। महारवाड़ा में लक्ष्मण गायकवाड़ जैसे सामाजिक कार्यकत्र्ताओं और दलित पेंथरजैसे आंदोलन ने दलित आंदोलन को एक व्यापक सक्रिय और जुझारू संघर्ष में तब्दील कर दिया। महारवाड़ा के समाज सुधार आंदोलन के कार्यकत्र्ता गांव-गांव पहुंचते। वे दलितों के आत्म सम्मान और आत्मविश्वास को पुनर्जाग्रत करने के लिए दलितों को सामूहिक तौर पर गंदे कार्य छोड़ने के लिए तैयार करते। इससे महारवाड़ों में एक भारी हलचल उत्पन्न हुई। सदियों से शोषित महार संगठित होकर अपने आत्म सम्मान, रोजगार व शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्षरत होने लगे।

 

डा. अम्बेडकर के बाद दादासाहब गायकवाड़ महारवाड़ा के ऐसे जुझारू नेता के रूप में सामने आए जिन्होंने समूचे महारवाड़ा के दलित युवकों को काफी प्रभावित किया। दलितों को आर्थिक तौर पर उठाने के लिहाज से उन्होंने भूमि अधिकार आंदोलन की शुरुआत की। इससे दलित आंदोलन को संघर्ष को एक वास्तविक आयाम मिला। दया पंवार ने दादासाहब गायकवाड़ के इस कदम की काफी सराहना की है। कावाखाने पहुंचकर जब दगड़ू मारुति पवार नौकरी पाने के लिए मंत्री बन चुके दादासाहब के पास मदद के लिए पहुंचता तो उनके परिवर्तित व्यवहार से वह उदास होता है और उसका व्यक्तिगत स्तर पर मोभंग होता है हालांकि सामाजिक स्तर पर वह दादासाहब गायकवाड़ के योगदान को महत्वपूर्ण मानता है। दया पंवार ने लिखा है-आज भी मेरा उनके प्रति जो प्रेम है, वह आंदोलनों वाले दादासाहब पर है जिसने विद्रोह करना सिखाया।

 

डा. अम्बेडकर के बाद जो दलित नेता उभरे वे सभी दादासाहब जैसे न थे। उनमें से अधिकतर आगे चलकर दलित समाज पर बोझ ही साबित हुए। इनमें से अधिकतर नेता सुधारवादी नेता थे और मध्यम वर्ग से आए थे। उनमें से अधिकतर मध्यवर्ग की जानी-पहचानी कमजोरियों की मिसाल थे। बहुतों की मानसिकता पुरातन मूल्यों की पोषक और समझौतावादी मानसिकता ही थी। ये सभी सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक पतित हो सकते थे। डा. अम्बेडकर के बाद आर.पी.आई. नेतृत्व पर हावी हुए बहुत से दलित नेता विकृत सामाजिक मानसिकता से ग्रस्त थे। इन लोगों ने डा. अम्बेडकर की बाहरी बातों की हूबहू नकल की। मगर सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर ये लोग विकृत मानसिकता के लोग थे। यह कहा जा सकता है कि ऐसे लोगों ने दलित आंदोलन की व्यापकता और दाहकता को काफी नुकसान पहुंचाया। देखा जाए तो आज भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है। दया पंवार ने ऐसे नेताओं के बारे में लिखा है-इनमें से अधिकांश नेता बाबासाहब की हूबहू नकल करते। बाबासाहब कुत्ता पालते तो ये भी पालते। बाबासाहब कीमती पेन रखते, ये भी रखने लगे। सूट पहनना आम बात हो गई थी।...... देहातों में जनता रास्तों पर धूल में पत्तलें बिछाकर लपसी खाती है और ये नेता अपने घरों में मुर्गी-शराब में मस्त। यह विसंगति बहुत खटकती। निश्चित ही इनके ये शौक लोगों के चंदे से पूरे होते।........ अनुयायियों के साथ गुलामों सा व्यवहार करने में उन्हें शर्म न आती।

 

राजनीतिक स्तर पर ये नेता और इनका दृष्टिकोण बाबासाहब के चिंतन और संघर्ष के स्तर तक ही सीमित हो गया। बाबा साहब मरते दम तक दलित उत्थान के लिए अपने सिद्धांतों और व्यावहारिक रणनीति में काफी पेफर बदल करते रहे थे। बाबा साहब दलित आंदोलन को मंदिर प्रवेश, कुंआं साझीदारी और धार्मिक स्तर पर समानता से आगे ले आए थे। उन्होंने दलित समस्या के राजनीतिक और आर्थिक पहलू पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया था। इससे पहले कि वे इस बारे में कोई ठोस पहलकदमी कर पाते उनकी मृत्यु हो गई। आर.पी.आई. के सत्तावादी और सुधारवादी मानसिकता के नेताओं ने दलित आंदोलन के वैचारिक पक्ष में कुछ खास इज़ाफा नहीं किया। उन्होंने बाबासाहब को देवता बना डाला। उनके चिंतन को अपरिवर्तनशील संपूर्ण। वे सामाजिक विकास के लिए स्तर पर और खासतौर पर आजादी के बाद दलित समाज के सामने आ रहीं चुनौतियों और समस्याओं को सुलझाने में नाकाम रहे। कहना चाहिए कि ऐसे लोगों ने दलित समस्या की जटिलता की गतिशीलता की पहचान को रणनीति बनाने की बजाए, उसे और उलझा दिया। दया पंवार ने इस बारे में लिखा है-सुधारवादी नेता आकर्षक नारे देने में बड़े निपुण थे। पार्टी का हाथी चुनाव चिहन फिर वापिस लाना है। एक ऐसी ही आकर्षक घोषणा थी। देश की संपूर्ण बुद्ध गुफाएं हमारे अधिकार में हो। सारा भारत बुद्धमय करना है।  उनकी यह घोषणाएं उनकी पिछड़ी राजनीतिक समझ को ही उजागर करती हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं होता कि ये लोग सत्तावादी और समझौतावादी किस्म के लोग हैं जो दलित आंदोलन जो काफी नुकसान पहुंचा रहे थे। उन्हें दलितों की आर्थिक समस्याओं से कुछ लेना देना नहीं था। दलित आबादी से प्रतिनिधित्व पाकर अपना ही पेट भरने वाले लोग परंपरागत मूल्य मान्यताओं की पोषक, दलित और जन विरोधी राजनीतिक सत्ता के पैरोकार ही हैं। दया पवार ने अछूतमें इन लोगों का बड़ा ही यथार्थपरक चित्र खींचा है। उन्होंने ऐसे नेताओं को काफी करीब से देखा। उनकी व्यक्तिगत विकृतियों और राजनीतिक विसंगतियों पर दया पंवार ने अछूतके आखिरी भाग में बड़ी बेबाक टिप्पिणयां की हैं। दलित राजनीति की विसंगतियों और सीमाओं को शायद दया पंवार ने ही काफी साफ तौर पर रेखांकित किया है।

 

 

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भारतीय साहित्य में आत्मकथात्मक लेखन एक आधुनिक व्यवहार का प्रतिपालन है। आधुनिकता ने मनुष्य को व्यक्ति के स्तर पर स्वतंत्रा किया। उसके विवेक, उनकी जीवनाभूतियों और व्यक्तित्व को समाज के स्तर पर मान्यता मिली। आधुनिकता ने मनुष्य को तो नई दृष्टि दी ही मगर वह खुद भी साहित्य और समाज के केन्द्र में आ गया। मगर वह आधुनिक मनुष्य की कई तरह की सीमाओं में जकड़ा रहा है। इन सीमाओं ने उनकी विवेकशीलता और रचनाधर्मिता को कई स्तरों पर प्रभावित किया है। दलित आत्मकथात्मक लेखन इस मायने में मनुष्य की आधुनिक जकड़बंदियों से मुक्ति का पर्याय बनकर सामने आया है।

 

वैसे भारतीय साहित्य में आत्मकथा लेखनबहुत कम हुआ है। मगर आधुनिक भारतीय साहित्य में जितनी आत्मकथाएं लिखी गई हैं उन्होंने आत्मकथा लेखन के कुछ मापदंड तो बना ही दिए हैं। मसलन आत्मकथा लेखन के बारे में अक्सर यह सुनने में आता है कि यह जीवन के अंतिम पड़ाव पर जीवन के तमाम अनुभवों के निचोड़ के रूप में लिखी जाने वाली कोई चीज है। लेकिन दलित साहित्यकारों ने इस मापदंड को चुनौती देते हुए जीवन के बीच के पड़ावों तक के अपने अनुभवों पर आत्मकथाएं लिखी हैं।

 

आत्मकथा लेखन के बारे में एक और बात सामने आती है। अक्सर आत्मकथा लिखते वक्त लेखक व्यक्तिगत स्तर पर थोड़ा सीमित और रोमानी हो जाता है। वह अक्सर अपने जीवन के ऐसे अनुभवों की चर्चा ही ज्यादा करता है जो उसे एक श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में दिखाते हैं। लेकिन दलित आत्मकथा लेखन ने साहित्य की इस परंपरावादी और अभिजात्यवादी मानसिकता को तोड़ा है। उन्होंने आत्मकथा लेखन में एक व्यक्ति के तौर पर अपने जीवन की व्यक्तिगत निराशा, कुंठा, अवसाद और अवमाननाओं की वेबाक अभिव्यक्ति की है। कहा जाता है कि दलितों का जीवन एक दु:ख भरी कहानी है। इसलिए आत्मकथाओं में इस दु:ख की, इस त्रासदी का बार-बार आना लाजमी है। मगर दलितों का यह दु:ख, यह त्रासदी व्यक्तिगत न होकर सामाजिक है। यह भारत के बहुतायत दलितों के शोषित, वंचित, कुंठित जीवन की पर्याय है। इस मामले में दलित आत्मकथाएं दलित जीवन की दु:ख भरी त्रासदी का पर्याय हैं। दया पवार के अछूतमें दगड़ू मारुति पवार के व्यक्तिगत जीवन की करूणगाथा महारवाड़ा के शोषित वंचित और उपेक्षित करूणगाथा का प्रतिनिधित्व करती है। अछूतअकेले दगड़ू मारुति पवार की जीवन की गाथा नहीं है बल्कि वह हजारों-हजार दगड़ूओं की त्रासद जीवन गाथा है। इस मामले में दलित आत्मकथाएं सामूहिक और सामाजिक आत्मकथाएं हैं।

 

दलित आत्मकथाओं के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसमें दलितों द्वारा अतीत में झेली गई प्रवंचनाओं, उपेक्षाओं और दु:खानुभूतियों का ही ज्यादा दर्शन होता है, वर्तमान जीवन की विसंगतियों के बारे में वह बहुत ही कम अभिव्यक्त कर पाती हैं। दलितों का वर्तमान जीवन अतीतकालीन जीवन की दु:खद स्मृतियों और गाथाओं की निर्मित है। दलित मुक्ति की राह भूतकाल के जीवनानुभवों को जानकर ही बनाई जा सकती है। भविष्य की दिशा अतीत से तय होती है। उनके वर्तमान जीवन के यथार्थ का आधार अतीत से ही निकलकर आता है। दलित आत्मकथाएं दरअसल अतीतकालीन जीवन की करूण और यथार्थपरक जीवन परिस्थितियों की जटिलताओं को खोलती हैं। इसलिए वे इस मामले में परंपरागत आधुनिक साहित्य के आदर्शवादी ढांचे के बरक्स एक यथार्थपरक अन्तर्वस्तु और भाषा में रची गई आत्मकथाएं हैं। तमाम संघर्षों और आंदोलनों के बावजूद परंपरागत आधुनिक साहित्य मध्यवर्गीय रूझानों और सीमाओं में फंसकर अपने जनवादी चरित्रा को खोता रहा है और किसी हद तक वह ठहर सा गया है। दलित आत्मकथाओं ने इस मामले में भारतीय साहित्य लेखन को एक नई दिशा दिखाई है। दलित साहित्य आधुनिक भारतीय साहित्य की सीमाओं और जकड़वंदियों से उसकी मुक्ति का आगाज़ बनकर सामने आया है। इस मामले में अछूतएक बेमिसाल कृति है।

 

कुल मिलाकर अछूतदलित साहित्य की एक श्रेष्ठ और सशक्त रचना है। इसने दलित साहित्य को न सिर्फ स्थापित किया है बल्कि अपनी समग्र अंतर्वस्तु और शिल्प के माध्यम से आधुनिक परंपरागत साहित्य की सीमाओं और जकड़बंदियों को जबरदस्त चुनौती पेश की है। अछूतदलित जीवन की त्रासदी का ही पर्याय नहीं है, वह भारत की बहुतायत आबादी के शोषित, वंचित, उपेक्षित जीवन और त्रासद जीवन परिस्थितियों का पर्याय भी है।

अपेक्षा, जुलाई-सितम्बर 2003 में प्रकाशित

 

दलित साहित्य आंदोलन के पक्ष में

मुकेश मानस

 

 

वर्तमान साहित्य के जनवरी और फरवरी अंकों में दलित विमर्श स्तम्भ के तहत भगवान दास मोरवाल और सूरजपाल चौहान के लेख दलित विमर्श के अन्तर्विरोधऔर दलित साहित्यकारों का मनुवादक्रमश: प्रकाशित हुए हैं। इन दोनों महानुभावों ने दलित साहित्य आन्दोलन में अन्दरूनी तौर पर चल रहे आन्तरिक अन्तर्विरोध जातिवाद या जाटव साहित्यकारों के वर्चस्व की मानसिकता को बड़ी शिददत के साथ उभारा है। इन्होंने ब्राह्मणवाद के साथ दलित साहित्य आन्दोलन के मुख्य अन्तर्विरोध को इतना महत्वपूर्ण नहीं माना है जितना दलित साहित्य आन्दोलन के भीतरी अन्तर्विरोध को। इसका नतीजा यह हुआ कि दलित आन्दोलन की भीतरी समस्या इनके लिए प्रमुख समस्या बन गई है और बाकी समस्याएं गौण।

 

यह तो एक ना एक दिन होना ही था। दलित आन्दोलन में दलित एकता के प्रयासों की कमजोरियों और इन प्रयासों में होने वाली गड़बड़ियों के चलते अन्दरूनी जातीय वर्चस्ववादी मानसिकता सिर उठाने लगी है। दलित आन्दोलन की तथाकथित राजनीतिक पार्टियों में और जन-संगठनों में यह समस्या अब ऊपर दिखाई देने लगी है। बामसेफ का विभाजन तो हो ही चुका है। दलित साहित्य आंदोलन में भगवानदास मोरवाल और सूरजपाल चौहान जैसे लोगों के प्रयास भी इसी दिशा में दिखाई दे रहे हैं।

 

कुछ ईमानदार और व्यापक दृष्टिकोण वाले दलित चिंतक अभी दलित साहित्य आन्दोलन में पूरी शिददत से दलित एकता का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि उनके इस प्रयासों की अन्तर्निहित और वैयक्तिक दिक्कतों को भी आसानी से समझा जा सकता है। फिर भी वे लोग इस बात को ज्यादा तूल नहीं दे रहे हैं। सब लोग दलित एकता के प्रयासों में जुटे हुए हैं। इसके चलते दलित आन्दोलन में सामूहिक सोच और वैयक्तिक आकांक्षाओं वाले दलित साहित्यकारों में तीखा संघर्ष शुरू हो चुका है। दलित आन्दोलन का भीतरी अन्तर्द्वन्द तेज हो रहा है। इन विमर्शकारों को लगता है कि दलित आन्दोलन के भीतर पनप रहे इस जातिवादऔर जातीय वर्चस्ववादी मानसिकता का निदान इसी अन्तर्द्वन्द में निहित है। उनकी मूल चिन्ता दलित एकता को बनाए रखने की है।

 

यह शायद कोई नहीं चाहता। खुद सूरजपाल चौहान और मोरवाल भी यह नहीं चाहते कि ताजा-ताजा अस्तित्व में आ रहे दलित आन्दोलन की उष्मा ब्राह्मणवाद-मनुवाद के खिलाफ संघर्ष में बिखर जाए। हालांकि दलित राजनीति के बिखराव और अवसरवाद में फंस जाने का प्रभाव दलित साहित्य आन्दोलन पर व्यापक रूप से एक ना एक दिन पड़ेगा ही। फिर भी इन बिखराववादी हालातों में दलित साहित्य आन्दोलन की एकता को हर हाल में बनाए रखना एक लाजिमी मसला बन गया है। इस तरफ प्रत्येक दलित साहित्यकार को चाहे वह जाटव हो या वाल्मीकि, अपने व्यक्तिगत मतभेद भुलाकर एक होना चाहिए। लेकिन ये दोनों महानुभाव एकता प्रयासों में अपनी भूमिका अदा करने के बजाए दलित साहित्य आन्दोलन में बिखराववादी मानसिकता को बढ़ाने की दिशा में दिख रहे हैं।

 

भगवानदास मोरवाल दलित साहित्य आंदोलन के एक सशक्त और व्यापक दृष्टि वाले चर्चित युवा उपन्यासकार हैं। उन्होंने दलित साहित्य आन्दोलन की अन्दरूनी समस्या पर उंगली रखकर बड़े साहस का काम किया है। किन्तु दूसरों की वर्चस्ववादी और संकीर्ण मानसिकता पर उंगली धरने वाले मोरवाल जी कहीं न कहीं अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और चक्रदार अन्तर्विरोधों से ग्रसित हैं। यह बात उनके लेख में साफ देखी जा सकती है। उन्होंने यह भी उचित नहीं समझा कि एक जागरूक दलित साहित्यकार होने के नाते पहले वे इस समस्या को दलित साहित्य आंदोलन के भीतर उठाते। वहां बहस और संघर्ष छेड़ते और वहां असफल होने पर ही इसे बाहर ले आते मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब उनके साहस को क्या माना जाए?

 

भगवानदास मोरवाल ने भीतरी अन्तर्विरोध को जाटवों और वाल्मीकियों के बीच जातिवाद के रूप में देखा है। सूरजपाल चौहान ने इस जातिवाद को व्यक्तिगत कडुवे-अनुभवों, दुर्भावनाओं और आरोपों से दलित साहित्यकारों के मनुवाद में बदल डाला है। उनके लेख में उनकी व्यक्तिगत खीजों और पूर्वाग्रहों को आसानी से देखा जा सकता है। वे दलित विमर्श की अन्तर्निहित समस्याओं को वैयक्तिक कुंठाओं और आरोपों के दायरे में खींच लाए हैं। वैयक्तिक आरोप-प्रत्यारोप की कहानी का कोई अन्त नहीं होता सूरजपाल जी। इससे लोग सिर्फ उपहास और उपेक्षा का पात्र बनते हैं।

 

बहरहाल, दलित साहित्य आंदोलन के विकास और उसकी निरन्तरता के लिए इन चीजों पर विचार-विमर्श करना एक जागरूक दलित साहित्य के विद्यार्थी के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन इन पूर्वाग्रहों, संकीर्णताओं और वैयक्तिव्य कुंठाओं पर कुछ और विस्तार से कहने से पहले मैं वर्तमान साहित्यके पाठकों से वो जरूरी बातें साझा करना चाहता हूं जो मुझे इस बारे में बहुत अहम लगती हैं। मैं खुद को जाटव या वाल्मीकि समुदाय में विभाजित नहीं देखता। हालांकि सरकार द्वारा जारी मेरे जाति प्रमाण पत्र पर मेरी भी उपजाति अंकित है फिर भी। मेरी दिलचस्पी जाटव या वाल्मीकि समुदाय में नहीं है बल्कि पूरे दलित समाज में है। सो, न तो मैं जाटव दलित साहित्यकारों का समर्थक हूं और न वाल्मीकि दलित साहित्यकारों का। मैं केवल और केवल दलित साहित्य आन्दोलन का समर्थक हूं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि दलित साहित्य आन्दोलन की एकता बनी रहे। इसीलिए मेरे इस लेख का वास्तविक मन्तव्य भी यही है, ना कि किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना करना या उसे नीचा दिखाना नहीं। हालांकि यह गुंजाइश तो बनी ही रहेगी कि वैयक्तिक आरोपों का जवाब भी उसी स्तर पर उतर आए।

 

भारतीय समाज की वर्ण आधारित संरचना ही कुछ ऐसी है कि उसमें प्रत्येक जाति के भीतर अनेक उपजातियां हैं और उन उपजातियों में ऊंच-नीच की मानसिकता भी बनी हुई है। इसे बहुत पहले डा. अम्बेडकर अपने लेखों में बता चुके हैं। जातीय वर्चस्ववादी मानसिकता केवल दलितों में ही नहीं व्याप्त है बल्कि दलितों के परम शत्रु ब्राह्मणों में भी व्याप्त है। ब्राह्मणों में भी एक विशेष ब्राह्मण उप-जाति का ब्राह्मण को अपने से छोटा मानता है। मोहनदास नैमिशराय की कहानी महाशूद्रइसी सन्दर्भ की कहानी है। इसके अलावा क्षेत्रीय आधार पर भी ब्राह्मणों में ऊंच-नीच होती है। एक विशेष क्षेत्र का ब्राह्मण दूसरे विशेष क्षेत्र के ब्राह्मण से खुद को शुद्ध मानता है। ब्राह्मणों की अनेक उप-जातियों में शादी-विवाह नहीं होते थे। इस भेद नीति के पीछे काफी सारे ऐतिहासिक-सामाजिक और धार्मिक कारण हैं। लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि अपने अन्दरूनी मतभेदों के बावजूद सारा ब्राह्मण समाज दलितों के शोषण के मामले में एक-सा ही व्यवहार करता है।

 

भगवानदास मोरवाल और सूरजपाल चौहान ने अपने लेखों में जिस जातिवादको दलित साहित्य आन्दोलन की केन्द्रीय समस्या के रूप में चिन्हित किया है वह दलित समाज और दलित साहित्य आन्दोलन की मौलिक अन्दरूनी समस्या है। मगर यह समस्या न तो आज प्रकट हो गई है और न एक तथाकथित विशेष जाति के दलितों ने इसे पैदा किया है। यह भारतीय समाज के जातीय ढांचे की अन्तर्निहित समस्या है जो दलित समाज में भी काफी पीछे से चली आ रही है। दलित साहित्य आन्दोलन के सामने यह समस्या एक चुनौती की तरह खड़ी है और दलित साहित्य आन्दोलन के लिए काफी बड़ा खतरा भी है। इस खतरे से आंखें मूंदकर या इसे बढ़ावा देने से दलित साहित्य आन्दोलन को भारी क्षति उठानी पड़ सकती है। भगवान मोरवाल की नजर में इस खतरे का मूल कारण केवल जाटवों की वर्चस्ववादी जातिवादी मानसिकता ही दिखती है। भगवानदास मोरवाल ने लिखा है कि जिस तरह पिछड़े होने का अर्थ केवल यादव है उसी तरह दलित होने का अर्थ केवल जाटव है। यह भगवानदास मोरवाल का खुद का निष्कर्ष है और कहना न होगा कि यह एक एकांगी निष्कर्ष है।

 

इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि दलितों में एक नहीं, दो नहीं अनेकों दलित उप-जातियां हैं और उनमें एक-दूसरे के प्रति छुआ-छूत की भावना व्याप्त है। परन्तु यह भी एक सच्चाई है कि दलितों में कुछ विशेष जातियां विकास के रास्ते पर काफी आगे आ चुकी हैं और कुछ जातियां अभी काफी पीछे हैं। क्या आगे आने वाले सिर्फ इसलिए दोषी ठहराए जाएंगे कि वे आगे आ चुके हैं। आजाद भारत में आरक्षण व्यवस्था के चलते दलितों को मिले तमाम मौके और विकास के अवसर कहीं न कहीं से तो आरम्भ होने ही थे। माना अपनी वस्तुगत परिस्थितियों के चलते दलितों में जाटव लोग आज हर क्षेत्र में काफी तरक्की कर चुके हैं और वे तमाम सामाजिक-राजनीतिक संस्थानों में शिरकत कर रहे हैं। क्या केवल इस बात से यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि दलितों का अर्थ केवल जाटव हैं। भगवानदास मोरवाल को इस निष्कर्ष पर आने से पहले कम से कम यह तो बताना चाहिए था कि दलितों में शेष उपजातियों के लोग आज किस मुकाम पर हैं? क्या उनमें से बहुत-सी उपजातियों के लोग वाल्मीकि समाज से भी निचले पायदान पर नहीं खड़े हैं। क्या कल को वो भी वाल्मीकियों की वर्चस्वता पर सवाल नहीं उठाएंगे? फिर मोरवाल जी उन्हें क्या जवाब देंगे।

 

सच्चाई यही है कि बाकी दलित उप-जातियां भी अपनी वस्तुगत-परिस्थितियों में जागरूक होकर, तमाम बाधाओं से जूझते हुए और विकास के अवसरों का लाभ उठाकर धीरे-धीरे आगे आ रही हैं ठीक वैसे ही जैसे जाटव उपजाति के लोग आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं और तमाम संस्थानों में उनकी हिस्सेदारी मोरवाल जी और सूरजपाल जी को उनका वर्चस्व नजर आ रहा है। विकास के पायदान पर सभी एक साथ नहीं आ सकते। शायद समाजवाद में ही ऐसा संभव हो मगर समाजवाद अभी दूर का सपना है और उसे लाने के लिए अथक संघर्ष की जरूरत है और ऐसा संघर्ष अभी भी जारी है। किन्तु हमारे सामने अभी यथार्थ यही है कि विकास के सफर में कुछ आगे हैं और कुछ पीछे। अब सवाल ये है कि विकास के रास्ते पर काफी आ चुके तथाकथित जाटव दलित उपजाति के लोग क्या कर रहे हैं। क्या सभी जाटव केवल अपने व्यक्तिगत स्वाथो± की पूर्ति में लगे हैं? या कुछ ऐसे हैं ;कुछ तो होंगे ही मोरवालजी जो बाकी दलित समाज को जागरूक बनाने और उसके उत्थान में लगे हैं। जाटव समुदाय के सारे लोग न तो संकीर्ण हैं न वर्चस्ववादी मानसिकता के। रहा सवाल संकीर्णता और जातिवादी दुर्भावना का तो यह दलितों की अन्तर्निहित समस्या है और इसके खिलाफ लगातार नित नए मोर्चे खोलने और संघर्ष करते जाने की जरूरत है। केवल एक एकीकृत और प्रतिबद्ध दलित आन्दोलन ही इस तरह की मानसिकता से मुक्ति दिला सकता है। अगर यह एकीकृत और प्रतिबद्ध दलित आन्दोलन मोरवाल जी और सूरजपाल के ध्यान में होता तो शायद वे खुद ऐसी संकीर्णता और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त मानसिकता से काम नहीं लेते।

 

भगवानदास मोरवाल ने लिखा है कि दलितों का यह भीतरी अन्तर्विरोध मुख्य अन्तर्विरोध क्यों नहीं हो सकता? सवाल मुख्य और गौण अन्तर्विरोध का नहीं है मोरवालजी। सवाल दलितों के उत्थान और ब्राह्मणवाद को शिकस्त देने का है। दूसरी बात ये है कि इतिहास में भी यह देखा जा सकता है कि किसी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के भीतर एक नहीं सैकड़ों अन्तर्विरोध होते हैं। कुछ खत्म होते हैं तो नए पनपते रहते हैं। बाहर की लड़ाई में अक्सर भीतर की विभिन्न विचारधारात्मक शक्तियां एक हो जाती हैं। जिस तरह ब्राह्मणवाद के खिलाफ बाहरी संघर्ष एक दिन में खत्म नहीं हो जाना, उसी तरह भीतरी संघर्ष भी एक दिन में खत्म नहीं हो जाएंगे। ये तो रहेंगे। लेकिन बाहरी शत्रु के खिलाफ अन्दर की एकता जरूरी होती है। वामपंथी आंदोलन अपने भीतरी बिखराव और अन्तरर्विरोधों से ही ज्यादा टूटा है और कमजोर हुआ है, मगर ये भी एक सच्चाई है कि जिस तरह वह बाहरी अन्तरर्विरोधों से जूझ रहा है, उसी तरह आन्तरिक अन्तरविरोधों से भी। दलित आन्दोलन भी ऐसे ही हालातों से गुजर रहा है। किन्तु दलितों का अपना हितार्थ इसी में है कि वह ब्राह्मणवाद को शिकस्त देने के लिए एकजुट रहें और साथ ही साथ आन्तरिक समस्या से भी निबटें।

 

कई बार किसी ढांचे में कुछ मूल्य संस्थाबद्ध और रूढ़िवादी हो जाते हैं तब संघर्ष की नई शक्तियां वहां अन्दर संघर्ष चलाती हैं। सही होने पर भी अगर बार-बार उनको दबाया जाता है और उनकी आवाज को जगह नहीं मिलती तो ये शक्तियां पुराने ढांचे को तोड़कर नया ढांचा बनाती हैं। किन्तु यह सब भीतर संघर्ष किए बिना नहीं होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो इसे अवसरवाद कहा जाता है।

मैं भगवानदास मोरवाल से ही यह पूछना चाहूंगा कि जिस तथाकथित वर्चस्ववादी मानसिकताकी ओर उन्होंने उंगली उठाई है, उनके खिलाफ दलित साहित्य आन्दोलन के भीतर संघर्ष चलाने में उन्होंने कितना योगदान दिया है? क्या वे इस बात की डिटेल दे सकते हैं कि उन्होंने दलित आन्दोलन के भीतर कितने मंचों से, किस-किस रूप में इस वर्चस्ववादी मानसिकताके खिलाफ संघर्ष का झंडा उठाया है? दलितों की एकता के उन्होंने आन्दोलन के भीतर कितने प्रयास किए हैं? जो आदमी न सिर्फ दलित आन्दोलन के बाहर खड़ा है और दलित आन्दोलन के भीतर इस मानसिकता के खिलाफ संघर्ष में शामिल नहीं, वह आन्दोलन से बाहर खड़ा होकर उसमें व्याप्त जातिवादका रोना रोए, बात कुछ गले नहीं उतरती।

 

उनकी अपनी तंगनजरी और पूर्वाग्रहों से ग्रसित मानसिकता के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। फिलहाल एक नमूना उनके अपने लेख से ही उठाते हैं। रजतरानी मीनू द्वारा तैयार दलित लेखकों की सूची को उन्होंने मनमर्जी और मौकापरस्ती का उदाहरण बताया है। उनके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि इसमें राजेन्द्र यादव, रामकुमार कृषक, लीलाधर मंडलोई, गोविन्द प्रसाद, प्रेमकुमार मणि जैसे लेखकों का कोई उल्लेख नहीं है। ......पिछड़ों के नाम पर दलित लेखकों के रूप में सिर्फ एक जाति के लेखकों का उल्लेख करना दलित साहित्य में अपनी मनमर्जी और मौकापरस्ती का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है?

 

एक शोधार्थी की अपनी बहुत सी समस्याएं हो सकती हैं। कई बार सूचनाओं की और कोर्डीनेशन की कमी भी होती है। देखा गया है कि शोधार्थी बाद में भी नई-नई सूचनाओं की रोशनी में अपने शोधों में परिवर्तन करते चलते हैं। लेकिन दु:खद बात ये है कि रजतरानी मीनू ने दलित साहित्यकारों की जो सूची तैयार की है उसे मोरवाल जी एकदम अन्तिम सूची मानते हैं। यह सूची जैसे किसी वेद का कोई मंत्र हो जिसमें न एक शब्द जोड़ा जा सकता हो न घटाया। इस बात की मौकापरस्ती और मनमर्जीपन की मिसाल बनाने से ज्यादा बेहतर होता कि मोरवाल जी दलित आंदोलन के सगे हितैषी के रूप में रजतरानी मीनू को उन नामों की सूची देते जिनके नाम वह अपनी सूची में शामिल करना भूल गई हैं। इसके अलावा एक और नई सूची बनाई जा सकती थी और उसमें वे नाम जोड़े जा सकते थे। यह एक छोटी-सी गड़बड़ी थी जिसे रजतरानी मीनू से बातचीत करके मोरवाल जी ठीक करा सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि उन्हें इस गड़बड़ी को एक विशेष अर्थ में प्रयोग कर लिया। इस सूची में जो अन्य लोग शामिल नहीं हैं (जिनके नाम मोरवाल जी ने गिनाए हैं) उनमें से कुछ लोग दलित साहित्य से सहानुभूति रखने वाले साहित्यकारों के रूप में जाने जाते हैं, दलित साहित्यकारों के रूप में नहीं। आज तक इनमें से किसी ने खुलकर यह घोषणा नहीं की है कि वे दलित वर्ग से सम्बन्धित हैं या नहीं और उसके द्वारा चलाए जा रहे संघर्ष के प्रति उनका क्या नजरिया है?

 

हंस के फरवरी अंक में अनेक साहित्यकारों की टिप्पणियां छपी हैं। उनमें मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और भगवानदास मोरवाल की भी टिप्पणियां हैं। मोरवाल जी के नाम के नीचे अंकित है चर्चित युवा कथाकार-उपन्यासकार चर्चित दलित युवा कथाकार-उपन्यासकार चर्चित दलित युवा कथाकार-उपन्यासकार नहीं जबकि नैमिशराय और बेचैन की टिप्पणियों के नीचे दलित विचारक एवं लेखक अंकित है। इसके अलावा दलित साहित्य 2000 की तैयारियों की एक बैठक में उनसे लगातार रचना मांगी गई। परन्तु वे टालते गए और अंतत: उन्होंने रचना नहीं ही दी। यह क्या है भगवान दास जी? आपकी अपनी संकीर्णता या जातीय हीनता या दलितों में शामिल हो जाने पर प्रगतिशील न हो पाने का डर? मोरवाल जी केवल नाम के आगे दलित लग जाने से कोई दलित संकीर्ण या प्रगतिशील विरोधी नहीं हो जाता। एक दलित भी प्रगतिशील और व्यापक दृष्टिकोण वाला हो सकता है। जरूरत जातीय हीनता और कुंठा से बाहर आने की है। डा. अम्बेडकर ने अपनी जाति कभी नहीं छुपाई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि दलित वर्ग से सम्बन्धित और खुलकर खुद को दलित बताने वाले डा. अम्बेडकर की ही देख-रेख में जनतांत्रिाक मूल्यों वाले संविधान का किसी हद तक निर्माण हो सका।

 

संकीर्ण मानसिकतावादी केवल दलित साहित्य आंदोलन में नहीं है वे प्रत्येक आंदोलन में देखे जा सकते हैं। लेकिन आंदोलन के तीव्र और व्यापक होते जाने पर या तो संकीर्णतावादियों को अपनी संकीर्णताओं का त्याग कर देना पड़ता है या फिर आंदोलन उन्हें पीछे छोड़ देता है। दलित आंदोलन में अनेक लेखक संकीर्णतावादी-रूढ़िवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं। साथ ही यह भी एक सच्चाई है कि उनके विरुद्ध संघर्ष भी चल रहा है। कुछ दलित साहित्यकार आंदोलन की रोशनी और सामूहिक चेतना के दबाव में अपनी संकीर्णताओं का त्याग कर रहे हैं और व्यापक जनवादी रवैया अपना रहे हैं। इतिहास गवाह है कि जनता के किसी भी आंदोलन में संकीर्ण मानसिकतावादियों का वर्चस्व हमेशा नहीं रहता है। वह आंदोलन के विकास के साथ-साथ विघटित होता रहता है।

 

दलित आंदोलन का वैचारिक-व्यावहारिक आधार अभी विकास की प्रक्रिया में ही है। उसमें पुरानी रूढ़ियां टूट रही हैं और नई बातें जुड़ रही हैं। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं कि दलित आंदोलन का जो स्वरूप आज है दस साल बाद वह वैसा नहीं रहेगा। दलित आंदोलन एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है कोई जड़ प्रक्रिया नहीं। उसमें नए-नए दृष्टिकोण समाहित होंगे। पुरानी धारणाएं टूटेंगी और नई बनेंगी। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी शवयात्राके बारे में भी यह सच है। इस कहानी के बारे में आरम्भ में कुछ दलित विमर्शकारों में जो राय बनी थी वह अब बदल रही है और उसे व्यापक फलक पर देखा जा रहा है। खासतौर से युवा दलित हितैषी इस कहानी में निहित चुनौती को समझ रहे हैं और इस दिशा में दलित एकता के लिए अग्रसर हैं।

समस्या मोरवाल जी की अपनी है। वे इस कहानी के बारे में कुछ विशिष्ट समीक्षकों-आलोचकों की पुरानी राय को लेकर ही परेशान है। नई राय को वे देखना नहीं चाहते। वे इस कहानी के बारे में दलित आलोचना को 1998 में ही अटकाए रखना चाहते हैं। जबकि इस कहानी को लेकर दलित आंदोलन में नई बहस चल रही है और नई राय बन रही है। इसके अतिरिक्त इस कहानी को लेकर जिन लोगों की संकीर्णता का हवाला दिया गया है उनमें से कुछ लोग दलित साहित्य वार्षिकी के सम्पादक मंडल में भी हैं। इस वार्षिकी में एक कहानी सूअरबाड़ाछपी है जो निम्नतर की शहरी कालोनियों में रहने वाले दलितों में व्याप्त जातीयता भेदकी ओर इशारा करती है। साथ ही अलावा उन पर पड़ने वाले पूंजीवादी सामन्तवादी व्यवस्थाओं के कुप्रभावों को भी। जो लोग शवयात्राको दलितों में जाति भेद फैलाने वाली और फूट डालने वाली कहानी मान रहे थे उन्हीं की देख-रेख में ही यह कहानी भी वार्षिकी में छपी है। क्या इसको नोटिस में नहीं लेंगे मोरवाल जी? बात ये है कि दलित विमर्श कोई ठहरी हुई चीज नहीं है। वह एक क्रियाशील और परिवर्तनशील कर्म है। बस यही एक बात मोरवाल जी समझना नहीं चाहते। दलित आंदोलन एक व्यापक मानवीय आधार पर खड़ा आंदोलन है वह ज्यादा देर तक इस जातीय संकीर्णतासे घिरा नहीं रहेगा। जल्दी ही इससे निजात पा लेगा।

 

दलित लेखक संघदलित साहित्यकारों का संघ है। उसमें सभी दलित उपजातियों के लेखकों को आने की छूट है और चुनाव के जरिए उनमें से किसी भी उपजाति का साहित्यकार इसका अध्यक्ष हो सकता है। अभी केवल दो उपजातियों के लोग इसमें मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। इसीलिए दलित लेखक संघ की कार्यकारिणी में दोनों उप-जातियों के लोगों का संतुलन बनाए रखना चुनौती का काम है। महेन्द्र बैनीवाल के नाम का प्रस्ताव करते वक्त रजनी तिलक की टिप्पणी इसी सन्दर्भ में देखी जानी चाहिए। जब दलेस में कई उप-जातियों के लोग सक्रिय हो जाएंगे तब यह संतुलन चुनाव प्रक्रिया के द्वारा और विचारधारात्मक मसलों पर बनेगा पर अभी फिलहाल यही स्थिति है। ऐन चुनाव के वक्त रजनी तिलक की जो बात सूरजपाल चौहान को नश्तर की तरह चुभ गई, मैं पूछना चाहता हूं उन्होंने उसका विरोध क्यों नहीं किया? पहले वह चुप क्यों रह गए? बाकी सब तो जातिगत दुर्भावना से ग्रस्त थे और वह उससे मुक्त, फिर वह क्यों नहीं बोले? पिछले एक साल से वह दलेस के अध्यक्ष थे। अगर उन्हें लग रहा था कि दलेस में जातीय दुर्भावना बढ़ रही है तो अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने इस दिशा में क्या काम किया? क्या उन्होंने दलेस में कभी इस बात को बहस का मुद~दा बनाया? अगर नहीं बनाया तो अब किसी दूसरे तथाकथित जाटव के अध्यक्ष बनते ही उन्हें वहां जातिवाद या मनुवाद कैसे नजर आया? अब वे इस पर अपना रोना क्यों रो रहे हैं?

इन दोनों महानुभावों ने दलित साहित्य आंदोलन में जातिवादके जिस अन्तर्विरोध को उजागर किया है उसके केन्द्र में डाW. तेज सिंह हैं। बकौल इनके डाW. तेज सिंह जाटव हैं और संकीर्णतावादी हैं। मोरवाल की नजर में डाW. तेज सिंह इसलिए संकीर्णतावादी हैं क्योंकि वह जाटव हैं और सूरजपाल की नजर में वे संकीर्णतावादी इसलिए हैं क्योंकि वह जाटव होने के साथ-साथ माक्र्सवादी भी हैं। वाह! सूरजपाल जी। क्या खूब पहचाना आपने जातिवाद और संकीर्णतावाद के मूल कारक को।

 

सूरजपाल चौहान का कहना है कि वे वर्षों तक मार्क्सवादियों के बीच रहे हैं और इतने समय में जब मार्क्सवादियों के बीच उनकी पहचान नहीं बनी तो वे अपनी पहचान बनाने के लिए दलित साहित्य आंदोलन में कूद पड़े। अब सवाल ये है कि क्या कोई दलित, दलित आंदोलन में केवल अपनी पहचान बनाने के लिए आ रहा है। डा. तेज सिंह अगर माक्र्सवादियों के बीच से दलित साहित्य आंदोलन में आए हैं तो इसकी वजह वहां उनके भ्रम का टूट जाना है। तथाकथित वामपंथी संगठनों में जो दलित, दलित-मुक्ति के प्रश्न को लेकर गए थे वहां उन्हें उत्तर नहीं मिला। यह बहुत अच्छा है कि डा. तेज सिंह जैसे लोग अब अपने आंदोलन में वापस लौट रहे हैं। इसमें दलित साहित्य आंदोलन का फायदा ही है नुकसान नहीं।

 

ये सही है कि कुछ लोग दलित साहित्य आंदोलन में अपनी वैयक्तिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आ रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। प्रत्येक आंदोलन में ऐसे लोग होते हैं। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि दलित साहित्य आंदोलन कुछ खास व्यक्तियों की वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का आरामगाह नहीं है और न ही उनको पूरा करने का साधन। दलित साहित्य आंदोलन सम्पूर्ण दलित जीवन की ट्रेजेडी की अभिव्यक्ति है। वह एक सामूहिक प्रयास है। इस सामूहिक प्रयास में शामिल होकर ही उनकी वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति। दलित साहित्य आंदोलन में वैयक्तिक स्वाथो± के साधकों के लिए कोई जगह नहीं है ऐसे लोग यहां ज्यादा देर तक नहीं टिक पाएंगे। वे अंतत: दलित विरोधी ही साबित होंगे और दलित आंदोलन उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाएगा। डा. तेज सिंह अगर संकीर्ण मानसिकतावादी हैं तो वह यहां ज्यादा देर तक टिक नहीं पाएंगे। उन्हें या तो अपनी संकीर्ण मानसिकता का त्याग करना पड़ेगा या फिर दलित आंदोलन की नई शक्तियां उन्हें बाहर कर देंगी।

 

सूरजपाल चौहान ने हंस के जनवरी अंक में छपे उनके लेख ;हिन्दी उपन्यास: दलित विमर्श का पुराख्यान का हवाला दिया है और कहा है कि यह लेख संकीर्ण मानसिकता से भरा पड़ा है। डा. तेज सिंह का लेख सवर्ण कथाकारों-उपन्यासकारों की दलित चेतना का खुलासा करने वाला लेख है। इस लेख में सवर्ण साहित्यकारों की दलितों के प्रति तंगनजरी और फूट की मानसिकता की खुलासा किया है। उन्होंने लिखा है कि वे दलितों की समस्या और उनके मर्म को ठीक से नहीं जान पाते और वे उसे गलत दिशा में ले जाने का प्रयास करते है। वे अपनी सवर्ण मानसिकता को छोड़ नहीं पाते हैं और अपने लेखन में किसी न किसी रूप में उसी से काम लेते हैं।

 

इसके अलावा सूरजपाल चौहान ने उनकी हाल ही में प्रकाशित एक किताब (आज का दलित साहित्य) के बारे में लिखा है कि यह एक आधी-अधूरी और संकीर्ण मानसिकतावादी रचना है। उन्होंने यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि इस किताब में संकीर्ण मानसिकता किस रूप में है और कहां-कहां है? और तो और उन्होंने उस किताब से एक पंक्ति भी ऐसी उद्धृत नहीं की है जिससे यह साबित हो कि उसमें संकीर्ण मानसिकता से काम लिया गया है। सिर्फ यह कह देने भर से कि अमुक रचना संकीर्णतावादी है, से वह रचना संकीर्णतावादी नहीं हो जाती उसे सिद्ध करना होता है और यह काम उन्होंने नहीं किया है।

 

सूरजपाल चौहान ने डा. तेज सिंह के बारे में कहा है कि वे संकीर्ण मानसिकतावादी हैं। दलित साहित्य का उनका ज्ञान अधकचरा है। इसीलिए वे समय-समय पर दलित साहित्य के बारे में फतवे जारी करते रहते हैं। सूरजपाल जी बुरा न मानें। डाW. तेज सिंह फतवे जारी करते हैं या नहीं किन्तु इनकी उपरोक्त टिप्पणियों से पता चलता है कि खुद सूरजपाल चौहान जरूर फतवा जारी कर रहे हैं। किसी किताब को बिना पढ़े-समझे एक लाइन में उसे संकीर्ण मानसिकतावादी बता देना यह किसी कुशल फतवाकार का ही काम हो सकता है।

 

आज का दलित साहित्यसंकीर्ण मानसिकतावादी है या नहीं यह सिद्ध करना इस लेख का विषय नहीं है, किन्तु उस पुस्तक पर एक स्वतंत्र लेख अपेक्षित है। किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि इस किताब पर दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित परिचर्चा में राजेन्द्र यादवऋ जयप्रकाश कर्दम, अजय तिवारी जैसे दलित साहित्य के पैरोकार उपस्थित थे जिन्होंने इस पुस्तक पर स्वतंत्र विचार प्रकट किए थे। सभी ने इसे दलित साहित्य का व्यापक दृष्टिकोण से जांच-पड़ताल करनेवाली आलोचना पुस्तक माना है।(सूरजपाल जी चाहें तो पिछले वर्ष हम दलितमें इस पुस्तक पर आयोजित परिचर्चा की मनोज केन द्वारा लिखित रपट देख सकते हैं)

 

आगे सूरजपाल चौहान ने डा. तेजसिंह को दलित साहित्य का अलंबरदार माना है तो इस बारे में बस इतना ही कहना है कि दलित साहित्य का अलम्बरदार कोई एक व्यक्ति नहीं है, वे सभी हैं जो दलित साहित्य आंदोलन में पूरी शिददत में लगे हैं। हम सब दलित साहित्य के अलम्बरदार हैं और दलित साहित्य के अलम्बरदार बनकर हमें व्यापक जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों वाले दलित साहित्य आंदोलन के निर्माण में अपनी-अपनी भूमिका एक सामूहिक उददेश्य की तरह निभानी है।

वर्तमान साहित्य के अप्रैल 2001 अंक में प्रकाशित

 

 

 

 

 

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