कागज़ एक पेड़ है
खवाब आंखों में गर नहीं होते
इतने आसां सफर नहीं होते
आज जब मैं इन कविताओं को देखता हूं तो मुझे बहुत हैरत होती है। सोचता हूं कि मैंने इतनी कविताएं कैसे लिख लीं। जिन हालातों में मैंने आज तक ये जीवन जीया है, जिन निराशाओं, तनावों और कुंठाओं से लड़ते हुए मैं आज जहां तक पहुंचा हूं उनमें कविता लिखना शायद मेरे लिए सबसे मुश्किल काम था।
मुझे नहीं मालूम कि मेरे शायर दोस्त प्रदीप साहिल ने ये शेर क्या सोचकर लिखा है। पर मेरे यह एकदम सच है। कविता लिखना मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं है। सपना यानी पतंग जिसे ऊंचा और ऊंचा उड़ाने की इच्छा मेरे मन में हमेशा ही रही है। मगर चरखड़ी नहीं थी मेरे पास। धीरे-धीरे मैंने कुछ धागा जुटाया और अपनी मुसीबतों को चरखड़ी बनाकर मैने कविताएं लिखी और उन्हें को पतंग बनाकर उड़ाने की कोशिश की। और आज भी कर रहा हूं।
इन कविताओं ने मेरे साथ एक लंबा सफर तय किया है। लगातार मुश्किलों के घुप्प अन्धेरों में फंसना, उन मुश्किलों से टकराते हुए खुद को परखना, आत्म-विश्वास में भरना और नए आकाश तय करने के लिए लगातार जी-तोड़ मेहनत करना। ये सब ही इस सफर के मोड़ हैं। इन्हीं मोड़ों पर ये कविताएं मेरे पास आ गई है। मुझे लाचार निराशा और परास्त मानसिकता से उबारती हुई, अकेलेपन और बेसहरापन में सहारा देकर हौसला अफ़्जाई करती हुई और सफर के नए मुकामों को छूने की कूबत भरती हुई।
आज मैं यह कह सकता हूं कि इन कविताओं ने लगातार मुझे गढ़ा है और मैंने इनको। आज जैसे मैं काफी बदला हुआ हूं वैसे ही ये कविताएं भी बदल गई है। अपने मूल रूप के घेरे से ये कविताएं बाहर आ चुकी हैं जैसे मैं। कुछ कविताएं अपने मूल रूप में छंदबद्ध थीं जो मुक्त कविताएं बन गई। शायद कहीं न कहीं मेरी अपनी कुंठाओं से मुक्ति का पर्याय बनती हुई। कुछ कविताएं अपने मूल रूप में दो-तीन पंक्तियों की थीं जिनमें बाद में कई सारी पंक्तियां और जुड़ गई। क्या कहूं इसे? यह शायद मेरे अपने विवेक, संवेदन और अभिव्यक्ति कौशल में होने वाले विस्तार का ही प्रतिबिम्ब हैं। कई कविताएं ज्यों की त्यों रह गई हैं, बिना किसी हेर-फेर के। शायद उनमें किसी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं थी, या मुझमें इतनी कूबत नहीं थी कि मैं उनमें कुछ हेर-फेर कर पाता। कुछ कविताएं बहुत लम्बी-लम्बी थी जिनकी केवल कुछेक पंक्तियां ही रह गई। मेरे लिए वे अब भी अधूरी हैं, अपूर्ण हैं जैसा कि मैं खुद।
आज मैं ये बात पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता हूं कि इन कविताओं में ‘मैं’ हूं, सिर्फ ‘मैं’ या ये कविताएं सिर्फ मेरी कविताएं हैं। इन कविताओं में कहीं न कहीं मैं अवश्य दिखाई पडूंगा ही। इन कविताओं में जो एक रोशनी जगमगाती है वह शायद मेरे अपने आत्मसंघर्ष, आत्मविश्वास और परिश्रम का ही नतीजा है या फिर उन दोस्तों की छाप है जिन्होंने समय-समय पर मुझे संभाला और मुझमें सपने देखने और उन सपनों को हकीकत में ढालने के लिए दिन-रात एक करने की प्रेरणा दी। मगर अब ये कविताएं मेरी नहीं हैं। ये कविताएं मेरे समय की हैं। समय की मुश्किलों, निराशाओं, तनावों और साहस की हैं। ये समय मेरा अपना ही नहीं है, मेरे परिवार वालों का भी है। मेरे दोस्तों का भी है। और मेरे जैसे अनगिनत हमसफरों का भी है जो अभी भी अपने समय में, अपने समय की मुश्किलों से जूझ रहे हैं।
मुकेश मानस
मार्च 2001
पतंग और चरखड़ी
जिन बच्चों के पास
चरखड़ी और पतंग नहीं थी
उन बच्चों ने खुद को
चरखड़ी बना लिया
और खुद को ही पतंग
वो बच्चे अभी तक
खुशियों के अम्बर को
छूने की कोशिश में लगे हैं
बार-बार गिरते
बार-बार उठते
उन्हीं बच्चों में
शामिल है ये कवि
और उसकी कविता
वक्त का जादू
भोले-भाले मासूम बच्चे
खेलते-खेलते गायब हो जाएं
अल्ल-सुबह घूमने निकले बुजुर्ग
लौटकर घर न आएं
चहकती-महकती लड़कियां
ख़ौफ़ज़दा पुतलियों में बदल जाएं
देखते-देखते खुशबूदार फूल
धारदार शूल बन जाएं
हमने पहले तो नहीं देखा
भई वाह!
कैसा जबरदस्त जादू है
जो यह वक्त हमें दिखा रहा है।
जून 2000
पतंग और चरखड़ी
।। 1 ।।
वो पतंग लाया
वो लाया चरखड़ी
चरखड़ी मुझे थमाई
उसने पतंग उड़ाई
उसने हमेशा पतंग उड़ाई
मैंने बस चरखड़ी हिलाई
1985
।। 2 ।।
बच्चों के पास
पतंग थी
तो चरखड़ी नहीं थी
बच्चों के पास
चरखड़ी थी
तो पतंग नहीं थी
पतंग और चरखड़ी
एक साथ पाने का सपना
बच्चों के पास
हमेशा था
1996
।। 3 ।।
बच्चे हैं बहुत
पतंगें हैं कम
चरखड़ियां तो और भी कम
चरखड़ियों में धगा
बहुत-बहुत कम
कहां गई पतंगें?
कहां गई चरखड़ियां?
कहां गया धागा?
1997
।। 4 ।।
जिनके पास चरखड़ी होती है
वे पतंग उड़ाना सीख ही जाते हैं
जिनके पास चरखड़ी नहीं होती
वे शायद ही पतंग उड़ा पाते हैं
जिनके पास चरखड़ी नहीं होती
वो खुद चरखड़ी बन जाते हैं
और कवि की कविता में
पतंग उड़ाते हैं। 1999
आंखें
तेरी आंखें चंदा जैसी
मेरी आंखें काली रात
तेरी आंखों में हैं फूल
मेरी आंखों में सब धूल
तेरी आंखें दुनिया देखें
मेरी आंखें घूरा नापें
तेरी आंखें है हरषाई
मेरी आंखें हैं पथराई
तेरी आंखें पुन्य जमीन
मेरी आंखें नीच कमीन
तेरी आंखें वेद पुरान
मेरी आंखें शापित जान
तेरी आंखें तेरा जाप
मेरी आंखें मेरा पाप
तेरी आंखें पुण्य प्रसूत
मेरी आंखें बड़ी अछूत
1997
औरत
झाडू लगाते-लगाते
एक जीती जागती औरत
झाड़ू में बदल जाती है
धीरे-धीरे
इस देश की
एक समूची औरत
तिनका-तिनका बिखर जाती है
1987
हत्यारे
हत्यारे घूम रहे हैं
खुल्लम-खुल्ला, बड़ी शान से
अमूर्त हो रहे हैं अपराध्
और हत्यारे बरी
दुनिया का कोई कानून
उन्हें हत्यारा नहीं मानता
हत्यारों को पहनाई जा रही हैं
रंग-बिरंगी पगड़ियां
उनकी मनुहार हो रही है
जय-जयकार गूंज रही है
समूचे ब्रह्मांड में
मैं हैरान हूं
दुनिया में अरबों बच्चे
गूंगे क्यों हो रहे हैं? 1999
मनुवादी
उसने मेरा नाम नहीं पूछा
मेरा काम नहीं पूछा
पूछी एक बात
क्या है मेरी जात
मैंने कहा - इंसान
उसके चेहरे पर उभर आई
एक कुटिल मुस्कान
उसने तेजी से किया अट्टहास
उस अट्टहास में था
मेरे उपहास का
एक लम्बा इतिहास 1988
बाज़ार से गुजरते हुए
घिर रही है सारी ध्रती
सामान के अंबार से
दुकानों में बदल रहे हैं घर
बाजार बन रही है दुनिया
अब कहां रहेंगे वो लोग
जो भरे हैं
इंसानियत और प्यार से
1997
घोड़ों की बस्ती
यहां जिन्दगी बेमानी
मौत बड़ी ही सस्ती है
ये घोड़ों की बस्ती है
यहां जनमते हर घोड़े को
पहना दी जाती एक लगाम
चारे की चक्की में जुटकर
करना पड़ता हरदम काम
दाना-पानी एक लगाम
जीवन के हर पल की धड़कन
बस लगाम में बसती है
ये घोड़ों की बस्ती है।
हर घोड़े की पीठ पे रहती
कसी हुई एक जीन
जिस पर बैठा रहता है
अदृश्य सवार महीन
दूर कहीं महलों में रहता
सदा मौज के मद में बहता
पर घोड़ों की एक लगाम
उसके हाथों में रहती है
ये घोड़ों की बस्ती है।
है सवार के हाथ में कोड़ा
मार-मार कर इन्हें भगाता
डरते रहते ये कोड़े से
कोड़ा इन्हें नचाता
काम पे जाते जख्म लिए
काम से आते जख्म लिए
पीड़ा इनकी उस मालिक को
जरा भी नहीं खटकती है
ये घोड़ों की बस्ती है
ना छुट्टी, आराम नहीं
नहीं तीज, त्यौहार नहीं
नाव समय की चलती है
दर्दो-गम का पार नहीं
ऐसा जीवन जीते हैं
दुख झरने को सीते हैं
ये किस्मत पर करें भरोसा
किस्मत इनको ठगती है
ये घोड़ों की बस्ती है।
थके-थके जब घर आते हैं
मन रोने को करता है
खून भरे घावों को अक्सर
चुप-चुप गिनता रहता है
खामोशी में सोते हैं
खामोशी में जगते हैं
देख-देख इनको कविता भी
चुप-चुप पीड़ा सहती है
ये घोड़ों की बस्ती है।
एक यही चिंता मेरी
कब सोचेंगे ये घोड़े
दुख और दर्द मिटाने को
कब ठहरेंगे ये घोड़े
बहुत नहीं तो थोड़ा हूं
मैं भी तो एक घोड़ा हूं
मुक्तिमार्ग की कोई किरण तो
नहीं मुझे भी दिखती है
ये घोड़ों की बस्ती है 1990
चाह
भाग जाऊं
भागकर कहां जाऊं
लौटकर आना है
यहीं इसी नरक में
जीवन बिताना है
यहीं इसी नरक में
बार-बार होती है चाह
क्या यहां से निकलने की
नहीं है कोई राह......??
1986
दु:ख
दु:ख हर मौसम में होते हैं
मौसम के बदलने से
दु:ख नहीं बदलते
बदलने का
सिर्फ अहसास होता है
1986
हरिपाल त्यागी के चित्र
ये औरत है
या मेरे देश की धरती
कितनी वेदना, कितना दर्द है
ये बच्चा है
या मेरे देश का सूरज
कितना पीला, कितना ज़र्द है
ये पेड़ है
या मेरे देश का अंजुमन
कितना प्रदूषित, कितना काला-सा
ये चिड़िया है
या मेरे देश का सपना
इसे क्यों लगा है पाला-सा
1998
उन्नीस सौ चौरासी
मेरी गली की
औरतें दुखियारी
विधवा हैं सारी
सब जी रही हैं ऐसे
मजबूरी में कोई
रस्म निभाए जैसे
मेरे ज़हन में
कभी नहीं सोती है
सारी गली रोती है
1985
मूर्तिकार
मिट्टी को गूंथकर
मूरत बनाता है
बनाकर सुखाता है
रंगों से सजाता है
मूरत को सजाकर
भगवान बनाता है
मंदिर में लगाता है
मूर्ति लगाकर
बाहर जो आता है
बाहर ही रह जाता है
भगवान का निर्माता
अछूत हो जाता है
1985
बरखा और बच्चे
बरखा आई, बरखा आई
लगा बरसने पानी
मत रोको उन्हें
मत टोको उन्हें
कब कोई रोक पाया
बच्चों की रवानी
वे तो नहाएंगे
मस्त हो पानी में
बच्चे जो ना होते
तो क्या रहता
बरसात के पानी में
1993
फैसले
रास्ते
बार-बार नहीं बनाए जाते
फैसले
बार-बार नहीं लिए जाते
लिए गए फैसलों पर
आंसू नहीं बहाए जाते
1993
दादा खुराना
।। 1 ।।
हमने देखा था एक चेहरा
किताबों की दुकान में
किताबों के गट्ठर
कभी खोलता हुआ
कभी बांधता हुआ
किसी न किसी किताब के
पन्ने उलटता हुआ
किताबों पर पड़ी धू झाड़ता हुआ
लोहे की कुर्सी पर बैठकर
कभी-कभी चाय की
चुस्कियां लेता हुआ
वह नहीं
उसकी मुस्कान बताती थी
कि उसकी दुकान पर
कुछ नई किताबें आई हैं
वह अजीब दोस्त था
हमसे कुरेद-कुरेद कर
हमारा हाल-चाल पूछता
और अपना हाल-चाल
बड़ी मुश्किल से बताता
हममें से बहुतों पर उसका बकाया था
और बहुतों का उस पर
पर उसे विश्वास था
और वह विश्वास पर जीए जाता था
हमने देखा था एक चेहरा
किताबों की दुकान में
।। 2 ।।
उसे चेहरे को रोज देखना
उसे सलाम करते हुए
एक आत्मविश्वास से भर जाना
इतना नियत था
कि अब भी जब उधर निकलते हैं
तो हाथ अनायास उठ जाते हैं
नमस्कार की मुद्रा में
सचमुच विश्वास नहीं होता
कि वह चेहरा
जो हरदम किताबों से घिरा रहता था
अब किताबों के बीच नहीं है
हम बड़े खुशनसीब रहे
कि हमने उस चेहरे को देखा
उसके साथ चाय की चुस्कियां लीं
उससे गुफ़्तगू की
अपनी निराशा के दिनों में
सलाह मशविरे किए।
1998
गइया
इधर भी गइया
उधर भी गइया
सब जग गइया है
गइया की जय-जय करो
गलियों में गइया
सड़कों पे गइया
कूड़ों पे गइया है
गइया की जय-जय करो
भूखी है गइया
प्यासी है गइया
रोती गइया है
गइया की जय-जय करो
ध्रम की गइया
करम की गइया
भरम की गइया है
गइया की जय-जय करो
खोट की गइया
नोट की गइया
वोट की गइया है
गइया की जय-जय करो
1996
सदी
एक सदी जा रही है
हमारी वीरता
हमारे शौर्य
और हमारी पराजय की गाथाएं लेकर
एक सदी आ रही है
अंधकार बढ़ रहा है
बर्बरता गा रही है
उठ रहे हैं यातना शिविर
न ग्लानि है, न शर्म है
चहुं ओर पसरी है निराशा
एक ठंडी शांति है
किंकर्तव्यविमूढ़ता
और ऐसे में
एक सदी जा रही है
एक सदी आ रही है
1999
गुब्बारे वाला, गुब्बारा और पूजा
।। 1 ।।
तीन साल की पूजा
इंतजार कर रही है
गली में झांकती हुई
पूजा को सुननी है
दूर से पास आती
पीपनी की आवाज़
गली में घुसते ही
बजाता आता है गुब्बारे वाला
जिसे हमारे घर तक
।। 2 ।।
गुब्बारे वाला पीपनी बजा रहा है
पूजा सुन रही है
पीपनी से निकलकर
हवा में फैलती धुन
एक अदभुत खुशी चमक रही है
उसके चेहरे पर
पूजा की ये खुशी
उसके लिए
कितनी बड़ी है
इस खुशी का एहसास
बड़े नहीं कर पाते हैं
वे बच्चे नहीं बन पाते हैं
।। 3 ।।
पूजा गुब्बारा हिलाती है
गिराती, उछालती है
खूब खुश होती है
गुब्बारा फूटता है अचानक
पूजा सहमती है, सोचती है
उसकी नन्हीं आंखों में
विस्मय उभर आता है
एक दिन पूजा जान जाएगी
कि उसने जाना है
खेल-खेल में
कितना बड़ा सच
उस दिन पूजा
बड़ी हो जाएगी
मेरी ये दुआ है
कि बड़ी होती पूजा में
जीवित रहे हमेशा
एक नन्हीं, शरारती पूजा
1999
अपूर्वा के तीसरे जन्मदिन पर
कभी-कभी
आज फिर
गरज रहे हैं बादल
बरस रहा है पानी
तरस रहा हूं मैं
दो चार बूंदों के लिए
1994
तस्वीरें
कुछ तस्वीरें
दीवारों पे सजती हैं
कुछ तस्वीरें
एलबमों में लगती हैं
कुछ तस्वीरें
दिलों में बसती हैं
1989
बस गवैया
चलती बस की खड़ी भीड़ में
देखो बच्चा चूमता है
चूमता है दोनों हाथ
चूमता शीशे की पट्टियां
सूखा गला साफ करता है
होठों पर जीभ फिराता है
वह शुरू करेगा अब कोई गीत
दिन भर वह गा सके मधुरतम
यात्रियों को लुभा सके उसकी आवाज़
निकलें गीत पेट से उसके
आओ बंधू दुआ करें
1991
सवाल
एक सवाल है
जो रोज मुझसे मिलता है
कोई खुशी नहीं होती
मुझे उससे मिलकर
मैं उससे बचने की
हर संभव कोशिश करता हूं
मगर ताज्जुब है
वह बड़ी आसानी से
मुझे खोज लेता है
जैसे कि वह मेरे भीतर हो
या जैसे कि ‘वह’ मैं खुद हूं
आंखों में आँखें डालकर
बस यही पूछता है
जीवन ऐसा क्यों मिला
जीते हुए जिसे
हर पल होता रहे गिला
1998
फिर
फिर कोई निराशा
पनप रही है मेरे भीतर
फिर कोई धुआं
भर रहा है मेरे सीने में
फिर कोई धूल
मेरी आंखें दुखा रही है
फिर कोई हताशा
मुझको रुला रही है
चमको-चमको
खूब तेज चमको
मेरी प्रेरणा के सितारो
मुझको इस निराशा से उबारो
1989
मगर
मारा गया बच्चा
सड़क पार करता हुआ
तेजी से आते ट्रक ने
कुचल दिया बच्चा
अपनी बीबी
और अपने बच्चे की खातिर
भाग गया ट्रक वाला
मगर यह बच्चा तो मारा गया
सड़क पार करता हुआ
1986
महानगर
लोगों को ढूँढता फिरा मैं
लोग नहीं मिले
घर मिले बहुत
मार तमाम घर
घर थे बहुत
और लोग नहीं थे घरों में
घर ढूँढता फिरा मैं
घर नहीं मिले
लोग मिले बहुत
मार तमाम लोग
लोग थे बहुत
और उनकी आंखों में घर थे
1998
मुश्किल
ये कैसी उदासी है
जो खत्म नहीं होती
ये कैसी कहानी है
जो जज़्ब नहीं होती
ये कैसा अन्धेरा है
जो छांटे नहीं छंटता
ये कैसा दर्द है
जो बांटे नहीं बंटता
ये कैसा वक्त है
काटे नहीं कटता
1993
मेरी गली मे
गली में आया एक बच्चा
आठ-दस साल का
ठंड में ठिठुरता हुआ
पीपनी बजाकर
गुब्बारे बेचता हुआ
मुझे प्यार आता है इस बच्चे पर
रोज-रोज आए
ये बच्चा मेरी गली में
गली में आया एक अधेड़
हट्टा-कट्टा सही-सलामत
चोगा और रुद्राक्षी लटकाए
ईश्वर के नाम पर
भीख मांगता हुआ
मुझे नफरत होती है उससे
क्यों आता है
ये निठल्ला मेरी गली में
1992
हमारा समय
खिड़कियां खटखटाई जा रही हैं
हम नहीं सुनते
दरवाजे भड़भड़ाए जा रहे हैं
हम नहीं खुलते
लोग हर सिम्त मारे जा रहे हैं
हम नहीं उठते
इंसानियत का बरतन खाली धरा है
मरते हुए जीना
हमारे समय का
सबसे क्रूरतम मुहावरा है
1994
अपना होना
कई दिन गुजरे
खूब रहा उदास
कहीं कोई रोशनी नहीं
हर सिम्त बेआस
इस बेआस दिनों में
खुद को जाना
अपने होने को पहचाना
1994
स्कूल
घंटी बजती है
बच्चे आते हैं
नींद में भरे-भरे
किताबों से लदे-लदे
घंटी बजती है
बच्चे जाते हैं
सहमे-सहमे, डरे-डरे
थके-थके और मरे-मरे
स्कूल में तितली नहीं दिखती
चिड़िया नहीं गाती
पानी कल-कल नहीं करता
पेड़ों की छांव रूठ जाती है
बच्चों की दुनिया टूट जाती है
1987
घोड़ा
सबको अच्छा लगता है
जब तक घोड़ा दौड़ता है
घोड़े के मर जाने पर
कोई याद नहीं करता
घोड़े की कब्र पर
कोई मर्सिया नहीं पढ़ता
मरे हुए घोड़े का
कोई फोटो नहीं खींचता
उसकी बेजोड़ कुलांचों पर
कोई किताब नहीं लिखता
1987
विजय दशमी
राम ने पुतलों में आग लगाई
अन्याय पर न्याय ने विजय पाई
आयोजकों ने दी बधई
लोगों ने खुशी मनाई
इस धरा पर
जलाए गए रावण
कित्ते बड़े-बड़े
और हंसते रहे अन्यायी
जीवित खड़े-खड़े
1995
अन्धेरा
अन्धेरा मुझे घेरता है
मैं भागता हूं
मैं भागता हूं
और भाग नहीं पाता हूं
अन्धेरे के पंजों में
घिर-घिर जाता हूं
अन्धेरे के सपने
मुझे ही क्यों आते हैं
मैं ही क्यों फंसता हूं
अन्धेरे के चंगुल में
जागने पर सुबह क्यों होती है?
सूरज क्यों निकलता है?
1995
रात, दिन, बच्चा
मैंने देखी है एक रात
चौखट पर खड़ी उदास
मैंने देखा है एक दिन
खाली हाथ लौटता हुआ
मैंने देखा है एक बच्चा
ठंडे फर्श पर टांगे ओढ़ता
मैंने पाया है खुद को
बेबस और लाचार
यूं ही उदास रहेगी रात
खाली हाथ लौटेगा दिन
बच्चा कँपकपा कर जम जाएगा
1990
हिरोशिमा दिवस पर
वे कौन थे
जिन्होंने गांधी को मारा
गांधी के हत्यारों को
गांधी की पहचान थी क्या
गांधी के हत्यारे
क्या निश्चित हुए कभी
गांधी क्या सचमुच
मार दिए गए
1997
किसी क्षण
मर गई चाची
जैसे मरते हैं और लोग
मर जाएंगे वो सब
जिनके साथ
मैं आज खेलता हूँ
लड़ता-झगड़ता हूँ
जिन्हें खूब प्यार करता हूँ
एक दिन
मर जाऊंगा मैं भी
जैसे मर जाएंगे बाकी लोग
1985
उड़ीसा : पांच कविताएं
(उड़ीसा में तूफान आने पर)
।। 1 ।।
सो रहा जहान था
उड़ीसा अनजान था
सागर में उफान आया
बहुत तेज तूफान आया
घर मड़ैया ढह गए
ढोर डंगर बह गए
गांव सारे भर गए
लोग अनगिन तर गए
उड़ीसा के वे लोग
जिनका मनाते सोग
तूफान से थे कम मरे
भूख से ज्यादा मरे
तूफान आए कभी-कभी
भूख आती रोज ही
तूफान से तो बच भी जाते
भूख से पर बच ना पाते
जहान सोता रहता है
उड़ीसा लड़ता रहता है
।। 2 ।।
बच गए हनुमान जी
अकेले हनुमान जी
जिन्होंने उन्हें बनाया
रोज भोग लगाया
धूप भी जलाया
नहीं बचे वे
बच गए हनुमान जी
अकेले हनुमान जी
बचे हुए हनुमान को
कौन भोग लगाएगा
धूप कौन जलाएगा
कौन भजन गाएगा
भक्त नहीं बचे
बच गए हनुमान जी
अकेले हनुमान जी
।। 3 ।।
क्या कसूर है इस आदमी का
इस झुके हुए खंभे से
उसी कमीज से बांध्कर
क्यों पीट रहे हैं उसे आप
इसने किया ही क्या है
किसी की इज़्ज़त लूटी है
किसी को चाकू मारा है
किसी का धन लूटा है
रोटी का
एक टुकड़ा ही तो उठाया है
क्या हुआ है
कुछ भी तो नहीं
बस इसके गांव में
तूफान ही तो आया है
क्या कसूर है इस आदमी का?
।। 4 ।।
उधर आया है तूफान
भूखे हैं सैकड़ों इंसान
इधर पड़ा है आज
सैकड़ों टन अनाज
वाह मेरे देश की व्यवस्था
भूखों तक अन्न नहीं पहुंचा
।। 5 ।।
उड़ीसा में आया तूफान
लोगों में बाकी थी इन्सानियत
खूब किया दान
लोगों ने तनख्वाहें कटवाई
पीड़ितों के लिए जमा हुई
जरूरी चीजें तमाम
ढिंढ़ोरा पीटा सरकार ने
सब चीजें पीड़ितों में बंटवाई
खबर एक छपी थी, कल के अखबार में
पढ़कर, अचरज हुआ महान
राहत अफसरों के घर मिला
राहत का सामान
स्वेटर, कंबल और शाल
वे बेचते पाए गए
दवाइयां, चावल, दाल,
नवम्बर 99
फासिस्ट
मैंने कहा
गंगा गंगोत्री से निकलती है
उसे अपने इतिहास पर खतरा लगा
उसने मुझे मार दिया
मैंने कहा
श्रीराम दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं
उसे अपने धरम पर खतरा लगा
उसने मुझे मार दिया
मैंने कहा
ईश्वर आदमी का दुश्मन है
उसे अपनी शिक्षा पर खतरा लगा
उसने मुझे मार दिया
मैंने कहा
हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई हैं
उसे अपनी नीति पर खतरा लगा
उसने मुझे मार दिया
मैंने बार-बार
उसका चेहरा उघाड़ा है
उसने बार-बार मुझे मारा है
दरअसल वो हत्यारा है
1992
राहे-अदम
मौत को जीओ
मौत से डरो मत
तुमको मर-मर के जीना है
तुम यूं जीकर
मरो मत
1989
राजवती
राजवती अच्छी थी
पति से दबती थी
मार खूब सहती थी
कुछ नहीं कहती थी
राजवती अच्छी थी
जितना कमाती थी
पति को थमाती थी
बच्चों को खिलाती थी
राजवती एक दिन
खराब औरत बनी
जुल्म के आगे
जैसे ही तनी
राजवती बन गई थी
शोषण के ख़िलाफ़ चंडी
सबने उसे कहा
वेश्या और रंडी
1996
उधेड़-बुन
ये कैसा नरक है
जिसमें हम जी रहे हैं
जाने-अनजाने ज+हर पी रहे हैं
इस सवाल से क्यों पड़ता है
बार-बार मेरा वास्ता
मेरे लोगों को बचा ले जो
वह कौन-सा है रास्ता
बार-बार अपने शहीदों का
ख्याल आता है
फिर अपनी जवानी पर
मलाल आता है
अपने ही लोगों पर
जाने क्यों प्यार आता है
ये कैसा विश्वास है
जो बार-बार आता है
1990
जिन्दगी
उसने कहा
जिन्दगी ऐसी नहीं
जैसी मैंने समझी
जिन्दगी वैसी होगी
जैसी तुम समझोगे
मैं सोच रहा हूं
क्या जिन्दगी ऐसी होगी
जैसी मैं जी रहा हूं
1989
हाथी
हाथी आए बस्ती में
नहीं थे कोई मस्ती में
बच्चे लगे बजाने ताली
हाथ बड़ों के नहीं थे खाली
ऊपर कसे हुए थे आसन
थे सवार के वो सिंहासन
असवार चैंन से सोए थे
सुखद स्वप्न में खोए थे
पत्ते थे कुछ पड़े हुए
हरे-हरे, कुछ सड़े हुए
हाथी कुछ ना खाते थे
बस तकते ही जाते थे
इक दूजे के पास थे
हाथी बहुत उदास थे
इतने थके हुए थे वो
जैसे मरे हुए थे वो
1988
अछूत-दान
अगर दिया ना होता
एकलव्य ने द्रोण को अंगूठा
तब इतिहास कुछ और ही होता
मगर एकलव्य कैसे करता इंकार
मांग रहा था कोई ब्राह्मण
हाथ फैलाकर भिक्षा
किसी अछूत से पहली बार
1993
डा. माहेश्वर की फोटो
गए पुस्तक मेले में
मिले थे डा. माहेश्वर
एक स्टाल पर
कुछ किताबें खरीदते हुए
देखते ही खुश हुए
मुस्कुराहट उभर आई चेहरे पर
चमक दिखी आंखों में
फिर किसी बात पर
अनायास हंस पड़े
दिल खोलकर हंसते थे डा. माहेश्वर
दिल खोलकर हंसना उनकी आदत थी
परेशानी जब झलकने लगती थी माथे पर
तब एकाएक कहीं भी
किसी भी बात पर
दिल खोलकर हंसने लगते थे
और हंसते हुए किसी रोमवासी की तरह
दिखते थे डा. माहेश्वर
पुस्तक मेले में
जब वो हंस रहे थे
तब मैंने अपने कैमरे से
उनकी एक फोटो उतारी थी
फोटो देने घर आना’
वह जाते हुए बोले थे
मैं उनके घर नहीं जा पाया
उनको फोटो नहीं दे पाया
बहुत देर हो चुकी थी
डा. माहेश्वर अब अपने घर में नहीं थे
मेरे कैमरे से उतारी गई
उस फोटो में उतर आए थे
डा. माहेश्वर . . .
2000
बस्ती के लोग
ये बस्ती है या मौत का घर
चाहे कोई हो पहर
यहां बहुत मरते हैं लोग
उनके रिश्तेदार
ठीक से मना भी नहीं पाते सोग
जो हंसते-खिलखिलाते हैं
बात-बात में
बीबी बच्चों पर हाथ उठाते हैं
मंदिरों में सिर झुकाकर
घंटियां बजाते हैं
जो रात में खूब पीकर
गली में शोर मचाते हैं
वो किसी भी दिन
चुपचाप मर जाते हैं
समझदार कहते हैं
मरकर तर जाते हैं
मैं सोचता हूं
इस बस्ती के यह लोग
मरकर तरते भी होंगे
तो तरकर कहां जाते होंगे 1998
सुनो दोस्त
अपने-अपने दिलों को खोलें
प्यार के दो बोल बोलें
खुशगवार लमहों को
खोज-खोजकर लाएं
हंसे-मुस्कराएं,
साथ बैठकर गाएं
एक दूजे के दिल में उतर जाएं
1991
ऐ लड़की
ऐ लड़की, ओ लड़की, सुन लड़की
तू ये भी कर
तू वो भी कर
तू ऐसे भी कर
तू वैसे भी कर
ऐ लड़की, ओ लड़की, सुन लड़की
तू ये भी खेल
तू वो भी खेल
तू ऐसे भी हंस
तू वैसे भी हंस
ऐ लड़की, ओ लड़की, सुन लड़की
तू ये भी बोल
तू वो भी बोल
तू यूं मत सह
तू चुप मत रह
1996
ताबों की दुनिया
कुछ किताबों में कांटे होते है
जिन्हें खोलते ही कांटे
आंखों में चुभ जाते हैं
कुछ किताबों में फूल होते हैं
जिन्हें खोलते ही
दिल में समा जाते हैं
अच्छी किताब
फूलों की किताब होती है
जिसके हर वरके पर
मुहब्बत की गंध् होती है
1988
इस दु:ख का मैं क्या करूं
ये दु:ख मेरे पास
क्यों बार-बार आता है
इस दु:ख से मेरा क्या रिश्ता है
क्यों मेरे पास
ये बार-बार लौट आता है
मेरी खुशियों की फुंनगियों पर
नागफनी-सा खिल जाता है
इस दु:ख का मैं क्या करूं
इसे चिहुंक कर गले लगा लूं
या इससे डरूं
इसे मौत का अवसाद मानूं
या जीवन का हथियार
क्यों आता है बार-बार
इस दु:ख पर मुझे प्यार
1995
बेटियां
वो पल बड़ा बेमिसाल पल होता है
जब किसी आंगन में
वो अपने कदम रखती हैं
पर खोल के खुशियां चहक उठती हैं
अपनी आंखों में
खुशगवार सुबहें लेकर
बेजोड़ खिलखिलाहट औं’ उमंगों की तरह
बेटियां आती हैं
इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह
अपने हाथों में
महकते हुए सपने लेकर
घुप्प अन्धेरों में
चमकते हुए सितारे की तरह
बेटियां आती हैं
इक हसीन नज़ारे की तरह
बेटियां सबके घर नहीं आतीं
बेटियां बड़े नसीब से आती हैं
वो लोग बड़े बदनसीब होते हैं
जिनके घर बेटियां दु:ख पाती हैं
जून 2000 अपूर्वा के चौथे जन्म दिवस पर
ग़ज़ल - एक
कट गई पतंगें, खाली चरखड़ी
मुश्किलों का दौर है, मुश्किलें बड़ी
खाल खाली बरतन, आंखों में पानी
ठंडे हुए चूल्हे में, राख है पड़ी
भाग दौड़ में उसे, कोई देखता नहीं
एक अंधेरे मोड़ पे, जिन्दगी खड़ी
वक्त चल रहा है, हम भी चल रहे हैं
ग़र्चे अपने हाथ में, है ठहरी घड़ी
तीरगी से हारकर, बार-बार जंग में
जाने किसके वास्ते, रौशनी लड़ी
1998
ग़ज़ल - दो
उनके बंगलों में बसंत, फूलदार आया है
मेरे चेहरे पे ही क्यों, कैक्टस उग आया है
उसको कोई रोटी दो, पानी दो उसे कोई
चंद्रमा पे आदमी, जाके लौट आया है
जाने किसके वास्ते, वो मसजिदें ढहा रहे
मेरा राम तो सदा, दिल में रहता आया है
कैसे फूटेगी कोई, रौशनी ए जाने मन
तेरे आंचलों पे जब, तीरगी का साया है
तू मेरा निज़ाम है, तुझसे पूछता हूं मैं
हर दीए की रोशनी पे, किसका साया है।
1996
किला
हमको जनमते ही जो मिला है
ये व्यवस्था
एक क्रूरतम किला है
आदमी यहां जितने भी मिले हैं
सबके सब
किले के भीतर किले हैं
इसमें किसी को
मिलती नहीं मंजिल
इसके भीतर आदमी
नहीं रहता किसी काबिल
कविता मेरी
आग़ाज़ है जिनकी
यहां मिलती नहीं
एक भी आवाज़ उनकी
मैं भी फंसा हुआ हूं
शायद डरा हुआ हूं
शायद मरा हुआ हूं
कितनी गहरी है
निराशा की ये अवस्था
कैसे टूटेगी
पाशविक पंजों मड़ी व्यवस्था
1996
मां
तू आज है
क्योंकि कल तू लड़ी थी
मौत के तूफान में
जिन्दगी की खातिर अड़ी थी
तू ऐसे ही पली
घुप्प अन्धेरे में जुगनु-सी जली
नई सुबह की आशा भरी कली
तू आज है
कि कल तू अकेली थी
बेसहारेपन की पीड़ा
अकेले-अकेले झेली थी
कल चुप था
पैगम्बर या अवतार
आज तू बांटती
स्नेह, ममता, प्यार
1996 शान्ता जी के लिए
गाते-गाते
गाते-गाते
बच्चा जन्म लेता है
जवान हथौड़ा मारता है
गाते-गाते
लड़की बड़ी होती है
और हर दर्द सहती है
गाते-गाते
किसान अन्न उगाता है
मजदूर हाथ चलाता है
गाते-गाते
आदमी अंधेरे को परास्त करता है
सुबह लाता है
1989
हानी
भीतर खत्म हुआ जब पानी
घर से बाहर आया हानी
आसमान में बादल देखा
बड़े देश को प्यासा देखा
लगा सोचने अपना हानी
कहां गया सब पानी
खेत-खेत और गांव-गांव
पानी के हर ठांव-ठांव
कमल प्यास में नहीं खिला
उसको पानी नहीं मिला
हरा समंदर
गोपी चंदर
बूझो यारो
बूझो कैसे
अपना हानी
बनता पानी
हानी, खेल का साझीदार
1998
पूजा की लोरी
सोए तारे, सोया चंदा
सोई फूलों की बगिया
सो जा मेरी मुनिया
निंदिया रानी आई है
सुन्दर सपने लाई है
सुन्दर सपनों में खो जा
सो जा मेरी मुनिया
भूल जा दिन की बातों को
पप्पा जी की डांटों को
उनका हाथ बना तकिया
सो जा मेरी मुनिया
कल फिर सुबह आएगी
बिटिया पढ़ने जाएगी
एक दिन समझेगी दुनिया
सो जा मेरी मुनिया
2000
पतंग
फर-फर करती उड़ी पतंग
आसमान में उड़ी पतंग
बड़े अनोखे रंग हैं इसके
खूब निराले ढंग हैं इसके
बच्चों की मन भरी पतंग
फर-फर करती उड़ी पतंग
दुश्मन हवा जाल फैलाए
फिर भी उसको रोक न पाए
हवा से लड़ती उड़ी पतंग
फर-फर करती उड़ी पतंग
1985
आदेश के बाद
बंद कर दी गई
कारखानों की चिमनियां
मशीन चलाने वाले
गेटों से बाहर धकेल गए
इस तरह
उनकी सांसों के पत्ते खेले गए
हम बस्तियों में गए
उनको घर-घर में ढूंढ़ा
पालनों में, स्कूलों में, खेल के मैदानों में
बच्चे अब वहां नहीं थे
हमने उन जगहों की कल्पना की
जहां वे अब थे
मार तमाम गलियों में
संतोषी कथाओं के बावजूद
औरतों संतुष्ट नहीं थीं
वो गा रही थीं
हाय बनके पत्थर दिल अन्यायी
जज ने कैसे कलम चलाई
हमने उसका क्या बिगाड़ा है
उसने हमकों क्यों उजाड़ा है
1996
गली के दो छोर
एक छोर पर
किसी की शादी है
लड़कियां सज रही हैं
शहनाईयां बज रही हैं
दूसरे छोर पर
कोई मर गया है
लोग रो रहे हैं
यादें बो रहे हैं
गली के बीचों-बीच खड़ा हूं मैं
मुझे क्यों यकीन नहीं होता
ये हकीकत है
या कोई भयानक स्वप्न
मैं जो देख रहा हूं
इसे देखना कोई खेल नहीं
गली के दोनों छोरों में
कोई मेल नहीं
1996
सफ़दर
लोग कहते हैं
नाटक करता था सफ़दर
नाटक न करने वालों ने
उसकी हत्या कर दी
लोग कहते हैं
नाटक नहीं करता था सफ़दर
नाटक करने वालों ने
उसकी हत्या कर दी
नाटक करने वालों
या नाटक न करने वालों में
सफ़दर था ही नहीं
एक दर्द भरी आवाज़ था
वह तो एक ज्वाल था
शोषक के लिए
सफ़दर एक कठिन सवाल था
1995
चलते-चलते
इस रास्ते पर
मुझे कई दरवाजे मिलेंगे
छोटे-बड़े, हल्के-भारी
किसी पर मिलेगी खुशी
किसी पर ख्वारी
देखूं कितने दरवाजे
खोल पाता हूं मैं
इस भीड़ में
कहां जाता हूं मैं
1989
दिल्ली
कोई नहीं रोता
लाखों-लाख लोगों को
क़त्ल करता हुआ ये शहर
क़त्ल नहीं होता
मेरी कविता के ज़िगर में
धंस गई है किल्ली
तलवार की धर बन गई है
दिलवालों की दिल्ली
1994
निरूत्तर
प्रेम बन्दगी के
दुश्मन ज़िदगी के
आदमी को छांटते हैं
खून को ही बांटते हैं
स्याह होती भोर है
रक्षक ही चोर है
आदमी मशीन है
मालिक कमीन है
ये कैसा कानून है
अमानवी जुनून है
न्यायाधीश खुद डरे
करे तो कोई क्या करे
जन-जन में फूट है
कातिलों को छूट है
कवि चुपचाप है
तापहीन ताप है
अंधियारा मोड़ है
कहो क्या तोड़ है?
1997
श्याम विमल
श्याम विमल एक बूढ़ा कवि है
श्याम विमल एक ख़फ़ा कवि है
और सबसे बड़ी बात
श्याम विमल निर्गुट कवि है
कवि और कविता को
जो अलग-अलग मानते हैं
ये उन्हीं का बयान है
श्याम विमल कवि जैसा भी है
मगर एक अच्छा इंसान है
श्याम विमल चिट्ठियां लिखता है
प्रार्थना करता है सबसे
संवाद करो
चर्चित कवि संवाद नहीं करते
संवादहीन कवि की कविता
संवाद क्या करेगी
वह तो स्वार्थ के अंधेरे में मरेगी
1997
बच्चे
जो मर्ज़ी के मालिक होते हैं
और मन के सच्चे
भले होते हैं वे बच्चे
भली होती हैं
उनकी छोटी-छोटी ख्वाहिशें
छोटे-छोटे सपने
भली होती हैं
छोटी सी ख्वाहिश को
पूरा करने की
उनकी बड़ी-सी जिद्द
अपनी ख्वाहिशों की खातिर
कुछ कर गुजरते हैं जो बच्चे
भले होते हैं वो बच्चे
1995
नागार्जुन की कविता
सन उन्नीस सौ अठानवें के
ग्यारहवें महीने की पांच तारीख को
नहीं रहे बाबा नागार्जुन
यह खबर मैंने नहीं पढ़ी
पढ़ रहा था मैं
एक जीती जागती
नागार्जुन की कविता
यानी जीवन से भरी सरिता
1998
इतिहास
।। 1 ।।
कैसे लिखें इतिहास
हमारे लोगों का
एक असली इतिहास
कहां हैं तथ्य
कहां हैं दस्तावेज
तथ्य झुठला दिए गए
कर दिए बरबाद दस्तावेज
जैसे बरबाद किए गए
हमारे लोग
स्याह इतिहास के साक्षी
हमारे अपने लोग
हमारे पास बचे हैं
केवल तीन शब्द
जात, ज़हालत और निचला पायदान
इन्हीं तीन शब्दों में निहित है
हमारी समूची कौम का इतिहास
और केवल तीन शब्दों से भी
लिखा जा सकता है
हमारे लोगों का इतिहास
।। 2 ।।
इतिहास
मोहताज नहीं होता
चंद तथ्यों और दस्तावेजों का
सताए गए लोगों की
आहों में होता है
सताए गए लोगों का इतिहास
।। 3 ।।
इतिहास दुहराया नहीं जाता
लिखा जाता है बार-बार
नई दृष्टि
नए तेवर
और नई भाषा में
1997
कैसे
तितली-पर नहीं मांगते
बच्चों को क्या हुआ
बीमार से दिखते हैं
क्या तितलियों ने
इधर आना छोड़ दिया है
या फूलों ने
मुस्कराना छोड़ दिया है
या हमारे परी किस्से
समाप्त हो गए हैं
या बच्चे सबके सब
बड़े हो गए हैं
1994
वीर आदमी
खराब समय
सपने तोड़ता है
वीर आदमी
खराब समय में भी
सपने जोड़ता है
समय की धार को
वीर आदमी ही मोड़ता है
1989
दीवाना लड़का
संदेह का कुहरा छाया था जब
तब आशा के तार बुने
हर खिड़की जब बंद मिली
तब मन की खिड़की खोली
हर तरफ निराशा पसरी थी जब
तब अनगिन ख़्वाब सजाए
जब कोई साथ न आया
तब अपनी ही बांह गही
इस तरह एक दीवाना लड़का
चलता आया, चलता आया
1999
मेरी कविता
ऐसी हो मेरी कविता
जो इस बुरे वक्त की
तकलीफ़ बांट सके
गहराते अंधकार को
जितना हो छांट सके
2000
इस सदी के अंत पर
जी में आता है
कि लड़कियों को चहचहाते हुए
और लड़कों को नाचते हुए देखूं
जो भी मेरे करीब से गुज़रे
उसे प्यार भरा सलाम कहूं
जी में आता है
कि कहीं खुले में खड़े होकर
हवा की पावन थपकियों को महसूस करूं
और उसकी मन भावन तान को
शब्दों की गहराइयों में ले आऊं
जी में आता है
कि ठूंठ बनते जा रहे पेड़ों से
लिपट-लिपट कर रोऊं
और जमीन पर गिरे पत्तों को
चूम-चूमकर
अपने दिल में सजा लूं
जी में आता है
कि पहाड़ों को देखने निकल जाऊं
उनसे बेझिझक बातें करूं
पहाड़ों उनकी अथाह घाटियों में
मौहब्बत की उफंचाई का पयाम
बिखरा दूं
जी में आता है
कि बाजार बनती जा रही दुनिया में
खरीदारी पर निकले आदमी के लिए
उन चीजों की सूची बनाऊं
जिनकी खरीद-फ़रोख्त हो नहीं सकती
जैसे देश और मां और प्यार
जी में आता है
कि काम से लौटे घोड़ों के पास जाऊं
उनके घावों को सहलाऊं
दर्द भरा कोई गीत
उनके साथ मिलकर गाऊं
और उनके दिल के किसी कोने में
आशा की किरण बन जाऊं
1999
हमेशा के लिए बिछड़ गए दोस्त के नाम
वो तुम्हारा मुस्कुराता हुआ चेहरा
कि जैसे किसी सहरा में
दिख जाए कोई फूल
वो हर तार झनझनाती पुरकशिश आवाज़
जैसे किसी वायलिन से फूटता हो
प्यार का सैलाब
वो खुशगवार आंखें तुम्हारी
कि जैसे स्याह रात में
दो जुगनू जगमगाते हों वो जोश में उठ~ठे हुए दो हाथ
देते हुए सदा
करते हुए आग़ाज़
1992
नेताराम
खद्दर में छुप जाएगा
खूब हमारा नेताराम
जनता को भरमाएगा
खूब हमारा नेताराम
बार-बार कुर्सी पाएगा
खूब हमारा नेताराम
जनमत को झुठलाएगा
खूब हमारा नेताराम
1994
ये सिर्फ विदा है
वो पहली मुलाकात में,दिल खोल के मिलना
वो फासला-ए-उम्र, हदें तोड़ के मिलना
हमको लगा जैसे कोई, हमराह आ मिला
ऐसा था हमसे एक बुजुर्गवार का मिलना
वो सोफ़े पे साथ बैठ के, चाय पिया करना
वो साथ-साथ चलते हुए, गप किया करना
कभी हम शुरु करते तो कभी वो शुरु करते
वो यूँ ही बात बात में, बातें किया करना
किसी निराश पल कोई सपना दिया करना
वो उलझनों की उलझनें, सुलझा दिया करना
वो सर्दियों में डाल के पिछ्वाड़े कुर्सियां
जीवन में हंसी धूप को, मतलब दिया करना
हम खुशनसीब निकले, हमें साथ मिला उनका
हम बेतज़ुर्बेकारों को, तजुर्बा मिला उनका
वो हाथ जो लपक के, मिला करते थे हमसे
दौरे-ख़िजां में सर पे, साया मिला उनका
वो पल जो उनके साथ, गुजारा किये हैं हम
वो पल जो उनके साथ, संवारा किये हैं हम
वो पल हमारी जिन्दगी में, बेमिसाल हैं
वो पल जो उनके साथ, गुजारा किये हैं हम
वो शिद्दत भरे ज़ज़बात, हमेशा ही रहेंगे
वो अदबी ख़्यालात, हमेशा ही रहेंगे
अब वो नहीं होंगे, स्टाफ़ रूम में मगर
वो उनके निशानात, हमेशा ही रहेंगे
होंठों से मेरे आज, निकले यही सदा
और कोई हो न हो, पर सच हो ये दुआ
जीवन में उनके रोज ही, आया करे बसंत
उनकी जिन्दगी का फूल, महका रहे सदा
2000 डा. सुरेद्र नाथ तिवारी के लिए
नज़रिया
कुछ लोगों की जिन्दगी
बड़ी मुश्किल होती है
कुछ लोग जिन्दगी को
मुश्किल बना लेते हैं
कुछ लोग मुश्किलों का
हल खोज लाते हैं
मुश्किल भरी जिन्दगी को
बेहतर बनाते हैं
1997
बहुत जल्दी-जल्दी
आ रहे हैं लोग
बहुत जल्दी-जल्दी
जा रहे हैं लोग
बहुत जल्दी-जल्दी
जी रहे हैं लोग
बहुत जल्दी-जल्दी
मर रहे हैं लोग
बहुत जल्दी-जल्दी
1994
अधूरी पैरोड़ी
नेताओं ने पकड़ लिए हैं कान
और अफसरों ने कालर
सावधान आता है डालर
आंखें कोई खुली न रक्खे
बंद ही रखे कान
मेहमानों के भेस में प्यारे
आता है शैतान
भागो, दौड़ो कैम्पा लाओ
औ’ झलने को झालर
सावधन आता है डालर
1992
आइये इस भागती नदी को पार करें
ये नदी तो नहीं रुकेगी
अगर आप रुके रहे
तो बस चली जाएगी
ट्रेन छूट जाएगी
और आपकी नौकरी जाएगी
आप देखते रह जाएंगे
अगर आप नहीं रुके
तो आपकी जान जाएगी
या टूटेगी टांग
घर जाने की बजाए
आप अस्पताल जाएंगे
आपकी बीबी, आपके बच्चे
देखते रह जाएंगे
आइए दें एक दूजे का साथ
थाम लें हाथों में हाथ
और इस भागती नदी को पार करें
1997
सूटकेस
नेक मंत्री गए विदेस
वहां से लाए सूटकेस
सूटकेस था बड़ा कमाल
लाखों करता गोलमाल
डंडे वाला अन्धा है
ये तो उसका धन्धा है
जनता अब तैयार रहे
चुप्पी मारे कुछ न कहे
जंगल में नाचा एक मोर
नेक मंत्री हैं या चोर
1994
पशोपेश
मेरी बेटी खिड़की पर खड़ी होगी
और मैं
इस रफ्तार में फंसा हूं
ये रफ्तार नहीं थमने की
मैं थमा हूं
और इस रफ्तार के ख़िलाफ़
ख़तरा मोल लेने से
मेरी जान जा सकती है
मगर मैं कब तक थमा रहूंगा
ये रफ्तार नहीं थमने की
और मेरी बेटी
खिड़की पर खड़ी होगी 1999
चुनावी पैरोड़ी
आएंगे वो आएंगे
वोट मांगने आएंगे
वोट मांगने की खातिर
अपनी शक्ल दिखाएंगे
हाथ तोड़ते रहते हैं जो
हाथ जोड़ते आएंगे
गुंडे, चोर, उचक्के सारे
शक्ल बदलकर आएंगे
मंत्री बनते ही जनमत को
असली रूप दिखाएंगे
1997
कुछ छूटी हुई कविताएं
जिन्दगी
जिसने भी देखा
मुंह फेरकर चल दिया
बेबस पड़ी थी जिन्दगी 1990
घर
बरतन सूखे हैं
बच्चे भूखे हैं
चूल्हा ठंडा पड़ा है
बाप कहीं पीकर पड़ा है 1988
रात
चूहे जगते सारी रात
भगते फिरते सारी रात
कटे खोज में सारी रात
बरतन बजते सारी रात
1992
।। 1 ।।
जो जिन्दगी से दूर है
वो शायरी मशहूर है
ये किस मकाम पे खड़े हैं सब
शम्माएं बेअसर, चिराग बेनूर है
।। 2 ।।
जंगल है, सहरां हैं, मकां हैं
नए जमाने में आदमी की फसल नहीं होती
।। 3 ।।
रोटी का सवाल है
आदमी मशाल है
एटमों के दौर में
जिन्दगी हलाल है
।। 4 ।।
संभल कर चलते हैं लोग
असल में डरते हैं लोग
जबसे डरने लगे हैं लोग
रोज मरने लगे हैं लोग
1995
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