देवेश विजय
बीते
एहसास
मथुरा टर्मिनल से
बस
fफर
आगे बढ़ी तो मनन ने खिड़की से सिर टिका कर आखें बंद कर लीं। न जाने
अवचेतन से रफतार का कैसा ताल्लुक है,
खिड़की
के बाहर का संसार जैसे ही पीछे छूटने लगता है,
कितने ख्याल,
सुस्ती में घुलकर
ज़हन में हिलोरे लेने लगते हैं।
यूं तो हिन्दुस्तान
की ज्य़ादातर सड़कें आम यात्री को
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और पसीने से अक्सर सराबोर रखती हैं। पर वो जनवरी की शाम थी। ढलते सूरज
के खून से सना आसमान दिल्ली-आगरा राजमार्ग को सुरमयी बना गया था। हल्की
ठंडक के एहसास से मनन भी कुछ सिमट कर बैठ गया और खिड़की के साथ सिर सधा
कर
विचारों की दुनिया
में खोने लगा। बेटे का इम्तिहान सिर पर हैं
कुछ और समय उसे
देना होगा.... अगले महीने कलकत्ता की शादा में जाना ही पड़ेगा....
गर्मी आने से पहले मां को गिरिराज के दर्शन करवा दूं
वरना मन में
ग्लानि बनी रहेगी..... वगैरह
वगैरह।
ऐसे ही न जाने
क्या-क्या सोचते हुए मनन मीठी नींद में खोने लगा था कि अचानक तेज़
आवाज़ के साथ बस रूकी। उसने आंखे गड़ाकर खिड़की के शीशे से बाहर देखने
की कोशिश की। पर अंध्ेरा कापफी बढ़ चुका था और गाड़ियों की दौड़ती
बत्तियों के अतिरिक्त कुछ सुझाई न दिया। पिफर कंडक्टर ने ड्राइवर से
कुछ कहा और अगले दरवाज़े से कुछ लोग बस में चढ़े। शायद कार खराब होने
के कारण उन्हें बस का सहारा लेना पड़ रहा था। आगे की तरपफ,
दायीं ओर को,
दो सीटें खाली
थीं। वहीं ये नये यात्राी जाकर बैठ गये। एक सज्जन और शिशु को थामे एक
महिला। किसी सम्भ्रान्त परिवार के प्रतीत हो रहे थे।
ड्राईवर ने बस की
भीतर की बत्तियां बुझा कर रफ्रतार पकड़ ली थी। मनन भी आंखें बंद करके
अपने 'इनर
ट्रैक`
में पिफर खो जाना
चाहता था। पर,
नये यात्रिायों
में से एक का स्वर बेहद पहचाना लगा।
'हाँ,
यह तो कनिका की
आवाज़ थी।`
मनन को आंखें खोलकर,
गौर से,
उस परिवार की ओर देखना ही पड़ा। बच्चा शायद अचानक जागने के कारण रोने
लगा था। और महिला बच्चे को चुप कराने की चेष्टा में थी।
'हां,
वो कनिका ही थी।
बदन भर गया था,
इसीलिये पफौरन
पहचान में नहीं आयी होगी। पर आवाज़ में कैसी खूबी है
?
सैकड़ों में भी यह दूर से
पहचान करा जाती है
?
कनिका बच्चे को चुप कराने
के लिये पर्स में कुछ ढूंढ रही थी। वैसा ही हंसमुख-शान्त स्वभाव। इतने
साल बाद उसे देखकर कितनी यादें मनन के ज़हन में घुमड़ आयीं थीं।
कॉलिज में दोनो ने
साथ ही दाखिला लिया था। अंग्रेज़ी साहित्य को छोड़ मनन इतिहास में आ
गया था। संयोग से कनिका ने भी ऐसा ही किया। बस,
तभी से दोनों में
थोड़ी दोस्ती हो गयी थी। पर शिक्षक बनने की लगन में मनन पूरी तरह
अध्ययन पर केन्द्रित था। कनिका अच्छी छात्राा थी,
पर कॉलिज की अन्य
गतिविध्यिों में भी हिस्सा लेती थी। कभी दोनों हंसी मज़ाक भी करते थे,
जिसे आज के
अन्दाज़ में
'लाईट
फ्रलर्टिंग`
कह सकते हैं। पर
स्वभाव से दोनों कापफी अलग थे। और यूं भी वो ज़माना
'कैजुअल
रिलेशन्स`
का नहीं था।
'मनभावन`
के गीतों सी मासूम
ख्वाहिशें तो हाती थीं। पर,
सपनों में भी
प्यार अनछुआ न हो तो ग्लानि का एहसास रहता था। लड़कियां तब दुपट्टा
पहनती थीं। और लड़के बाइक्स की बजाय
'यू
स्पेशल`
से ही ज्य़ादा आया
करते थे। नयी पीढ़ी को उस दौर के एहसासों की खूबसूरती से परिचित कराना
आसान नहीं।
ग्रैजुएशन के तीन
साल बस ऐसे ही गुज़र गये। कभी कल्पनाओं में करीब होकर भी कनिका और मनन
ने कुछ विशेष एक दूसरे से नहीं कहा। हां,
पफाइनल एक्ज़ाम्स
के करीब,
'प्रैपरेटरी लीव`
के दौरान,
एक दिन लाइब्रेरी
में अचानक मिले थे। और बाद में,
इकट्ठे बैठकर चाय
पी थी। उसकी आवाज़ की वो लरज मनन से कभी भुलाई नहीं गयी। यह एहसास
दोनों को था कि अब ज्य़ादा मिलना नहीं होगा।
चलते हुये कनिका ने
कहा था: 'पफोन
करना।`
पर वो मोबाइल का
ज़माना नहीं था। यूं ही पफोन करने की हिम्मत मनन कभी जुटा नहीं पाया।
लेक्चरार बनने की मुहिम ने भी ज्य़ादा सोचने का मौका नहीं दिया। केवल
दोस्ती के रिश्ते को यूं भी समाज स्वीकार नहीं करता।
उन दोनों का पिफर
कभी सामना नहीं हुआ। पर आज अचानक,
वही कनिका,
कितनी आश्वस्त,
मसरुपफ और
पारिवारिक होकर मिली है।
इस बीच दम्पत्ति के
पीछे की सीट खाली हो गयी थी। मनन से रहा न गया। पीछे जाकर धीरे से कहा-
'कनिका`।
दम्पत्ति ने चौंक कर देखा और कुछ देर को कनिका मानो वही उन्नीस साल की
हंसमुख लड़की बन गई जिसके साथ रोज़ कॉलिज में सोवियत संघ,
चीन और जापान की नीतियों
पर बहसें हुआ करती थीं। उसने अपने पति से परिचय कराया। कार्ड और पतों
का आदान-प्रदान हुआ। और भी कितनी सारी बातें-- व्यावसायिक और निजी
ज़िन्दगी को लेकर।
पर मनन का ध्यान
बंटा हुआ था। पुरानी यादें ही नहीं,
बीते एहसास भी
ज़हन में तेज़ी से उभर आये थे। अच्छा हुआ,
बस इसी बीच
'सराय
काले खां`
पहुंच चुकी थी।
ड्राइवर ने अन्दर की बत्तियां पिफर जला दीं। मनन ने मपफलर मुंह पर
पैफला लिया। शायद वो अपने भाव छिपाना चाहता था।
बहुत ज़ोर देकर
दम्पत्ति ने उसे घर आने का न्यौता दिया। पर मनन के लिये यह मुलाकात
इतनी ही ठीक थी। यूं भी,
आज ज़िन्दगी की
रफतार कुछ गिने चुने रिश्तों को साध्ने का ही समय देती है। पिफर भी,
उस पल का,
उन घुमड़ आये
एहसासों का,
क्षणिक ही सही,
पर विचित्रा अनुभव
थाऋ और उस रूंध् का,
जो एक पल को गले
में उभर आयी थी।