Poetry

कागज़ एक पेड़ है

पतंग और चरखड़ी

 

पतंग और चरखड़ी

 

खवाब आंखों में गर नहीं होते

इतने आसां सफर नहीं होते

 

आज जब मैं इन कविताओं को देखता हूं तो मुझे बहुत हैरत होती है। सोचता हूं कि मैंने इतनी कविताएं कैसे लिख लीं। जिन हालातों में मैंने आज तक ये जीवन जीया है, जिन निराशाओं, तनावों और कुंठाओं से लड़ते हुए मैं आज जहां तक पहुंचा हूं उनमें कविता लिखना शायद मेरे लिए सबसे मुश्किल काम था।

 

मुझे नहीं मालूम कि मेरे शायर दोस्त प्रदीप साहिल ने ये शेर क्या सोचकर लिखा है। पर मेरे यह एकदम सच है। कविता लिखना मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं है। सपना यानी पतंग जिसे ऊंचा और ऊंचा उड़ाने की इच्छा मेरे मन में हमेशा ही रही है। मगर चरखड़ी नहीं थी मेरे पास। धीरे-धीरे मैंने कुछ धागा जुटाया और अपनी मुसीबतों को चरखड़ी बनाकर मैने कविताएं लिखी और उन्हें को पतंग बनाकर उड़ाने की कोशिश की। और आज भी कर रहा हूं।

 

इन कविताओं ने मेरे साथ एक लंबा सफर तय किया है। लगातार मुश्किलों के घुप्प अन्धेरों में फंसना, उन मुश्किलों से टकराते हुए खुद को परखना, आत्म-विश्वास में भरना और नए आकाश तय करने के लिए लगातार जी-तोड़ मेहनत करना। ये सब ही इस सफर के मोड़ हैं। इन्हीं मोड़ों पर ये कविताएं मेरे पास आ गई है। मुझे लाचार निराशा और परास्त मानसिकता से उबारती हुई, अकेलेपन और बेसहरापन में सहारा देकर हौसला अफ़्जाई करती हुई और सफर के नए मुकामों को छूने की कूबत भरती हुई।

 

आज मैं यह कह सकता हूं कि इन कविताओं ने लगातार मुझे गढ़ा है और मैंने इनको। आज जैसे मैं काफी बदला हुआ हूं वैसे ही ये कविताएं भी बदल गई है। अपने मूल रूप के घेरे से ये कविताएं बाहर आ चुकी हैं जैसे मैं। कुछ कविताएं अपने मूल रूप में छंदबद्ध थीं जो मुक्त कविताएं बन गई। शायद कहीं न कहीं मेरी अपनी कुंठाओं से मुक्ति का पर्याय बनती हुई। कुछ कविताएं अपने मूल रूप में दो-तीन पंक्तियों की थीं जिनमें बाद में कई सारी पंक्तियां और जुड़ गई। क्या कहूं इसे? यह शायद मेरे अपने विवेक, संवेदन और अभिव्यक्ति कौशल में होने वाले विस्तार का ही प्रतिबिम्ब हैं। कई कविताएं ज्यों की त्यों रह गई हैं, बिना किसी हेर-फेर के। शायद उनमें किसी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं थी, या मुझमें इतनी कूबत नहीं थी कि मैं उनमें कुछ हेर-फेर कर पाता। कुछ कविताएं बहुत लम्बी-लम्बी थी जिनकी केवल कुछेक पंक्तियां ही रह गई। मेरे लिए वे अब भी अधूरी हैं, अपूर्ण हैं जैसा कि मैं खुद।

 

आज मैं ये बात पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता हूं कि इन कविताओं में मैंहूं, सिर्फ मैंया ये कविताएं सिर्फ मेरी कविताएं हैं। इन कविताओं में कहीं न कहीं मैं अवश्य दिखाई पडूंगा ही। इन कविताओं में जो एक रोशनी जगमगाती है वह शायद मेरे अपने आत्मसंघर्ष, आत्मविश्वास और परिश्रम का ही नतीजा है या फिर उन दोस्तों की छाप है जिन्होंने समय-समय पर मुझे संभाला और मुझमें सपने देखने और उन सपनों को हकीकत में ढालने के लिए दिन-रात एक करने की प्रेरणा दी। मगर अब ये कविताएं मेरी नहीं हैं। ये कविताएं मेरे समय की हैं। समय की मुश्किलों, निराशाओं, तनावों और साहस की हैं। ये समय मेरा अपना ही नहीं है, मेरे परिवार वालों का भी है। मेरे दोस्तों का भी है। और मेरे जैसे अनगिनत हमसफरों का भी है जो अभी भी अपने समय में, अपने समय की मुश्किलों से जूझ रहे हैं। 

 

मुकेश मानस

मार्च 2001

 

पतंग और चरखड़ी

 

जिन बच्चों के पास

चरखड़ी और पतंग नहीं थी

उन बच्चों ने खुद को

चरखड़ी बना लिया

और खुद को ही पतंग

 

वो बच्चे अभी तक

खुशियों के अम्बर को

छूने की कोशिश में लगे हैं

 

बार-बार गिरते

बार-बार उठते

उन्हीं बच्चों में

शामिल है ये कवि

और उसकी कविता

वक्त का जादू

भोले-भाले मासूम बच्चे

खेलते-खेलते गायब हो जाएं

 

अल्ल-सुबह घूमने निकले बुजुर्ग

लौटकर घर न आएं

 

चहकती-महकती लड़कियां

ख़ौफ़ज़दा पुतलियों में बदल जाएं

 

देखते-देखते खुशबूदार फूल

धारदार शूल बन जाएं

 

हमने पहले तो नहीं देखा

भई वाह!

कैसा जबरदस्त जादू है

जो यह वक्त हमें दिखा रहा है।

जून 2000

 

पतंग और चरखड़ी

।। 1 ।।

वो पतंग लाया

वो लाया चरखड़ी

 

चरखड़ी मुझे थमाई

उसने पतंग उड़ाई

 

उसने हमेशा पतंग उड़ाई

मैंने बस चरखड़ी हिलाई

1985

 

।। 2 ।।

बच्चों के पास

पतंग थी

तो चरखड़ी नहीं थी

 

बच्चों के पास

चरखड़ी थी

तो पतंग नहीं थी

 

पतंग और चरखड़ी

एक साथ पाने का सपना

बच्चों के पास

हमेशा था

1996

 

।। 3 ।।

बच्चे हैं बहुत

पतंगें हैं कम

चरखड़ियां तो और भी कम

चरखड़ियों में धगा

बहुत-बहुत कम

 

कहां गई पतंगें?

कहां गई चरखड़ियां?

कहां गया धागा?

1997

 

।। 4 ।।

जिनके पास चरखड़ी होती है

वे पतंग उड़ाना सीख ही जाते हैं

 

जिनके पास चरखड़ी नहीं होती

वे शायद ही पतंग उड़ा पाते हैं

 

जिनके पास चरखड़ी नहीं होती

वो खुद चरखड़ी बन जाते हैं

और कवि की कविता में

पतंग उड़ाते हैं। 1999

 

आंखें

तेरी आंखें चंदा जैसी

मेरी आंखें काली रात

 

तेरी आंखों में हैं फूल

मेरी आंखों में सब धूल

 

तेरी आंखें दुनिया देखें

मेरी आंखें घूरा नापें

 

तेरी आंखें है हरषाई

मेरी आंखें हैं पथराई

 

तेरी आंखें पुन्य जमीन

मेरी आंखें नीच कमीन

 

तेरी आंखें वेद पुरान

मेरी आंखें शापित जान

 

तेरी आंखें तेरा जाप

मेरी आंखें मेरा पाप

 

तेरी आंखें पुण्य प्रसूत

मेरी आंखें बड़ी अछूत

1997

 

औरत

झाडू लगाते-लगाते

एक जीती जागती औरत

झाड़ू में बदल जाती है

धीरे-धीरे

इस देश की

एक समूची औरत

तिनका-तिनका बिखर जाती है

1987

हत्यारे

हत्यारे घूम रहे हैं

खुल्लम-खुल्ला, बड़ी शान से

 

अमूर्त हो रहे हैं अपराध्

और हत्यारे बरी

दुनिया का कोई कानून

उन्हें हत्यारा नहीं मानता

 

हत्यारों को पहनाई जा रही हैं

रंग-बिरंगी पगड़ियां

उनकी मनुहार हो रही है

जय-जयकार गूंज रही है

समूचे ब्रह्मांड में

 

मैं हैरान हूं

दुनिया में अरबों बच्चे

गूंगे क्यों हो रहे हैं? 1999

 

मनुवादी

उसने मेरा नाम नहीं पूछा

मेरा काम नहीं पूछा

पूछी एक बात

क्या है मेरी जात

 

मैंने कहा - इंसान

उसके चेहरे पर उभर आई

एक कुटिल मुस्कान

 

उसने तेजी से किया अट्टहास

उस अट्टहास में था

मेरे उपहास का

एक लम्बा इतिहास 1988

 

बाज़ार से गुजरते हुए

घिर रही है सारी ध्रती

सामान के अंबार से

दुकानों में बदल रहे हैं घर

बाजार बन रही है दुनिया

अब कहां रहेंगे वो लोग

जो भरे हैं

इंसानियत और प्यार से

1997

 

घोड़ों की बस्ती

यहां जिन्दगी बेमानी

मौत बड़ी ही सस्ती है

ये घोड़ों की बस्ती है

 

यहां जनमते हर घोड़े को

पहना दी जाती एक लगाम

चारे की चक्की में जुटकर

करना पड़ता हरदम काम

दाना-पानी एक लगाम

जीवन के हर पल की धड़कन

बस लगाम में बसती है

ये घोड़ों की बस्ती है।

 

हर घोड़े की पीठ पे रहती

कसी हुई एक जीन

जिस पर बैठा रहता है

अदृश्य सवार महीन

दूर कहीं महलों में रहता

सदा मौज के मद में बहता

पर घोड़ों की एक लगाम

उसके हाथों में रहती है

ये घोड़ों की बस्ती है।

 

है सवार के हाथ में कोड़ा

मार-मार कर इन्हें भगाता

डरते रहते ये कोड़े से

कोड़ा इन्हें नचाता

काम पे जाते जख्म लिए

काम से आते जख्म लिए

पीड़ा इनकी उस मालिक को

जरा भी नहीं खटकती है

ये घोड़ों की बस्ती है

 

ना छुट्टी, आराम नहीं

नहीं तीज, त्यौहार नहीं

नाव समय की चलती है

दर्दो-गम का पार नहीं

ऐसा जीवन जीते हैं

दुख झरने को सीते हैं

ये किस्मत पर करें भरोसा

किस्मत इनको ठगती है

ये घोड़ों की बस्ती है।

 

थके-थके जब घर आते हैं

मन रोने को करता है

खून भरे घावों को अक्सर

चुप-चुप गिनता रहता है

खामोशी में सोते हैं

खामोशी में जगते हैं

देख-देख इनको कविता भी

चुप-चुप पीड़ा सहती है

ये घोड़ों की बस्ती है।

 

एक यही चिंता मेरी

कब सोचेंगे ये घोड़े

दुख और दर्द मिटाने को

कब ठहरेंगे ये घोड़े

बहुत नहीं तो थोड़ा हूं

मैं भी तो एक घोड़ा हूं

मुक्तिमार्ग की कोई किरण तो

नहीं मुझे भी दिखती है

ये घोड़ों की बस्ती है  1990

 

चाह

भाग जाऊं

भागकर कहां जाऊं

 

लौटकर आना है

यहीं इसी नरक में

जीवन बिताना है

यहीं इसी नरक में

 

बार-बार होती है चाह

क्या यहां से निकलने की

नहीं है कोई राह......??

1986

 

दु:ख

दु:ख हर मौसम में होते हैं

मौसम के बदलने से

दु:ख नहीं बदलते

बदलने का

सिर्फ अहसास होता है 

1986

 

हरिपाल त्यागी के चित्र

ये औरत है

या मेरे देश की धरती

कितनी वेदना, कितना दर्द है

 

ये बच्चा है

या मेरे देश का सूरज

कितना पीला, कितना ज़र्द है

 

ये पेड़ है

या मेरे देश का अंजुमन

कितना प्रदूषित, कितना काला-सा

 

ये चिड़िया है

या मेरे देश का सपना

इसे क्यों लगा है पाला-सा

1998

 

उन्नीस सौ चौरासी

मेरी गली की

औरतें दुखियारी

विधवा हैं सारी

 

सब जी रही हैं ऐसे

मजबूरी में कोई

रस्म निभाए जैसे

 

मेरे ज़हन में

कभी नहीं सोती है

सारी गली रोती है 

1985

 

मूर्तिकार

मिट्टी को गूंथकर

मूरत बनाता है

बनाकर सुखाता है

रंगों से सजाता है

 

मूरत को सजाकर

भगवान बनाता है

मंदिर में लगाता है

 

मूर्ति लगाकर

बाहर जो आता है

बाहर ही रह जाता है

भगवान का निर्माता

अछूत हो जाता है

1985

   

बरखा और बच्चे

बरखा आई, बरखा आई

लगा बरसने पानी

 

मत रोको उन्हें

मत टोको उन्हें

कब कोई रोक पाया

बच्चों की रवानी

 

वे तो नहाएंगे

मस्त हो पानी में

बच्चे जो ना होते

तो क्या रहता

बरसात के पानी में 

1993

 

फैसले

रास्ते

बार-बार नहीं बनाए जाते

फैसले

बार-बार नहीं लिए जाते

लिए गए फैसलों पर

आंसू नहीं बहाए जाते

1993

 

दादा खुराना

।। 1 ।।

हमने देखा था एक चेहरा

किताबों की दुकान में

 

किताबों के गट्ठर

कभी खोलता हुआ

कभी बांधता हुआ

 

किसी न किसी किताब के

पन्ने उलटता हुआ

किताबों पर पड़ी धू झाड़ता हुआ

 

लोहे की कुर्सी पर बैठकर

कभी-कभी चाय की

चुस्कियां लेता हुआ

 

वह नहीं

उसकी मुस्कान बताती थी

कि उसकी दुकान पर

कुछ नई किताबें आई हैं

 

वह अजीब दोस्त था

हमसे कुरेद-कुरेद कर

हमारा हाल-चाल पूछता

और अपना हाल-चाल

बड़ी मुश्किल से बताता

 

हममें से बहुतों पर उसका बकाया था

और बहुतों का उस पर

पर उसे विश्वास था

और वह विश्वास पर जीए जाता था

 

हमने देखा था एक चेहरा

किताबों की दुकान में

 

।। 2 ।।

उसे चेहरे को रोज देखना

उसे सलाम करते हुए

एक आत्मविश्वास से भर जाना

इतना नियत था

कि अब भी जब उधर निकलते हैं

तो हाथ अनायास उठ जाते हैं

नमस्कार की मुद्रा में

 

सचमुच विश्वास नहीं होता

कि वह चेहरा

जो हरदम किताबों से घिरा रहता था

अब किताबों के बीच नहीं है

 

हम बड़े खुशनसीब रहे

कि हमने उस चेहरे को देखा

 

उसके साथ चाय की चुस्कियां लीं

उससे गुफ़्तगू की

अपनी निराशा के दिनों में

सलाह मशविरे किए।

1998

 

गइया

इधर भी गइया

उधर भी गइया

सब जग गइया है

गइया की जय-जय करो

 

गलियों में गइया

सड़कों पे गइया

कूड़ों पे गइया है

गइया की जय-जय करो

 

भूखी है गइया

प्यासी है गइया

रोती गइया है

गइया की जय-जय करो

 

ध्रम की गइया

करम की गइया

भरम की गइया है

गइया की जय-जय करो

 

खोट की गइया

नोट की गइया

वोट की गइया है

गइया की जय-जय करो

1996

 

सदी

एक सदी जा रही है

हमारी वीरता

हमारे शौर्य

और हमारी पराजय की गाथाएं लेकर

 

एक सदी आ रही है

अंधकार बढ़ रहा है

बर्बरता गा रही है

उठ रहे हैं यातना शिविर

 

न ग्लानि है, न शर्म है

चहुं ओर पसरी है निराशा

एक ठंडी शांति है

किंकर्तव्यविमूढ़ता

 

और ऐसे में

एक सदी जा रही है

एक सदी आ रही है

1999

 

गुब्बारे वाला, गुब्बारा और पूजा

।। 1 ।।

तीन साल की पूजा

इंतजार कर रही है

गली में झांकती हुई

 

पूजा को सुननी है

दूर से पास आती

पीपनी की आवाज़

 

गली में घुसते ही

बजाता आता है गुब्बारे वाला

जिसे हमारे घर तक

 

।। 2 ।।

गुब्बारे वाला पीपनी बजा रहा है

पूजा सुन रही है

पीपनी से निकलकर

हवा में फैलती धुन

 

एक अदभुत खुशी चमक रही है

उसके चेहरे पर

 

पूजा की ये खुशी

उसके लिए

कितनी बड़ी है

 

इस खुशी का एहसास

बड़े नहीं कर पाते हैं

वे बच्चे नहीं बन पाते हैं

 

।। 3 ।।

पूजा गुब्बारा हिलाती है

गिराती, उछालती है

खूब खुश होती है

 

गुब्बारा फूटता है अचानक

पूजा सहमती है, सोचती है

उसकी नन्हीं आंखों में

विस्मय उभर आता है

 

एक दिन पूजा जान जाएगी

कि उसने जाना है

खेल-खेल में

कितना बड़ा सच

उस दिन पूजा

बड़ी हो जाएगी

 

मेरी ये दुआ है

कि बड़ी होती पूजा में

जीवित रहे हमेशा

एक नन्हीं, शरारती पूजा

1999 

अपूर्वा के तीसरे जन्मदिन पर

 

कभी-कभी

आज फिर

गरज रहे हैं बादल

बरस रहा है पानी

तरस रहा हूं मैं

दो चार बूंदों के लिए

1994

 

 

तस्वीरें

कुछ तस्वीरें

दीवारों पे सजती हैं

 

कुछ तस्वीरें

एलबमों में लगती हैं

 

कुछ तस्वीरें

दिलों में बसती हैं

1989

 

बस गवैया

चलती बस की खड़ी भीड़ में

देखो बच्चा चूमता है

चूमता है दोनों हाथ

चूमता शीशे की पट्टियां

सूखा गला साफ करता है

होठों पर जीभ फिराता है

वह शुरू करेगा अब कोई गीत

 

दिन भर वह गा सके मधुरतम

यात्रियों को लुभा सके उसकी आवाज़

निकलें गीत पेट से उसके

आओ बंधू दुआ करें

1991

 

सवाल

एक सवाल है

जो रोज मुझसे मिलता है

कोई खुशी नहीं होती

मुझे उससे मिलकर

 

मैं उससे बचने की

हर संभव कोशिश करता हूं

मगर ताज्जुब है

वह बड़ी आसानी से

मुझे खोज लेता है

जैसे कि वह मेरे भीतर हो

या जैसे कि वहमैं खुद हूं

 

आंखों में आँखें डालकर

बस यही पूछता है

जीवन ऐसा क्यों मिला

जीते हुए जिसे

हर पल होता रहे गिला

1998

 

फिर

फिर कोई निराशा

पनप रही है मेरे भीतर

फिर कोई धुआं

भर रहा है मेरे सीने में

 

फिर कोई धूल

मेरी आंखें दुखा रही है

 

फिर कोई हताशा

मुझको रुला रही है

 

चमको-चमको

खूब तेज चमको

मेरी प्रेरणा के सितारो

मुझको इस निराशा से उबारो

1989

 

 

मगर

मारा गया बच्चा

सड़क पार करता हुआ

 

तेजी से आते ट्रक ने

कुचल दिया बच्चा

 

अपनी बीबी

और अपने बच्चे की खातिर

भाग गया ट्रक वाला

 

मगर यह बच्चा तो मारा गया

सड़क पार करता हुआ

1986

 

महानगर

लोगों को ढूँढता फिरा मैं

लोग नहीं मिले

घर मिले बहुत

मार तमाम घर

 

घर थे बहुत

और लोग नहीं थे घरों में

 

घर ढूँढता फिरा मैं

घर नहीं मिले

लोग मिले बहुत

मार तमाम लोग

 

लोग थे बहुत

और उनकी आंखों में घर थे

1998

 

मुश्किल

ये कैसी उदासी है

जो खत्म नहीं होती

ये कैसी कहानी है

जो जज़्ब नहीं होती

 

ये कैसा अन्धेरा है

जो छांटे नहीं छंटता

ये कैसा दर्द है

जो बांटे नहीं बंटता

 

ये कैसा वक्त है

काटे नहीं कटता

1993

 

मेरी गली मे

गली में आया एक बच्चा

आठ-दस साल का

ठंड में ठिठुरता हुआ

पीपनी बजाकर

गुब्बारे बेचता हुआ

मुझे प्यार आता है इस बच्चे पर

रोज-रोज आए

ये बच्चा मेरी गली में

 

गली में आया एक अधेड़

हट्टा-कट्टा सही-सलामत

चोगा और रुद्राक्षी लटकाए

ईश्वर के नाम पर

भीख मांगता हुआ

मुझे नफरत होती है उससे

क्यों आता है

ये निठल्ला मेरी गली में

1992

हमारा समय

खिड़कियां खटखटाई जा रही हैं

हम नहीं सुनते

 

दरवाजे भड़भड़ाए जा रहे हैं

हम नहीं खुलते

 

लोग हर सिम्त मारे जा रहे हैं

हम नहीं उठते

 

इंसानियत का बरतन खाली धरा है

मरते हुए जीना

हमारे समय का

सबसे क्रूरतम मुहावरा है

1994

 

अपना होना

कई दिन गुजरे

खूब रहा उदास

कहीं कोई रोशनी नहीं

हर सिम्त बेआस

 

इस बेआस दिनों में

खुद को जाना

अपने होने को पहचाना

1994

 

स्कूल

घंटी बजती है

बच्चे आते हैं

नींद में भरे-भरे

किताबों से लदे-लदे

 

घंटी बजती है

बच्चे जाते हैं

सहमे-सहमे, डरे-डरे

थके-थके और मरे-मरे

 

स्कूल में तितली नहीं दिखती

चिड़िया नहीं गाती

पानी कल-कल नहीं करता

पेड़ों की छांव रूठ जाती है

बच्चों की दुनिया टूट जाती है

1987

 

घोड़ा

सबको अच्छा लगता है

जब तक घोड़ा दौड़ता है

 

घोड़े के मर जाने पर

कोई याद नहीं करता

घोड़े की कब्र पर

कोई मर्सिया नहीं पढ़ता

 

मरे हुए घोड़े का

कोई फोटो नहीं खींचता

उसकी बेजोड़ कुलांचों पर

कोई किताब नहीं लिखता

1987

 

विजय दशमी

राम ने पुतलों में आग लगाई

अन्याय पर न्याय ने विजय पाई

आयोजकों ने दी बधई

लोगों ने खुशी मनाई

 

इस धरा पर

जलाए गए रावण

कित्ते बड़े-बड़े

और हंसते रहे अन्यायी

जीवित खड़े-खड़े

1995

 

 

 

अन्धेरा

अन्धेरा मुझे घेरता है

मैं भागता हूं

 

मैं भागता हूं

और भाग नहीं पाता हूं

अन्धेरे के पंजों में

घिर-घिर जाता हूं

 

अन्धेरे के सपने

मुझे ही क्यों आते हैं

मैं ही क्यों फंसता हूं

अन्धेरे के चंगुल में

 

जागने पर सुबह क्यों होती है?

सूरज क्यों निकलता है?

1995

 

रात, दिन, बच्चा

मैंने देखी है एक रात

चौखट पर खड़ी उदास

मैंने देखा है एक दिन

खाली हाथ लौटता हुआ

 

मैंने देखा है एक बच्चा

ठंडे फर्श पर टांगे ओढ़ता

मैंने पाया है खुद को

बेबस और लाचार

 

यूं ही उदास रहेगी रात

खाली हाथ लौटेगा दिन

बच्चा कँपकपा कर जम जाएगा

1990

 

 

हिरोशिमा दिवस पर

वे कौन थे

जिन्होंने गांधी को मारा

 

गांधी के हत्यारों को

गांधी की पहचान थी क्या

 

गांधी के हत्यारे

क्या निश्चित हुए कभी

 

गांधी क्या सचमुच

मार दिए गए

1997

 

किसी क्षण

मर गई चाची

जैसे मरते हैं और लोग

 

मर जाएंगे वो सब

जिनके साथ

मैं आज खेलता हूँ

लड़ता-झगड़ता हूँ

जिन्हें खूब प्यार करता हूँ

 

एक दिन

मर जाऊंगा मैं भी

जैसे मर जाएंगे बाकी लोग

1985

 

उड़ीसा : पांच कविताएं

(उड़ीसा में  तूफान आने पर)

       ।। 1 ।।

सो रहा जहान था

उड़ीसा अनजान था

सागर में उफान आया

बहुत तेज तूफान आया

 

घर मड़ैया ढह गए

ढोर डंगर बह गए

गांव सारे भर गए

लोग अनगिन तर गए

 

उड़ीसा के वे लोग

जिनका मनाते सोग

तूफान से थे कम मरे

भूख से ज्यादा मरे

 

तूफान आए कभी-कभी

भूख आती रोज ही

तूफान से तो बच भी जाते

भूख से पर बच ना पाते

 

जहान सोता रहता है

उड़ीसा लड़ता रहता है

        ।। 2 ।।

बच गए हनुमान जी

अकेले हनुमान जी

 

जिन्होंने उन्हें बनाया

रोज भोग लगाया

धूप भी जलाया

नहीं बचे वे

बच गए हनुमान जी

अकेले हनुमान जी

 

बचे हुए हनुमान को

कौन भोग लगाएगा

धूप कौन जलाएगा

कौन भजन गाएगा

भक्त नहीं बचे

बच गए हनुमान जी

अकेले हनुमान जी

।। 3 ।।

क्या कसूर है इस आदमी का

 

इस झुके हुए खंभे से

उसी कमीज से बांध्कर

क्यों पीट रहे हैं उसे आप

इसने किया ही क्या है

 

किसी की इज़्ज़त लूटी है

किसी को चाकू मारा है

किसी का धन लूटा है

रोटी का

एक टुकड़ा ही तो उठाया है

 

क्या हुआ है

कुछ भी तो नहीं

बस इसके गांव में

तूफान ही तो आया है

 

क्या कसूर है इस आदमी का?

 

।। 4 ।।

उधर आया है तूफान

भूखे हैं सैकड़ों इंसान

 

इधर पड़ा है आज

सैकड़ों टन अनाज

 

वाह मेरे देश की व्यवस्था

भूखों तक अन्न नहीं पहुंचा

 

।। 5 ।।

उड़ीसा में आया तूफान

लोगों में बाकी थी इन्सानियत

खूब किया दान

 

लोगों ने तनख्वाहें कटवाई

पीड़ितों के लिए जमा हुई

जरूरी चीजें तमाम

ढिंढ़ोरा पीटा सरकार ने

सब चीजें पीड़ितों में बंटवाई

 

खबर एक छपी थी, कल के अखबार में

पढ़कर, अचरज हुआ महान

राहत अफसरों के घर मिला

राहत का सामान

 

स्वेटर, कंबल और शाल

वे बेचते पाए गए

दवाइयां, चावल, दाल,

नवम्बर 99

 

फासिस्ट

मैंने कहा

गंगा गंगोत्री से निकलती है

उसे अपने इतिहास पर खतरा लगा

उसने मुझे मार दिया

 

मैंने कहा

श्रीराम दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं

उसे अपने धरम पर खतरा लगा

उसने मुझे मार दिया

 

मैंने कहा

ईश्वर आदमी का दुश्मन है

उसे अपनी शिक्षा पर खतरा लगा

उसने मुझे मार दिया

 

मैंने कहा

हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई हैं

उसे अपनी नीति पर खतरा लगा

उसने मुझे मार दिया

 

मैंने बार-बार

उसका चेहरा उघाड़ा है

उसने बार-बार मुझे मारा है

दरअसल वो हत्यारा है

1992

 

राहे-अदम

मौत को जीओ

मौत से डरो मत

तुमको मर-मर के जीना है

तुम यूं जीकर

मरो मत

1989

 

राजवती

राजवती अच्छी थी

पति से दबती थी

मार खूब सहती थी

कुछ नहीं कहती थी

 

राजवती अच्छी थी

जितना कमाती थी

पति को थमाती थी

बच्चों को खिलाती थी

 

राजवती एक दिन

खराब औरत बनी

जुल्म के आगे

जैसे ही तनी

 

राजवती बन गई थी

शोषण के ख़िलाफ़ चंडी

सबने उसे कहा

वेश्या और रंडी

1996

 

उधेड़-बुन

ये कैसा नरक है

जिसमें हम जी रहे हैं

जाने-अनजाने ज+हर पी रहे हैं

 

इस सवाल से क्यों पड़ता है

बार-बार मेरा वास्ता

मेरे लोगों को बचा ले जो

वह कौन-सा है रास्ता

 

बार-बार अपने शहीदों का

ख्याल आता है

फिर अपनी जवानी पर

मलाल आता है

अपने ही लोगों पर

जाने क्यों प्यार आता है

ये कैसा विश्वास है

जो बार-बार आता है

1990

 

जिन्दगी

उसने कहा

जिन्दगी ऐसी नहीं

जैसी मैंने समझी

जिन्दगी वैसी होगी

जैसी तुम समझोगे

 

मैं सोच रहा हूं

क्या जिन्दगी ऐसी होगी

जैसी मैं जी रहा हूं

1989

 

हाथी

हाथी आए बस्ती में

नहीं थे कोई मस्ती में

बच्चे लगे बजाने ताली

हाथ बड़ों के नहीं थे खाली

 

ऊपर कसे हुए थे आसन

थे सवार के वो सिंहासन

असवार चैंन से सोए थे

सुखद स्वप्न में खोए थे

 

पत्ते थे कुछ पड़े हुए

हरे-हरे, कुछ सड़े हुए

हाथी कुछ ना खाते थे

बस तकते ही जाते थे

 

इक दूजे के पास थे

हाथी बहुत उदास थे

इतने थके हुए थे वो

जैसे मरे हुए थे वो

1988

 

अछूत-दान

अगर दिया ना होता

एकलव्य ने द्रोण को अंगूठा

तब इतिहास कुछ और ही होता

 

मगर एकलव्य कैसे करता इंकार

मांग रहा था कोई ब्राह्मण

हाथ फैलाकर भिक्षा

किसी अछूत से पहली बार

1993

 

 

डा. माहेश्वर की फोटो

गए पुस्तक मेले में

मिले थे डा. माहेश्वर

एक स्टाल पर

कुछ किताबें खरीदते हुए

 

देखते ही खुश हुए

मुस्कुराहट उभर आई चेहरे पर

चमक दिखी आंखों में

फिर किसी बात पर

अनायास हंस पड़े

 

दिल खोलकर हंसते थे डा. माहेश्वर

दिल खोलकर हंसना उनकी आदत थी

परेशानी जब झलकने लगती थी माथे पर

तब एकाएक कहीं भी

किसी भी बात पर

दिल खोलकर हंसने लगते थे

और हंसते हुए किसी रोमवासी की तरह

दिखते थे डा. माहेश्वर

 

पुस्तक मेले में

जब वो हंस रहे थे

तब मैंने अपने कैमरे से

उनकी एक फोटो उतारी थी

फोटो देने घर आना

वह जाते हुए बोले थे

 

मैं उनके घर नहीं जा पाया

उनको फोटो नहीं दे पाया

बहुत देर हो चुकी थी

डा. माहेश्वर अब अपने घर में नहीं थे

मेरे कैमरे से उतारी गई

उस फोटो में उतर आए थे

डा. माहेश्वर . . .

2000

 

बस्ती के लोग

ये बस्ती है या मौत का घर

चाहे कोई हो पहर

यहां बहुत मरते हैं लोग

उनके रिश्तेदार

ठीक से मना भी नहीं पाते सोग

 

जो हंसते-खिलखिलाते हैं

बात-बात में

बीबी बच्चों पर हाथ उठाते हैं

मंदिरों में सिर झुकाकर

घंटियां बजाते हैं

 

जो रात में खूब पीकर

गली में शोर मचाते हैं

वो किसी भी दिन

चुपचाप मर जाते हैं

समझदार कहते हैं

मरकर तर जाते हैं

 

मैं सोचता हूं

इस बस्ती के यह लोग

मरकर तरते भी होंगे

तो तरकर कहां जाते होंगे  1998

 

सुनो दोस्त

अपने-अपने दिलों को खोलें

प्यार के दो बोल बोलें

खुशगवार लमहों को

खोज-खोजकर लाएं

हंसे-मुस्कराएं,

साथ बैठकर गाएं

एक दूजे के दिल में उतर जाएं

1991

 

ऐ लड़की

ऐ लड़की, ओ लड़की, सुन लड़की

 

तू ये भी कर

तू वो भी कर

तू ऐसे भी कर

तू वैसे भी कर

 

ऐ लड़की, ओ लड़की, सुन लड़की

 

तू ये भी खेल

तू वो भी खेल

तू ऐसे भी हंस

तू वैसे भी हंस

 

ऐ लड़की, ओ लड़की, सुन लड़की

 

तू ये भी बोल

तू वो भी बोल

तू यूं मत सह

तू चुप मत रह

1996

 

 

ताबों की दुनिया

कुछ किताबों में कांटे होते है

जिन्हें खोलते ही कांटे

आंखों में चुभ जाते हैं

 

कुछ किताबों में फूल होते हैं

जिन्हें खोलते ही

दिल में समा जाते हैं

 

अच्छी किताब

फूलों की किताब होती है

जिसके हर वरके पर

मुहब्बत की गंध् होती है

1988

 

इस दु:ख का मैं क्या करूं

ये दु:ख मेरे पास

क्यों बार-बार आता है

 

इस दु:ख से मेरा क्या रिश्ता है

क्यों मेरे पास

ये बार-बार लौट आता है

मेरी खुशियों की फुंनगियों पर

नागफनी-सा खिल जाता है

 

इस दु:ख का मैं क्या करूं

इसे चिहुंक कर गले लगा लूं

या इससे डरूं

 

इसे मौत का अवसाद मानूं

या जीवन का हथियार

क्यों आता है बार-बार

इस दु:ख पर मुझे प्यार

1995

 

बेटियां

वो पल बड़ा बेमिसाल पल होता है

जब किसी आंगन में

वो अपने कदम रखती हैं

पर खोल के खुशियां चहक उठती हैं

 

अपनी आंखों में

खुशगवार सुबहें लेकर

बेजोड़ खिलखिलाहट औंउमंगों की तरह

बेटियां आती हैं

इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह

 

अपने हाथों में

महकते हुए सपने लेकर

घुप्प अन्धेरों में

चमकते हुए सितारे की तरह

बेटियां आती हैं

इक हसीन नज़ारे की तरह

 

बेटियां सबके घर नहीं आतीं

बेटियां बड़े नसीब से आती हैं

वो लोग बड़े बदनसीब होते हैं

जिनके घर बेटियां दु:ख पाती हैं

जून 2000  अपूर्वा के चौथे जन्म दिवस पर

 

ग़ज़ल - एक

कट गई पतंगें, खाली चरखड़ी

मुश्किलों का दौर है, मुश्किलें बड़ी

 

खाल खाली बरतन, आंखों में पानी

ठंडे हुए चूल्हे में, राख है पड़ी

 

भाग दौड़ में उसे, कोई देखता नहीं

एक अंधेरे मोड़ पे, जिन्दगी खड़ी

 

वक्त चल रहा है, हम भी चल रहे हैं

ग़र्चे अपने हाथ में, है ठहरी घड़ी

 

तीरगी से हारकर, बार-बार जंग में

जाने किसके वास्ते, रौशनी लड़ी

1998

 

ग़ज़ल - दो

उनके बंगलों में बसंत, फूलदार आया है

मेरे चेहरे पे ही क्यों, कैक्टस उग आया है

 

उसको कोई रोटी दो, पानी दो उसे कोई

चंद्रमा पे आदमी, जाके लौट आया है

 

जाने किसके वास्ते, वो मसजिदें ढहा रहे

मेरा राम तो सदा, दिल में रहता आया है

 

कैसे फूटेगी कोई, रौशनी ए जाने मन

तेरे आंचलों पे जब, तीरगी का साया है

 

तू मेरा निज़ाम है, तुझसे पूछता हूं मैं

हर दीए की रोशनी पे, किसका साया है।

1996

 

किला

हमको जनमते ही जो मिला है

ये व्यवस्था

एक क्रूरतम किला है

 

आदमी यहां जितने भी मिले हैं

सबके सब

किले के भीतर किले हैं

 

इसमें किसी को

मिलती नहीं मंजिल

इसके भीतर आदमी

नहीं रहता किसी काबिल

 

कविता मेरी

आग़ाज़ है जिनकी

यहां मिलती नहीं

एक भी आवाज़ उनकी

 

मैं भी फंसा हुआ हूं

शायद डरा हुआ हूं

शायद मरा हुआ हूं

 

कितनी गहरी है

निराशा की ये अवस्था

कैसे टूटेगी

पाशविक पंजों मड़ी व्यवस्था

1996

 

मां

तू आज है

क्योंकि कल तू लड़ी थी

मौत के तूफान में

जिन्दगी की खातिर अड़ी थी

 

तू ऐसे ही पली

घुप्प अन्धेरे में जुगनु-सी जली

नई सुबह की आशा भरी कली

 

तू आज है

कि कल तू अकेली थी

बेसहारेपन की पीड़ा

अकेले-अकेले झेली थी

 

कल चुप था

पैगम्बर या अवतार

आज तू बांटती

स्नेह, ममता, प्यार

1996  शान्ता जी के लिए

 

गाते-गाते

गाते-गाते

बच्चा जन्म लेता है

जवान हथौड़ा मारता है

 

गाते-गाते

लड़की बड़ी होती है

और हर दर्द सहती है

 

गाते-गाते

किसान अन्न उगाता है

मजदूर हाथ चलाता है

 

गाते-गाते

आदमी अंधेरे को परास्त करता है

सुबह लाता है

1989

 

हानी

भीतर खत्म हुआ जब पानी

घर से बाहर आया हानी

 

आसमान में बादल देखा

बड़े देश को प्यासा देखा

लगा सोचने अपना हानी

कहां गया सब पानी

 

खेत-खेत और गांव-गांव

पानी के हर ठांव-ठांव

कमल प्यास में नहीं खिला

उसको पानी नहीं मिला

 

हरा समंदर

गोपी चंदर

बूझो यारो

बूझो कैसे

अपना हानी

बनता पानी

हानी, खेल का साझीदार

1998

 

पूजा की लोरी

सोए तारे, सोया चंदा

सोई फूलों की बगिया

सो जा मेरी मुनिया

 

निंदिया रानी आई है

सुन्दर सपने लाई है

सुन्दर सपनों में खो जा

सो जा मेरी मुनिया

 

भूल जा दिन की बातों को

पप्पा जी की डांटों को

उनका हाथ बना तकिया

सो जा मेरी मुनिया

 

कल फिर सुबह आएगी

बिटिया पढ़ने जाएगी

एक दिन समझेगी दुनिया

सो जा मेरी मुनिया

2000

 

 

 

पतंग

फर-फर करती उड़ी पतंग

आसमान में उड़ी पतंग

 

बड़े अनोखे रंग हैं इसके

खूब निराले ढंग हैं इसके

बच्चों की मन भरी पतंग

फर-फर करती उड़ी पतंग

 

दुश्मन हवा जाल फैलाए

फिर भी उसको रोक न पाए

हवा से लड़ती उड़ी पतंग

फर-फर करती उड़ी पतंग

1985

 

आदेश के बाद

बंद कर दी गई

कारखानों की चिमनियां

मशीन चलाने वाले

गेटों से बाहर धकेल गए

इस तरह

उनकी सांसों के पत्ते खेले गए

 

हम बस्तियों में गए

उनको घर-घर में ढूंढ़ा

पालनों में, स्कूलों में, खेल के मैदानों में

बच्चे अब वहां नहीं थे

हमने उन जगहों की कल्पना की

जहां वे अब थे

 

मार तमाम गलियों में

संतोषी कथाओं के बावजूद

औरतों संतुष्ट नहीं थीं

वो गा रही थीं

हाय बनके पत्थर दिल अन्यायी

जज ने कैसे कलम चलाई

हमने उसका क्या बिगाड़ा है

उसने हमकों क्यों उजाड़ा है

1996

 

गली के दो छोर

एक छोर पर

किसी की शादी है

लड़कियां सज रही हैं

शहनाईयां बज रही हैं

 

दूसरे छोर पर

कोई मर गया है

लोग रो रहे हैं

यादें बो रहे हैं

 

गली के बीचों-बीच खड़ा हूं मैं

मुझे क्यों यकीन नहीं होता

ये हकीकत है

या कोई भयानक स्वप्न

 

मैं जो देख रहा हूं

इसे देखना कोई खेल नहीं

गली के दोनों छोरों में

कोई मेल नहीं

1996

 

सफ़दर

लोग कहते हैं

नाटक करता था सफ़दर

नाटक न करने वालों ने

उसकी हत्या कर दी

 

लोग कहते हैं

नाटक नहीं करता था सफ़दर

नाटक करने वालों ने

उसकी हत्या कर दी

 

नाटक करने वालों

या नाटक न करने वालों में

सफ़दर था ही नहीं

एक दर्द भरी आवाज़ था

वह तो एक ज्वाल था

शोषक के लिए

सफ़दर एक कठिन सवाल था

1995

 

चलते-चलते

इस रास्ते पर

मुझे कई दरवाजे मिलेंगे

 

छोटे-बड़े, हल्के-भारी

किसी पर मिलेगी खुशी

किसी पर ख्वारी

 

देखूं कितने दरवाजे

खोल पाता हूं मैं

इस भीड़ में

कहां जाता हूं मैं

1989

 

दिल्ली

कोई नहीं रोता

लाखों-लाख लोगों को

क़त्ल करता हुआ ये शहर

क़त्ल नहीं होता

 

मेरी कविता के ज़िगर में

धंस गई है किल्ली

तलवार की धर बन गई है

दिलवालों की दिल्ली

1994

 

निरूत्तर

प्रेम बन्दगी के

दुश्मन ज़िदगी के

आदमी को छांटते हैं

खून को ही बांटते हैं

 

स्याह होती भोर है

रक्षक ही चोर है

आदमी मशीन है

मालिक कमीन है

 

ये कैसा कानून है

अमानवी जुनून है

न्यायाधीश खुद डरे

करे तो कोई क्या करे

 

जन-जन में फूट है

कातिलों को छूट है

कवि चुपचाप है

तापहीन ताप है

 

अंधियारा मोड़ है

कहो क्या तोड़ है?

1997

 

श्याम विमल

श्याम विमल एक बूढ़ा कवि है

श्याम विमल एक ख़फ़ा कवि है

और सबसे बड़ी बात

श्याम विमल निर्गुट कवि है

 

कवि और कविता को

जो अलग-अलग मानते हैं

ये उन्हीं का बयान है

श्याम विमल कवि जैसा भी है

मगर एक अच्छा इंसान है

 

श्याम विमल चिट्ठियां लिखता है

प्रार्थना करता है सबसे

संवाद करो

 

चर्चित कवि संवाद नहीं करते

संवादहीन कवि की कविता

संवाद क्या करेगी

वह तो स्वार्थ के अंधेरे में मरेगी

1997

 

बच्चे

जो मर्ज़ी के मालिक होते हैं

और मन के सच्चे

भले होते हैं वे बच्चे

 

भली होती हैं

उनकी छोटी-छोटी ख्वाहिशें

छोटे-छोटे सपने

 

भली होती हैं

छोटी सी ख्वाहिश को

पूरा करने की

उनकी बड़ी-सी जिद्द

 

अपनी ख्वाहिशों की खातिर

कुछ कर गुजरते हैं जो बच्चे

भले होते हैं वो बच्चे

1995

 

नागार्जुन की कविता

सन उन्नीस सौ अठानवें के

ग्यारहवें महीने की पांच तारीख को

नहीं रहे बाबा नागार्जुन

यह खबर मैंने नहीं पढ़ी

 

पढ़ रहा था मैं

एक जीती जागती

नागार्जुन की कविता

यानी जीवन से भरी सरिता

1998

 

इतिहास

।। 1 ।।

कैसे लिखें इतिहास

हमारे लोगों का

एक असली इतिहास

 

कहां हैं तथ्य

कहां हैं दस्तावेज

 

तथ्य झुठला दिए गए

कर दिए बरबाद दस्तावेज

जैसे बरबाद किए गए

हमारे लोग

स्याह इतिहास के साक्षी

हमारे अपने लोग

 

हमारे पास बचे हैं

केवल तीन शब्द

जात, ज़हालत और निचला पायदान

 

इन्हीं तीन शब्दों में निहित है

हमारी समूची कौम का इतिहास

और केवल तीन शब्दों से भी

लिखा जा सकता है

हमारे लोगों का इतिहास

 

।। 2 ।।

इतिहास

मोहताज नहीं होता

चंद तथ्यों और दस्तावेजों का

 

सताए गए लोगों की

आहों में होता है

सताए गए लोगों का इतिहास

।। 3 ।।

इतिहास दुहराया नहीं जाता

लिखा जाता है बार-बार

नई दृष्टि

नए तेवर

और नई भाषा में

1997

 

कैसे

तितली-पर नहीं मांगते

बच्चों को क्या हुआ

बीमार से दिखते हैं

 

क्या तितलियों ने

इधर आना छोड़ दिया है

या फूलों ने

मुस्कराना छोड़ दिया है

या हमारे परी किस्से

समाप्त हो गए हैं

या बच्चे सबके सब

बड़े हो गए हैं

1994

 

वीर आदमी

खराब समय

सपने तोड़ता है

 

वीर आदमी

खराब समय में भी

सपने जोड़ता है

समय की धार को

वीर आदमी ही मोड़ता है

1989

 

दीवाना लड़का

संदेह का कुहरा छाया था जब

तब आशा के तार बुने

 

हर खिड़की जब बंद मिली

तब मन की खिड़की खोली

 

हर तरफ निराशा पसरी थी जब

तब अनगिन ख़्वाब सजाए

 

जब कोई साथ न आया

तब अपनी ही बांह गही

 

इस तरह एक दीवाना लड़का

चलता आया, चलता आया

1999

 

 

 

 

मेरी कविता

ऐसी हो मेरी कविता

जो इस बुरे वक्त की

तकलीफ़ बांट सके

गहराते अंधकार को

जितना हो छांट सके

2000

 

इस सदी के अंत पर

जी में आता है

कि लड़कियों को चहचहाते हुए

और लड़कों को नाचते हुए देखूं

जो भी मेरे करीब से गुज़रे

उसे प्यार भरा सलाम कहूं

 

जी में आता है

कि कहीं खुले में खड़े होकर

हवा की पावन थपकियों को महसूस करूं

और उसकी मन भावन तान को

शब्दों की गहराइयों में ले आऊं

 

जी में आता है

कि ठूंठ बनते जा रहे पेड़ों से

लिपट-लिपट कर रोऊं

और जमीन पर गिरे पत्तों को

चूम-चूमकर

अपने दिल में सजा लूं

 

जी में आता है

कि पहाड़ों को देखने निकल जाऊं

उनसे बेझिझक बातें करूं

पहाड़ों उनकी अथाह घाटियों में

मौहब्बत की उफंचाई का पयाम

बिखरा दूं

 

जी में आता है

कि बाजार बनती जा रही दुनिया में

खरीदारी पर निकले आदमी के लिए

उन चीजों की सूची बनाऊं

जिनकी खरीद-फ़रोख्त हो नहीं सकती

जैसे देश और मां और प्यार

 

जी में आता है

कि काम से लौटे घोड़ों के पास जाऊं

उनके घावों को सहलाऊं

दर्द भरा कोई गीत

उनके साथ मिलकर गाऊं

और उनके दिल के किसी कोने में

आशा की किरण बन जाऊं

1999

 

हमेशा के लिए बिछड़ गए दोस्त के नाम

वो तुम्हारा मुस्कुराता हुआ चेहरा

कि जैसे किसी सहरा में

दिख जाए कोई फूल

 

वो हर तार झनझनाती पुरकशिश आवाज़

जैसे किसी वायलिन से फूटता हो

प्यार का सैलाब   

 

वो खुशगवार आंखें तुम्हारी

कि जैसे स्याह रात में

दो जुगनू जगमगाते हों   वो जोश में उठ~ठे हुए दो हाथ

देते हुए सदा

करते हुए आग़ाज़

1992

 

नेताराम

खद्दर में छुप जाएगा

खूब हमारा नेताराम  

 

जनता को भरमाएगा

खूब हमारा नेताराम  

 

बार-बार कुर्सी पाएगा

खूब हमारा नेताराम 

 

जनमत को झुठलाएगा

खूब हमारा नेताराम

1994

 

ये सिर्फ विदा है

 

वो पहली मुलाकात में,दिल खोल के मिलना

वो फासला-ए-उम्र, हदें तोड़ के मिलना

हमको लगा जैसे कोई, हमराह आ मिला

ऐसा था हमसे एक बुजुर्गवार का मिलना

 

वो सोफ़े पे साथ बैठ के, चाय पिया करना

वो साथ-साथ चलते हुए, गप किया करना

कभी हम शुरु करते तो कभी वो शुरु करते

वो यूँ ही बात बात में, बातें किया करना

 

किसी निराश पल कोई सपना दिया करना

वो उलझनों की उलझनें, सुलझा दिया करना

वो सर्दियों में डाल के पिछ्वाड़े कुर्सियां

जीवन में हंसी धूप को, मतलब दिया करना

 

हम खुशनसीब निकले, हमें साथ मिला उनका

हम बेतज़ुर्बेकारों को, तजुर्बा मिला उनका

वो हाथ जो लपक के, मिला करते थे हमसे

दौरे-ख़िजां में सर पे, साया मिला उनका

 

वो पल जो उनके साथ, गुजारा किये हैं हम

वो पल जो उनके साथ, संवारा किये हैं हम

वो पल हमारी जिन्दगी में, बेमिसाल हैं

वो पल जो उनके साथ, गुजारा किये हैं हम

 

वो शिद्दत भरे ज़ज़बात, हमेशा ही रहेंगे

वो अदबी ख़्यालात, हमेशा ही रहेंगे

अब वो नहीं होंगे, स्टाफ़ रूम में मगर

वो उनके निशानात,  हमेशा ही रहेंगे

 

होंठों से मेरे आज, निकले यही सदा

और कोई हो न हो, पर सच हो ये दुआ

जीवन में उनके रोज ही, आया करे बसंत

उनकी जिन्दगी का फूल, महका रहे सदा

2000 डा. सुरेद्र नाथ तिवारी के लिए

 

नज़रिया

कुछ लोगों की जिन्दगी

बड़ी मुश्किल होती है

 

कुछ लोग जिन्दगी को

मुश्किल बना लेते हैं

 

कुछ लोग मुश्किलों का

हल खोज लाते हैं

मुश्किल भरी जिन्दगी को

बेहतर बनाते हैं

1997

 

बहुत जल्दी-जल्दी

आ रहे हैं लोग

बहुत जल्दी-जल्दी

जा रहे हैं लोग

बहुत जल्दी-जल्दी

 

जी रहे हैं लोग

बहुत जल्दी-जल्दी

मर रहे हैं लोग

बहुत जल्दी-जल्दी

1994

 

अधूरी पैरोड़ी

नेताओं ने पकड़ लिए हैं कान

और अफसरों ने कालर

सावधान आता है डालर

आंखें कोई खुली न रक्खे

बंद ही रखे कान

मेहमानों के भेस में प्यारे

आता है शैतान

भागो, दौड़ो कैम्पा लाओ

झलने को झालर

सावधन आता है डालर

1992

 

आइये इस भागती नदी को पार करें

ये नदी तो नहीं रुकेगी

अगर आप रुके रहे

तो बस चली जाएगी

ट्रेन छूट जाएगी

और आपकी नौकरी जाएगी

आप देखते रह जाएंगे

 

अगर आप नहीं रुके

तो आपकी जान जाएगी

या टूटेगी टांग

घर जाने की बजाए

आप अस्पताल जाएंगे

आपकी बीबी, आपके बच्चे

देखते रह जाएंगे

 

आइए दें एक दूजे का साथ

थाम लें हाथों में हाथ

और इस भागती नदी को पार करें

1997

 

सूटकेस

नेक मंत्री गए विदेस

वहां से लाए सूटकेस

 

सूटकेस था बड़ा कमाल

लाखों करता गोलमाल

 

डंडे वाला अन्धा है

ये तो उसका धन्धा है

 

जनता अब तैयार रहे

चुप्पी मारे कुछ न कहे

 

जंगल में नाचा एक मोर

नेक मंत्री हैं या चोर

1994

 

पशोपेश

मेरी बेटी खिड़की पर खड़ी होगी

और मैं

इस रफ्तार में फंसा हूं

 

ये रफ्तार नहीं थमने की

मैं थमा हूं

और इस रफ्तार के ख़िलाफ़

ख़तरा मोल लेने से

मेरी जान जा सकती है

 

मगर मैं कब तक थमा रहूंगा

ये रफ्तार नहीं थमने की

और मेरी बेटी

खिड़की पर खड़ी होगी 1999

 

चुनावी पैरोड़ी

आएंगे वो आएंगे

वोट मांगने आएंगे

 

वोट मांगने की खातिर

अपनी शक्ल दिखाएंगे

 

हाथ तोड़ते रहते हैं जो

हाथ जोड़ते आएंगे

 

गुंडे, चोर, उचक्के सारे

शक्ल बदलकर आएंगे

 

मंत्री बनते ही जनमत को

असली रूप दिखाएंगे

1997

कुछ छूटी हुई कविताएं

 

जिन्दगी

जिसने भी देखा

मुंह फेरकर चल दिया

बेबस पड़ी थी जिन्दगी 1990

घर

बरतन सूखे हैं

बच्चे भूखे हैं

चूल्हा ठंडा पड़ा है

बाप कहीं पीकर पड़ा है 1988

 

रात

चूहे जगते सारी रात

भगते फिरते सारी रात

कटे खोज में सारी रात

बरतन बजते सारी रात

1992

       ।। 1 ।।

जो जिन्दगी से दूर है

वो शायरी मशहूर है

 

ये किस मकाम पे खड़े हैं सब

शम्माएं बेअसर, चिराग बेनूर है

 

।। 2 ।।

जंगल है, सहरां हैं, मकां हैं

नए जमाने में आदमी की फसल नहीं होती

 

।। 3 ।।

रोटी का सवाल है

आदमी मशाल है

 

एटमों के दौर में

जिन्दगी हलाल है

 

।। 4 ।।

संभल कर चलते हैं लोग

असल में डरते हैं लोग

जबसे डरने लगे हैं लोग

रोज मरने लगे हैं लोग

1995

 

 

 

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